________________
२५८ : सम्बोधि
२. एकत्व-वितर्क-अविचार
एक द्रव्य के एक पर्याय का चिन्तन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन नहीं होता।
३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाती
तेरहवें गुणस्थान के अन्त में होने वाला ध्यान। इसकी प्राप्ति के बाद ध्यानावस्था का पतन नहीं होता।
४. समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्तिअयोगावस्था में होने वाला ध्यान । इसकी निवृत्ति नहीं होती। अन्तिम दो भेद केवलज्ञानी में ही पाए जाते हैं।
अन्तर्मुहूर्त्तमात्रञ्च, चित्तमेवात्रतिष्ठति । छद्मस्थानां ततश्चित्तं, वस्त्वन्तरेषु गच्छति ॥४४॥
४४. छद्मस्थ का ध्यान एक विषय में अन्तर्मुहूर्त तक ही स्थिर रहता है, फिर वह दूसरे विषय में चला जाता है।
स्थितात्मा भवति ध्याता, ध्यानमैकाग्यमुच्यते। ध्येय आत्मा विशुद्धात्मा, समाधिः फलमुच्यते ॥४॥
४५. ध्यान के चार अंग हैं-ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि। जिसकी आत्मा स्थित होती है वह ध्याता-ध्यान करने वाला होता है । मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है, विशुद्ध आत्मा (परमात्मा) ध्येय और उसका फल है समाधि ।
उपधीनाञ्च भावानां, क्रोधादीनां परिग्रहः। परित्यक्तो भवेद् यस्य, व्युत्सर्गस्तस्य जायते ॥४६॥
४६. उपधि-वस्त्र-पात्र, भक्त-पान और क्रोध आदि के परिग्रह के परित्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्ग उस व्यक्ति के होता है जिसके उक्त परिग्रह परित्यक्त होता है ।
वस्तुएं बन्धन नहीं होतीं। बन्धन है आसक्ति । वस्त्र, पात्र, आहार आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org