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अध्याय १० : २०३
'मुनि' है। इसके साथ हमारा क्या-कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, आदि।
२. संयम-निर्वाह के लिए शरीर-रक्षा आवश्यक होती है। जहां शरीर है उसके निर्वहन की भावना है, वहां वस्त्रों का अपना स्थान है। जो व्यक्ति निष्प्रतिकर्म हो जाता है, वह चाहे वस्त्र रखे या नहीं, यह उसकी अपनी इच्छा है। किन्तु जो शरीर को चलाता है, उसे उसकी रक्षा भी करनी पड़ती है। वस्त्र शरीरनिर्वाह का एक उपाय है।
३. तीसरा कारण है-स्व-प्रतीति । यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मुनि-वेश में अपने को देखकर व्यक्ति के मन में यह अध्यवसाय निरंतर बना रहता है कि 'मैं साधु हूं, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है । अपने अस्तित्व-बोध का यह अनन्य उपाय है । इससे जागरूकता और अप्रमत्तता का प्रादुर्भाव होता है।'
अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु, मोक्षसद्भावसाधिका । ज्ञानञ्च दर्शनं चैव, चारित्रं चैव निश्चये ॥३७॥
३७. यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।
मोक्ष के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता है ? सवस्त्र होना चाहिए. या निर्वस्त्र ? यह प्रश्न गौण है। मोक्ष शरीर नहीं है। वस्त्र, भोजन, पानी आदि शरीर की पूर्ति के साधन हैं। मुक्ति आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का चरम विकास मोक्ष है। अतः अन्तरंग साधन ये हैं। वेश आदि बहिरंग साधन हैं।
संशयं परिजानाति, संसारं परिवेत्ति सः ।
संशयं न विजानाति, संसारं परिवेत्ति न ॥३८।। ३८. जिसमें जिज्ञासा (संशय) है वह संसार को जानता है।' जिसमें जिज्ञासा का अभाव है वह संसार को नहीं जानता।
जिज्ञासा हमारे ज्ञान-परिवर्धन की कुंजी है। वह बौद्धिकता की सूचना करती है । जिसमें जिज्ञासा नहीं है, उसमें ज्ञान का विकास भी नहीं है । जिज्ञासा को दबाने का अर्थ है ज्ञान को कटघरे में बंद रखना।
पूर्वोत्थिताः स्थिरा एके, पूर्वोत्थिताः पतन्त्यपि । नोत्थिता न पतन्त्येव, भङ्गः शून्यश्चतुर्थकः ॥३६॥
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