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अध्याय ११ : २३३
है। कोई नहीं चाहता है कि दुःख मिले किन्तु आश्चर्य है कि जाने, अनजाने सब दुःख~नरक में उतर रहे हैं । दुःख ने मनुष्य को नहीं पकड़ा है, किन्तु मनुष्य ने ही उसे पकड़ रखा है। जिस दिन यह समझ में आ जाएगा, आदमी उसे छोड़ भी सकेगा। दुःखी व्यक्ति ही दूसरों को सताने का प्रयत्न करता है। महावीर, बुद्ध आदि सन्तों ने किसी को नहीं सताया। क्योंकि वे परम सुख में थे। जब तक आप दुःखी है, दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकेंगे। आध्यात्मिक होने की शर्त है-आप -सुखी बन जाएं, दूसरों की चिन्ता छोड़ दें। दुःख को स्वीकार न करें। प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहें और उसे वरदान मानें। दूसरी बात है--सुख की मांग मत कीजिए । सुख मांगेंगे तो दुःख मिलेगा। सुख स्वभाव है । दुःख को छोड़ दीजिए। सुख उतर आएगा। सुख के लिए सुख का ज्ञान अपेक्षित है। जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी अनंत जन्मों का संग्रहीत दुःख एक क्षण में विदा हो जाएगा। 'मैं दु:ख किसी से लूंगा ही नहीं तो कौन मुझे दुःख देगा? मैं हर क्षण में प्रफुल्लित मुस्कराता रहूंगा। जो कुछ भी मेरे लिए है, वह सब मंगल रूप है।' ऐसे व्यक्ति को कौन दुःखी कर सकता है ?
हिंसासूतानि दुःखानि, भयवरकराणि च ।
पश्यव्याहृतमीक्षस्व, मोहेनाऽपश्यदर्शन ॥३८॥ ३८. हिंसा से दुःख उत्पन्न होते है । वे भय और वैर की वृद्धि करते हैं। मोह के द्वारा अपश्य-दर्शन (अद्रष्टा) बने हुए पुरुष ! तू द्रष्टा की वाणी से देख ।
हिंसा का अर्थ है-असत् प्रवृत्ति । वह मानसिक, वाचिक और कायिक-तीन 'प्रकार की होती है। जब आत्मा असत् प्रवृत्ति में प्रवृत्त होती है, तब अशुभ कर्मबंध होता है और अशुभ कर्म सभी दुःखों के मूल हैं। अतः हिंसा सभी दुःखों की उत्पादक शक्ति है। इससे भय और वैर बढ़ते रहते हैं। अभय वह है जो अहिंसक है। अहिंसा वैर का उपशमन करती है।
धर्मप्रज्ञापनं यो हि, व्यत्ययेनाध्यवस्यति । हिंसया मन्यते शान्तिं, स जनो मूढ उच्यते ॥३६॥ ३६. जो धर्म के निरूपण को विपरीत रूप से ग्रहण करता है और हिंसा से शांति की उपलब्धि मानता है, वह मनुष्य मूढ़ कहलाता
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