________________
अध्याय ११ : २२६
लोकहित के लिए बोलता है, न कि लोकरंजन के लिए। 'जन-रञ्जनाय' कहकर आचार्य ने अपना पश्चात्ताप प्रकट किया है। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य होता है-लोगों को सही मार्गदर्शन देना। यह तभी संभव है जबकि साधक सत्य के अतिरिक्त किसी को महत्त्व नहीं देता। सत्य सर्वोपरि है। सत्य के मार्ग में आनेवाली सभी अड़चनों से जो मुक्त हो चुका है वह है-छिन्नस्रोत ।
४.अनास्रव-परिभाषा की दृष्टि से अनास्रव का अर्थ होता है-पांच आस्रवद्वारों से रहित । इसका दूसरा अर्थ मध्यस्थ भी होता है। जो शुभ-अशुभ विचारों में सदा तटस्थ, समत्ववान्, मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है । यहां मध्यस्थ अर्थ अधिक संगत लगता है। धर्म का उपदेष्टा यदि स्थिर न हो तो सत्य के निरू पण में बड़ी कठिनाई पैदा होगी। फिर वह कभी बायें झांकेगा और कभी दाएं । उसे दूसरों पर निर्भर होना होगा।
तटस्थ व्यक्ति सदा स्थिर रहता है, न वह इधर झांकता है और न उधर । वह संतुलित रहता है । सत्य का आविर्भाव उसी स्थिति में संभव है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में लोगों को सिखाना कठिन काम है। भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो तो वह लोकशिक्षा [उपदेश] दे सकता है।
यन्मतं सर्वसाधनां, तम्मतं शल्यकर्तनम् ।
साधयित्वा च तत्तीर्णा, निःशल्या वतिनां वराः ॥३२॥ ३२. जो मार्ग सब साधुओं द्वारा अभिमत है वही मार्ग शल्य का उच्छेद करने वाला है। उसकी साधना से बहुत से उत्तमवती निःशल्य बनकर भव-समुद्र को तर गए।
शल्य आंतरिक व्रण है। ऊपर की चिकित्सा साध्य है, अंतर की असाध्य है, क्योंकि वह दृश्य नहीं है। शल्य भीतर ही भीतर पलने वाला महान् दुःख और विनाशक व्रण है । यह सूक्ष्म है। इसे पकड़ने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए। गहन अंतर्दर्शन के बिना इसका पकड़ में आना कठिन है। साध्य की प्राप्ति में यह बड़ा अमंगलकारी है । साधक को पहले ही क्षण में इससे मुक्त होकर साधना में प्रवेश करना चाहिए । शल्य तीन हैं
१. मायाशल्य-माया का अर्थ है-वक्रता, भ्रांति । वक्र आदमी ही घूमता है, सीधा-सरल नहीं। भ्रांति भी वक्रता में पलती है। सरल व्यक्ति के लिए स्वीकृति और साधना दोनों सरल हैं। उसकी परिणति भी सरल है, किंतु वक्र के लिए कठिन है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org