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अध्याय ११ : २११ जीवियं' मानव जीवन की पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं है। यह अनुभूत सत्य की उद्घोषणा है।
मेघ को महावीर ने यही कहा-'तू देख, कैसे यहां आया है ? कहाँ से आया है ? तू स्वयं मर गया किंतु खरगोश के शरीर पर पैर नहीं रखा। उसी अहोभाव के कारण हाथी की योनि से सम्राट् के घर मेघरूप में उत्पन्न हुआ है। अब सत्य की दिशा में विघ्नों के कारण आगे बढ़ने से कतराता है ?' मेघ की सोयी चेतना प्रबुद्ध हो उठी। कोई न कोई ऐसी घटना हमारे सबके जीवन में घटी है। संत सबके भीतर उसी संभावना को देखकर जगा रहे हैं। धर्म-श्रुति
धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ हैं । मनुष्य जीवन एक सांयोगिक घटना भी हो सकती है, किन्तु यह कुछ प्रयत्न साध्य है । जीवन के समस्त संस्कार एक पथगामी रहे हैं। धर्म-श्रवण-यह एक दूसरा आयाम है। धर्म के नये संस्कार को उद्भूत करने में पुराने संस्कार चट्टानों का काम करते हैं । वे सदा से प्रिय रहे हैं और यह सर्वथा अनजाना, अप्रिय और रसहीन । इंद्रियों के संस्कार पुनः पुनः अपनी ओर खींचते रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है-कामभोग से सम्बन्धित बातें सबकी सुनी हुई हैं, परिचित हैं और अनुभूत हैं, लेकिन भिन्न आत्मा का एकत्व न श्रुत है, न परिचित है और न अनुभूत है, इसलिए वह सुलभ नहीं है ।
धर्म का अर्थ है-स्वभाव । स्वभाव का स्वाद जिसने चखा है, वहीं स्वभाव की सुगंध मिल सकती है। जिसने स्वभाव में डूबने का प्रयास भी नहीं किया, वहां स्वभाव की बात हो सकती है किंतु जीवन्त दर्शन नहीं । कहा है कि 'अप्रियस्य च सत्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः' । ऐसे वक्ता और श्रोता का मिलना संभव नहीं, किंतु कठिन है जो अप्रिय सत्य कहने में न हिचकता हो।
धर्म-श्रवण यात्रा-प्रारम्भ का केन्द्र है। श्रवण पर सबने बल दिया है। 'श्रोतव्यः, मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः में श्रवण का स्थान प्रथम है। सुने बिना मनन किसका करे और किस पर चले। महावीर ने कहा है-अक्रिया (मुक्ति) का प्रथम द्वार है-श्रवण । सुमना क्या है ? वही नहीं जो परिचित, पुनः-पुनः सुना गया हो। इन्द्रियों का रस बार-बार उन्हीं को दोहराने में है जो किया गया है। वैराग्य उसी को कहा है-दृष्ट, अनुश्रुत आदि विषयों का वितृष्ण हो जाना । अब उन्हें न दोहराकर नई दिशा में इन्द्रियों की प्रतिष्ठा करना, सुनने का एक नया द्वार खोलना, अश्रव्य की बात सुनना । धर्म-कथा का अभिप्राय यही है कि जो समस्त इन्द्रियों और मन से परे है, उसका श्रवण करना। उसके बोध से ही जीवन की सकल ग्रन्थियां टूटती हैं।
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