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अध्याय ११ : २१६
वदन्तश्चाप्यकुर्वन्तो, बन्धमोक्षप्रवेदिनः ।
आश्वासयन्ति चात्मानं, वाचा वीर्येण केवलम् ॥१७॥ १७. जो केवल कहते हैं, किन्तु करते नहीं, बन्धन और मुक्ति का निरूपण करते हैं, किन्तु बन्धन से मुक्ति मिले वैसा उपाय नहीं करते, वे केवल वचन के वीर्य से अपने आपको आश्वासन दे रहे हैं।
न चित्रा त्रायते भाषा, कुतो विद्यानुशासनम् । विषण्णाः पापकर्मभ्यो, बालाः पण्डितमानिनः ॥१८॥ १८. जो अज्ञानी हैं, जो अपने आपको पंडित मानते हैं और जो पाप-कर्म से खिन्न बने हुए हैं, जिनका आचरण में विश्वास नहीं है, जो कोरे ज्ञानवादी हैं, उन्हें विचित्र प्रकार की भाषाएं पाप से नहीं बचा सकतीं और विद्या का अनुशासन भी उन्हें नहीं बचा सकता ।
पांडित्य और सम्यग् ज्ञान का अन्तर जान लेना आवश्यक है। सम्यग् ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। उसके लिए स्वयं में प्रवेश करना होता है। पांडित्यविद्वत्ता बाहर से आती है। जो भी अर्जित ज्ञान है वह सब पांडित्य है, उधार है, अपना नहीं है। पंडित बनने के लिए विश्व में बहुत साहित्य है, शिक्षक हैं, वक्ता हैं और भी विविध प्रकार के आधुनिक उपकरण हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य के दिमाग में इतने प्रकोष्ठ हैं जिनमें समग्र विश्व का साहित्य संगृहीत किया जा सकता है। दुनिया के सभी पुस्तकालयों का ज्ञान उनमें भरा जा सकता है। इतनी क्षमता होते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयं को इस ज्ञान से नहीं जान सकता। 'कन्फ्यूसियस' का बड़ा कीमती वचन है-'ज्ञानी वह होता है जो अपने को जानता है; और विद्वान् वह होता है जो दूसरों को जानता है।' विद्वान् और ज्ञानी का यह भेद स्पष्ट सूचित करता है कि ज्ञान की प्रक्रिया शिक्षा से सर्वथाः भिन्न है । कबीर ने ठीक कहा है
'पंडित और मसालची, दोनूं सूझे नाय ।
औरन को करै चांदनो, आप अंधेरे मांय ॥' परमात्म प्रकाश में लिखा है----
आत्म-ज्ञान विण अन्य जे, ज्ञान न तेनूं नाम । ते थी रहित पण तप बने दुख कारण सुतराम् ॥'
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