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२२४ : सम्बोधि
१०. अयोग-अवस्था । ११. सिद्धत्व-प्राप्ति। प्रस्तुत श्लोकों में इन सवका समावेश पांच तथ्यों में दिया गया है :
१. मोह-संवरण, २. व्रत-ग्रहण, ३. अप्रमत्त अवस्था की प्राप्ति, ४. अकषाय वीतराग अवस्था की प्राप्ति, और ५. अयोग-संपूर्ण नैष्कर्म की प्राप्ति ।
संवतात्मा नवं कर्म, नादत्तनास्रवो यतिः।
अकर्मा जायते कर्म, क्षपयित्वा पुराजितम् ॥२३॥ २३. संवृत (संवर युक्त) आत्मा वाला यति नए कर्मों को ग्रहण नहीं करता। उसके आस्रव रुक जाते हैं और वह पूर्व-अजित कर्मों का नाश कर, अकर्मी-कर्मरहित हो जाता है ।
अतीतं वर्तमानं च, भविष्यच्चिरकालिकम् । सर्वथा मन्यते त्रायी, दर्शनावरणान्तकः ॥२४॥ २४. वह दर्शनावरणीय कर्म का अन्त करने वाला यति चिरकालीन अतीत, वर्तमान और भविष्य को सर्वथा जान लेता है और वह सभी जीवों का रक्षक होता है।
अन्तको विचिकित्सायाः, सर्व जानात्यनीदृशम् । अनीदृशस्य शास्ता हि, यत्र तत्र न विद्यते ॥२५॥
२५. जो संदेहों का अन्त करने वाला है वह तत्त्वों को वैसे जानता है जैसे दूसरा नहीं जान पाता। असाधारण तत्त्व का शास्ता जहां-तहां नहीं मिलता।
सफलता उसे ही वरण करती है जो आस्थावान् और संदेह-रहित होता है । संशयशील व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। श्रेष्ठ-पुत्र अपने ही अविश्वास से विद्या-सिद्धि में असफल रहा; जबकि चोर विद्या साध कर आकाश मार्ग से उड़ गया। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं'ज्ञान का विकास पूर्ण विश्वास से ही फलित होता है। शृद्धालु व्यक्ति में जैसी ज्ञान की स्फुरणा होती है वैसी दूसरे में नहीं होती।
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