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अध्याय ११ : २२३
भगवान का दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। केवल ज्ञान या केवल तप से मुक्ति नहीं होती। भगवान् ने कहा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इनके समन्वय से मोक्ष सधता है । जब व्यक्ति इन चारों की आराधना करता है, तब वह दुःखमुक्त होता है। ज्ञान से प्राणी हेय और उपादेय को जानता है और दर्शन से उसमें विवेक जागृत होता है तब वह सत्य की ओर बढ़ता है। जब उसमें चारित्र का विकास होता है तब हेय को छोड़ उपादेय को ग्रहण करता है। इससे आने वाले कर्मों का निरोध होता है और जो पूर्वबद्ध कर्म हैं, उनका वह तपस्या द्वारा निर्जरण करता है। इस प्रकार वह बन्धन से बन्धन मुक्ति की ओर बढ़ता जाता है।
संवृत्य दृष्टिमोहं च, व्रती भवति मानवः ।
अप्रमत्तोऽकषायी च, ततो योगी विमुच्यते ॥२२॥ २२. पहले दृष्टि (दर्शन) मोह का संवरण होता है, फिर मनुष्य क्रमशः व्रती, अप्रमत्त, अकषायी (क्रोधादि-रहित) और अयोगी (मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध करने वाला) होकर मुक्त होता है।
बन्धन-मुक्ति सहसा नहीं सध जाती । वह क्रमशः होती है । व्यक्ति के क्रमिक अभ्यास से वह प्राप्त होती है । दशवैकालिकसूत्र में मुक्ति के क्रम का बहुत सुन्दर प्रतिपादन हुआ है । ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा साधन है, साध्य है मुक्ति । जीव और अजीव का ज्ञान अहिंसा का आधार है और उसका फल है, मुक्ति । इन दोनों के बीच में साधना का क्रम चलता है। मुक्ति का आरोहक्रम इस प्रकार है :
१. जीव-अजीव का ज्ञान । २. जीवों की बहुविध गतियों का ज्ञान । ३. पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का ज्ञान । ४. भोग-विरक्ति । ५. आंतरिक और बाह्य संयोग-त्याग। ६. अनगार-वत्ति। ७. अनुत्तर-संवरयोग की प्राप्ति । ८. स्वरूप बाधक कर्मों का विलय। ६. केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि ।
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