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अध्याय ११ : २१३ जो अपने को बचाता है वह खो देता है और जो अपने को खोने के लिए तैयार है वह पा लेता है । सत्य के मार्ग में मनुष्य में मुख्य विघ्न हैं- आलस्य, इन्द्रियबिषयों के सेवन में रस और कर्तव्य के प्रति उदासीनता । पुरुषार्थ ही मार्ग को सरल और मंजिल को सन्निकट करता है ।
इस चतुष्टयी का सम्यक् अवबोध अपेक्षित है और मनुष्य जीवन में जिस परम सत्यता का बीज छिपा है उसे प्रकट करना भी । बीज वृक्ष बने इसी में जीवन की सफलता निहित है ।
शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति । निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इवानलः ॥६॥
६. शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो सरल होता है । धर्म उसी आत्मा में ठहरता है जो शुद्ध होती है । जिस आत्मा में धर्म होता है घी से सींची हुई अग्नि की भांति परम दीप्ति को प्राप्त होती है ।
साधु कौन होता है ? महावीर कहते हैं- "मैं उसे साधु कहता हूं जो सरल, सीधा होता है, अनासक्त होता है, उर्जा को स्वयं के जागरण में नियोजित करता है ।" साधु और वक्र - ये दोनों एक चौखटे में नहीं बैठते । सरलता शुद्धि का पहला चरण हैं। असरल होकर आदमी ने कुछ पाया नहीं, खोया है । लोक और परलोक दोनों उसके हाथ से निकल जाते हैं । बुद्ध ने कहा है— समुद्र को कहीं से चखो वह खारा ही खारा है । ठीक साधु को किसी तरह कहीं से देखो, ऋजुता के सिवाय और कुछ नहीं । धर्म का अवतरण सरलता बनता है कि धर्म का मेघ बरसने लगता है, दिव्यता प्रकट हो जाती है ।
में
होता है । जैसे ही व्यक्ति सरल धर्म विराजमान हो जाता है,
लाओत्से ने कहा है---" सन्त फिर से बच्चे होते हैं । बच्चे बच्चे होते हैं किंतु अज्ञान के कारण। जैसे ही बड़े होते हैं - बचपन चला जाता है । फिर वह भोलापन, सरलता नहीं रहती । उस पर बुद्धि सवार हो जाती है, भय सवार हो जाता है, और वह जीवन का बहाव खत्म हो जाता है। सरलता बहाव है । बहाव में पवित्रता है, वह स्थिरत्व में नहीं होती । वर्तमान का जीवन नष्ट हो जाता है । सन्त फिर से बच्चे हो जाते हैं, अज्ञानपूर्वक नहीं, ज्ञानपूर्वक । वे अपने को इतना स्वच्छ कर लेते हैं कि अब कोई चीज छिपाने जैसी रहती ही नहीं और ती और अनागत से मुक्त होकर प्रतिक्षण में जीना प्रारम्भ कर देते हैं ।
हर्मन हेस ने कहा है - "जीवन बोध से शून्य सामान्य जन और जीवन की समस्त ज्ञान गरिमा से सम्पन्न रागातीत परमहंस के मुख-मण्डल पर खिलने वाले
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