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२१४ : सम्बोधि
निश्छल हास्य में कोई अन्तर नहीं होता।" महाभारत का शान्ति पर्व भी यही गीत गाता है
'ये च मूढ़तमा लोके, ये च बुद्धेः परं गताः ।
त एव सुखमेधन्ते, मध्यमः क्लिश्यते जनः॥ 'संसार में दो ही प्रकार के व्यक्ति आनन्द का अनुभव कर सकते हैं, एक अज्ञानी और दूसरा परम ज्ञानी। बीच वाले मनुष्य तो केवल दुःख पाते हैं।
चेतना सरल है। असरलता उसमें बाहर से प्रविष्ट हो गई। सरल होने के लिए करने की कुछ जरूरत नहीं है। जरूरत है असरलता (कपट) का प्रवेश होने न पाए । बाहर का मुखौटा हटा कि स्वयं का चेहरा उद्दीप्त हुआ (उभर आया)। स्वभाव के लिए कुछ और करना, उसे जटिल बनाने जैसा होगा। बस, उसके लिए अप्रमत्त-सजग रहना पर्याप्त है कि विभाव आपके अन्दर न घुसे। महावीर कहते हैं.---"जैसे ही आप स्वयं के भीतर प्रविष्ट हुए, सरल बने कि घृतसिक्त अग्नि की भांति परम तेजस्विता को उपलब्ध हो जाएंगे।"
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-"अनेक जन्मों के पुण्य से मनुष्य को सरल और उदार भाव प्राप्त होता है।
मनुष्य सरल स्वभाव वाला हुए बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता।
नियत्या नाम सजाते, परिपाके भवस्थितेः । मोहक क्षपयन कर्म, विमर्श लभतेऽमलम ॥१०॥
१०. नियति के द्वारा भवस्थिति के पकने पर जीव मोह-कर्म का नाश करता हुआ विशद विचारणा को प्राप्त होता है ।
तत्कि नाम भवेत् कर्म, येनाऽहं स्यान्न दुःखभाक् । जिज्ञासा जायते तीव्रा, ततो मार्गो विमृश्यते ॥११॥
११. 'ऐसा वह कौन-सा कर्म है जिसका आचरण कर मैं दुःखी न बनूं ?' मनुष्य में ऐसी तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके पश्चात् वह मार्ग की खोज करता है।
जैन दर्शन दुःख-मुक्ति का दर्शन है। जैन मनीषियों ने सारे संसार को दुःखमय देखा और यहां के सारे संयोग-वियोगों को दु:ख परम्परा को तीव्र करने वाला
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