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अध्याय १० : १६३
४. अजल्पन् अहसन् तन्मना भुंजीत-भोजन करते समय न बातचीत करनी चाहिए और न हंसना चाहिए । मन केवल भोजन में रहना चाहिए।
ईर्ष्याभयक्रोधपरिक्षतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन । प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक् परिपाकमेति ॥ मात्रयाप्यभ्यवहृतं, पथ्यं चान्नं न जीर्यति । चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरः ॥
—'भोजन करते समय मन शान्त रहना चाहिए। क्योंकि ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनता, प्रद्वेष, चिन्ता, शोक, दुःख-शय्या और रात्रि-जागरण-इन अवस्थाओं से प्रभावित व्यक्ति जो खाता है उसका ठीक-ठीक परिपाक नहीं होता। वह यदि पथ्य आहार करता है और युक्त मात्रा में करता है, फिर भी उसका खाया हुआ ठीक ढंग से नहीं पचता।'
मेघः प्राह
जायन्ते ये म्रियन्ते ते, मृताः पुनर्भवन्ति च।।
तत्र कि जीवनं श्रेयः, श्रेयो वा मरण भवेत् ॥१६॥ १६. मेघ बोला-जिनका जन्म होता है उनकी मृत्यु होती है, जिनकी मृत्यु होती है उनका पुनःजन्म होता है। ऐसी स्थिति में जीना श्रेय है या मरना ?
भगवान् प्राह
संयमासंयमाभ्यां तु, जीवनं द्विविधं भवेत् । संयतं जीवनं श्रेयः, न श्रेयोऽसंयतं पुनः ॥१७॥ १७. भगवान् ने कहा-जीवन दो प्रकार का होता है-संयतजीवन और असंयत-जीवन । संयत-जीवन श्रेय है, असंयत-जीवन श्रेय नहीं है।
सकामाकामभेदेन, मरणं द्विविधं स्मृतम्। सकाममरणं श्रेयः, नाकाममरणं भवेत् ॥१८॥
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