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अध्याय ६ : १७५
आगम की भाषा में जो मिथ्यादृष्टि है, वह सम्यग् ज्ञान का पात्र नहीं है; क्योंकि उसे स्व-भाव में आनन्द नहीं आता । मिथ्यादृष्टि के ज्ञान - चेतना होने का निषेध पंचाध्यायी में मिलता है। ज्ञान अपने आप में न सम्यक् होता है और न असम्यक् । वह पात्र की अपेक्षा से वैसा बनता है ।
जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होगा उसका ज्ञान भी मिथ्या होगा और जो सम्यकदृष्टि होगा उसका ज्ञान भी सम्यक् होगा । ज्ञान व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर करता है ।
आगमों में कहा है कि एक ही श्रुत मिध्यादृष्टि के लिए मिथ्या और - सम्यकदृष्टि के लिए सम्यक् बनता है - परिणत होता है ।
इसीलिए जैन परंपरा में 'दर्शन' (दृष्टि ) की विशुद्धि पर बहुत बल दिया है । जिसका दर्शन सही नहीं होता उसका ज्ञान भी सही नहीं होता ।
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आत्मीयेषु च भावेषु नात्मानं यो हि पश्यति । तीव्रमोहविमूढात्मा, मिथ्यादृष्टिः स उच्यते ॥ १० ॥
१०. जो आत्मीय गुणों में आत्मा को नहीं देखता और तीव्र ( अनन्तानुबंधी ) मोह के उदय से जिसकी आत्मा विमूढ है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है ।
मोह-कर्म की सोलह मुख्य कर्म- प्रकृतियां हैं । वे इस प्रकार हैं:
अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानी — क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानी - क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ ।
मिथ्यादृष्टि में अनन्तानुबंधी मोह का तीव्र उदय रहता है । मोह की अल्प मात्रा भी आत्म-विकास में बाधक है। जहां तीव्र मोह होता है, वहां आत्मविकास का स्वप्न देखना भी असंभव है |
आत्मा को विमूढ़ किए रखता है । विमूढ़ व्यक्ति न सम्यक् देखता है, न जानता है और न आचरण करता है । वह विभाव को अपना मानता है और वहीं चिपका रहता है । स्वभाव की ओर उसकी दृष्टि स्फुरित नहीं होती ।
आचार्य यशोविजय जी कहते हैं कि मोह के इस मंत्र ने समग्र जगत् को अन्धा बना रखा है । पर भावों में यह मेरा है, मैं इसका हूं, इसी को उलटकर यों कह दिया जाए कि - यह मेरा नहीं है और मैं इसका नहीं हूं - तो वह व्यक्ति मोहजित हो जाता है ।
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