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अध्याय ६ : १७७
१३. पदार्थों को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होना है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
विभिन्न व्यक्तियों का विभाग किया जाए तो वे दो रूपों में विभक्त हो सकते हैं-बौद्धिक-ज्ञानी और आत्म-ज्ञानी । बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से एक साधक दुर्बल हो सकता है, और आत्मज्ञान की अपेक्षा से एक बुद्धिजीवी भी। बौद्धिक ज्ञान आत्मा की दृष्टि में हेय है। वह व्यक्ति को छोटे-छोटे घरौंदों में बांधता है; जबकि आत्मज्ञान मुक्त करता है। बौद्धिक ज्ञान एक प्रकार का भावरण है, जो आत्मा का स्पष्ट या अस्पष्ट दर्शन भी नहीं करा सकता। अज्ञान की कारा से मुक्त होने पर शिष्य गा उठता है —मैं इसलिए गुरु को नमस्कार करता हूं, जिन्होंने अज्ञान-तिमिर से अंधे व्यक्तियों की आंखों में ज्ञान-रूपी अंजन आंज कर दिव्य चक्षु प्रदान किए हैं।
जो ज्ञान अज्ञान को नष्ट नहीं करता वह ज्ञान ही नहीं है। दवा रोग-नाश के लिए दी जाती है। यदि वह रोग को बढ़ाये तो उसका क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार यदि ज्ञान मुक्त-स्वतंत्र नहीं करता है तो वह ज्ञान भी क्या है ? 'सा विद्या या विमुच्यते'-विद्या वही है जो व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करे। इसलिए वह ज्ञान सम्यग् ज्ञान की कोटि में आता है, जो आत्मलीन होकर आत्मा को बंधनमुक्त करता है।
सदसतोविवेकेन, स्थैर्य चित्तस्य जायते । स्थितात्मा स्थापयेदन्यान, नास्थिरात्माऽपि साक्षरः ॥१४॥
१४. सत् और असत् का विवेक होने पर चित्त की स्थिरता होती है। स्थितात्मा दूसरों को धर्म में स्थापित करता है। जो स्थितात्मा नहीं होता, वह साक्षर होने पर भी यह कार्य नहीं कर सकता।
भविष्यति मम ज्ञानमध्येतव्यमतो मया।
अजानन् सदसत्तत्वं, न लोकः सत्यमश्नुते ॥१५॥ १५. मुझे ज्ञान होगा-इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए । जो जीव सत् और असत् तत्त्वों को नहीं जानता वह सत्य
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