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२७४ : सम्बोधि
६. आत्मा ज्ञानमय है। उसका ज्ञान अनन्त है। वह अनन्त गुण और पर्यायों को जानने में समर्थ है।
गुण-द्रव्य का सहभावी धर्म, अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाला धर्म। गुण द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होता।
पर्याय-द्रव्य की परिवर्तनशील अवस्थाएं ।
आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः। प्रकाशी चाप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसौ ॥७॥
७. आवरण की सघनता के तारतम्य से यह आत्मा सूर्य की 'भांति प्रकाशी और अप्रकाशी होता है ।
उभयालम्बनं तत्तु, संशयज्ञानमुच्यते । वेदनं विपरीतं तु, मिथ्याज्ञानं विपर्ययः ॥८॥
८. वह ठूठ है या पुरुष—इस प्रकार का उभयालम्बी ज्ञान 'संशय ज्ञान' कहलाता है । जो पदार्थ जैसा है उससे विपरीत जानना विपर्यय नामक मिथ्याज्ञान है।
ताकिकी दृष्टिरेषाऽस्ति, दृष्टिरागमिकी परा। मिथ्यादृष्टे वेज्ज्ञानं, मिथ्याज्ञानं तदीक्षया ॥६॥
६. यह तार्किक दृष्टि का निरूपण है। आगमिक दृष्टि का 'निरूपण इससे भिन्न है । उसके अनुसार मिथ्यादृष्टि व्यक्ति का ज्ञान, असत् पात्र की अपेक्षा से, मिथ्याज्ञान कहलाता है।
आत्म-ज्ञान निन्ति होता है । वह परापेक्ष नहीं है। जहां दूसरों की अपेक्षा रहती है, वहां न्यूनता भी रहती है । साधन, क्षेत्र आदि की अनुकूलता में वस्तु का परिज्ञान सम्यक् हो सकता है। लेकिन जहां कुछ कमी रहती है, वहां वह सम्यक् नहीं होता । संशय और विपरीत ज्ञान इसलिए सम्यक् ज्ञान की कोटि में नहीं आते । यह निरूपण दार्शनिक है, आगमिक-शास्त्रीय नहीं।
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