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अध्याय ८ : १६५
१. निःशंकित-सत्य में निश्चित विश्वास । २. नि:कांक्षित-मिथ्या विचार के स्वीकार की अरुचि । ३. निर्विचिकित्सा–सत्याचरण के फल में विश्वास । ४. अमूढदृष्टि-असत्य और असत्याचरण की महिमा के प्रति अनाकर्षण, ___ अव्यामोह। ५. उपवृहण-आत्म-गुण की वृद्धि। ६. स्थिरीकरण--जो सत्य से डगमगा जाएं, उन्हें फिर से सत्य में स्थापित
करना। ७. वात्सल्य-सत्य-धर्मों के प्रति सम्मान-भावना, सत्याचरण का सहयोग ।
८. प्रभावना-प्रभावक ढंग से सत्य के माहात्म्य का प्रकाशन । सम्यक्त्व के पांच लक्षण :
१. शम-कषाय उपशमन । २. संवेग--मोक्ष की अभिलाषा। ३. निर्वेद-संसार से विरक्ति। ४. अनुकम्पा--प्राणीमात्र के प्रति कृपा-भाव, सर्वभूत मैत्री, आत्मौपम्यभाव ।
५. आस्तिक्य-आत्मा में निष्ठा । सम्यग्दर्शन का फल :
गौतम स्वामी ने पूछा-'भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है ?' भगवान् ने कहा-'गौतम ! दर्शन-सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अन्त होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं । वह अनुत्तर ज्ञानधारा से आत्मा को भावित किए रहता है।
यह आध्यात्मिक है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु-बन्ध नहीं करता।
सम्यक्त्व मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी है। इसमें आत्मा और सत्य के प्रति आकपण होता है । अयथार्थता यहां नहीं रहती। यह सम्यक् को सम्यक् और असम्यक् को असम्यक् देखता है । असम्यक् से यह लगाव नहीं रखता। गीता की सात्त्विक बुद्धि सम्यक्त्व का ही रूप है। जो बुद्धि प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (अकर्म), कर्तव्य और अकर्तव्य, किससे डरना और किससे नहीं डरना; बंध और मोक्ष इनको समझती है वह सात्त्विक बुद्धि है। विरति और अप्रमाद
अनासक्तिः पदार्थेषु, विरतिर्गदिता मया। जागरूका भवेद् वृत्तिरप्रमादस्तथात्मनि ॥२०॥
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