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आमुख
'पढमं नाणं तओ दया'-पहले जानो, फिर आचरण करो। . ज्ञान के बिना वस्तु-स्वरूप का निर्णय नहीं होता। बन्ध और मुक्ति को जान लेने पर भी ज्ञान की प्रामाणिकता में संदेह बना रहता है। ज्ञान प्रकाशक है, तब उसके आगे संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि विशेषण क्यों प्रयुक्त होते हैं ? मेघ का मन मुक्ति की ओर उत्सुक है। लेकिन वह जानना चाहता है कि ज्ञान का स्वरूप कैसा है? क्या सभी प्रकार का ज्ञान सम्यक् है ? यदि है तो कैसे और नहीं है तो क्यों?
ज्ञान एक है, निरावरण है और निर्भेद है। आत्मा की अविकसित दशा में वह अव्यक्त और अस्पष्ट रहता है। वह स्वतंत्र नहीं होता, इन्द्रिय और मन के सहयोग से स्फुरित होता है। स्वतन्त्रता निविवाद है, किन्तु पराधीनता नहीं। पराधीनता में असत्य पलता है।
ज्ञान का क्षेत्र भी ऐसा ही है। वह प्रकाशक होते हुए भी कहीं-कहीं स्वयं में धुंधला और मिथ्या हो जाता है। वहां यह प्रकाश सीधा आत्मा से नहीं आता। जो प्रकाश सीधा आत्मा से संपृक्त होकर आता है, वह असंदिग्ध और निरावृत होता है।
आत्मा का सामीप्य साधना से साधा जाता है। साधना व्यक्ति को आत्मरत कर देती है । आत्मा की लीनता ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ज्ञान की प्रकाशलौ भी उद्दीप्त होती जाती है । ज्ञान और आचार का यह समन्वय साधक को स्वस्थ बना देता है, यही इस अध्याय का प्रतिपाद्य है।
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