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६६ : सम्बोधि
अहिंसक है । अहिंसा और भय की दिशा एक नहीं होती-जो अभय नहीं होता वह अहिंसक भी नहीं हो सकता । अहिंसा के लिए अभय होना आवश्यक है।
स्वगुणे स्वत्वषीर्यस्य, भयं तस्य न जायते। परवस्तुषु यस्यास्ति, स्वत्वधीः स भयं नयेत्॥६॥
६. जो आत्मीय गुणों में अपनत्व की बुद्धि रखता है उसे भय नहीं होता । जो पर-पदार्थ में अपनत्व की बुद्धि रखता है उसे भय होता है।
आत्म-गुणों में विचरण करने वाला साधक अभय बन जाता है। उसका अपनापन आत्मा में ही होता है, बाहर नहीं। वह देखता है-मैं ज्ञानस्वरूप हूं, मैं दर्शनस्वरूप हूं, मैं आनन्द-स्वरूप हूं और मैं सम्पूर्ण शक्ति-सम्पन्न हूं। मेरी निधि यही है, इसे छीननेवाला कोई नहीं है। शरीर, परिजन, अर्थ आदि ये सब मेरे से भिन्न हैं। ऐसा सोचने वाला मृत्यु से भी अभय रहता है। वह गा उठता है-मेरी मृत्यु नहीं है, मैं अमर हूं। मुझे भय किसका है। मैं नीरोग हं! रोग शरीर का धर्म है। फिर मैं क्यों व्यथित बनूं ! बचपन, यौवन और वृद्धत्व भी शरीरधर्म हैं । मैं आत्मा हूं। वह न वृद्ध है, न युवा है और न बालक है। __ जो व्यक्ति ऐसा चिन्तन करता है, उसे कभी किसी से डर नहीं होता।
जो व्यक्ति बाह्य पदार्थों को अपना मानता है, बाह्य संबंधों को अपना मानता है, उसे पग-पग पर भय रहता है। बाह्य पदार्थों के अर्जन और संरक्षण में उसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं।
मेघः प्राह
न भेतव्यं न भेतव्यं, भीतो भूतेन गृहयते। किमर्थमुपदेशोऽसौ, भगवस्तव विद्यते ॥१०॥
१०. मेघ ने पूछा-भगवन् ! आपने यह क्यों कहा-मत डरो, मत डरो। जो डरता है उसे भूत पकड़ लेते हैं ?
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