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१०२ : सम्बोधि
मुक्तेरयमुपायोऽस्ति, योगस्तेनाभिधीयते । अहिंसात्मविहारी वा स चैकाङ्गः प्रजायते ॥२०॥
२०. यह धर्म मुक्ति का उपाय है, इसलिए यह योग कहलाता है । भिन्न-भिन्न दृष्टियों से धर्म के अनेक विभाग होते हैं। जहां उसके और विभाग नहीं किए जाते, वहां अहिंसा या आत्म- रमण को ही धर्म कहा जाता है । यह एकांग धर्म है ।
योग शब्द यहां उस साधना पद्धति का प्रतीक है जिसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सर्वोच्च शिखर को छू लेता है । योग का अर्थ है—भेद से अभेद में प्रवेश करना, द्वैत से अद्वैत का साक्षात्कार करना, विजातीय से सजातीय का अनुभव करना । योग के आठ अंग हैं - १. यम २. नियम (३) आसन ( ४ ) प्राणायाम ( ५ ) प्रत्याहार ( ६ ) धारणा ( ७ ) ध्यान और ( ८ ) समाधि । इस व्यवस्था क्रम
शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य का सम्यग् अवबोध है । शरीर और मन की स्थिति पर व्यक्ति खड़ा है । इसलिए साधना का प्रवेश द्वार शरीर है । शरीर की रोगग्रस्त स्थिति में आत्मा की स्मृति सम्भव नहीं है । सारा ध्यान बीमारी अपनी तरफ खींचती रहती है, इस स्थिति में मन आत्मा का स्मरण कैसे कर सकता है ? अतः आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा शरीर को ध्यान, समाधि के योग्य रखना अपेक्षित है। मुख्य बात इतनी ही है कि चाहे किसी भी योग पद्धति को हम स्वीकार करें किन्तु येन-केन प्रकारेण शरीर का स्वास्थ्य नितांत उपादेय है । उसके साथ-साथ या पश्चात् चित्त का निर्माण आवश्यक है । चित्त में जो वासना, संस्कार, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि का कूड़ा जमा है उसे निकाल फेंकना होता है । चित्तशुद्धि के अभाव में परमात्मा का अवतरण - प्रकटीकरण असंभव है ।
संत भिक्षा के लिए
एक बहिन ने एक दिन संन्यासी से पूछा - 'महात्माजी ! परमात्मा का दर्शन कैसे हो? बहुत प्रयत्न करती हूं कि शांति मिले, प्रभु का दर्शन हो ।' संत ने कहा – 'अच्छा, कभी समय आने पर बताऊंगा ।' एक दिन पुनः आये । बहिन भिक्षा देने लगी तब देखा पात्र गंदा है । वह बोली - 'भिक्षा गंदी हो जाएगी, पात्र गंदा है ।' संत ने कहा - 'उस प्रश्न का उत्तर है यह । तुम देखो, पात्र गंदा हो तब कैसे शांति मिले और कैसे परमात्मा का अवतरण हो ? बस, पात्र शुद्ध कर लो, परमात्मा की झांकी स्वतः ही मिल जाएगी ।' चित्त पात्र को परमात्मा के अवतरण के लिए पूर्णतया शुद्ध करना होता है । स्वभाव-धर्म शुद्ध चित्त में प्रतिबिंबित होता है ।
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