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अध्याय ८ : १५६
८. साधु में असाधु संज्ञा। ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा।
१०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा । इसी प्रकार सम्यक्-तत्त्व-श्रद्धा के भी दस रूप बनते हैं :
१. अधर्म में अधर्म संज्ञा। २. धर्म में धर्म संज्ञा। ३. अमार्ग में अमार्ग संज्ञा। ४. मार्ग में मार्ग संज्ञा। ५. अजीव में अजीव संज्ञा । ६. जीव में जीव संज्ञा। ७. असाधु में असाधु संज्ञा। ८. साधु में साधु संज्ञा। ६. अमुक्त में अमुक्त संज्ञा ।
१०. मुक्त में मुक्त संज्ञा। यह साधक, साधना और साध्य का विवेक है। जीव-अजीव की यथार्थ श्रद्धा के बिना साध्य की जिज्ञासा ही नहीं होती। आत्मवादी ही परमात्मा बनने का प्रयत्न करेगा, अनात्मवादी नहीं। इस दृष्टि से जीव-अजीव का संज्ञान साध्य के आधार का विवेक है। साधु-असाधु का संज्ञान साधक की दशा का विवेक है। धर्म-अधर्म, मार्ग-अमार्ग का संज्ञान साधना का विवेक है। मुक्त-अमुक्त का संज्ञान साध्य-असाध्य का विवेक है।
सिद्धान्त की भाषा में जब तक दर्शनमोह के तीन प्रकार-सम्यक्त्व-मोह, मिथ्यात्वमोह और सम्यक्-मिथ्यात्व-मोह और चारित्र-मोह के प्रथम चतुष्कअनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय रहता है तब तक मिथ्यात्व का अस्तित्व रहता है और जब इन सात प्रवृत्तियों का क्षय-क्षयोपशम होता है, तब सम्यक्त्व (क्षायिक या क्षायोपशमिक) की प्राप्ति होती है।
मिथ्यात्वी विपरीत मान्यता से दीर्घसंसारी हो जाता है। उसे प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वह जड़-जगत् को अपना आकर्षण केन्द्र बना लेता है। मिथ्यात्व की तुलना गीता (१८।३२) के तमोगुण से होती है। वहां कहा गया है कि वह बुद्धि तामसी है जो तम से व्याप्त होकर अधर्म को धर्म समझती है और सभी बातों को विपरीत समझती है।
बुद्ध की भाषा में वह दृष्टास्रव है जो यथार्थ में अयथार्थ का दर्शन करता है और अयथार्थ में यथार्थ का।
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