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१०६ : सम्बोधि
वाला साधक पाप कर्म का बंधन नहीं करता ।
सत्यमस्तेयकं
ब्रह्मचर्यमेवमसंग्रहः । अहिंसाया हि रूपाणि विहितान्यपेक्षया ॥२३॥
२३. सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये अहिंसा के ही रूप हैं । ये विभाग अपेक्षा -दृष्टि से किए गए हैं ।
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अवैराग्यञ्च मोहश्च नात्र भेदोऽस्ति कश्चन ।
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विषयग्रहणं तस्मात्
ततश्चेन्द्रियवर्तनम् ॥२४॥
२४. जो अवैराग्य है वही मोह है । इनमें कोई भेद नहीं है । मोह से विषयों का ग्रहण होता है और उससे इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है ।
मनसश्चापलं तस्मात् संकल्पाः प्रचुरास्ततः । प्राबल्यं तत इच्छाया, विषयासेवनं ततः ॥ २५ ॥
२५. इन्द्रियों की प्रवृत्ति से मन चपल बनता है और मन की चपलता से अनेक संकल्प उत्पन्न होते हैं । संकल्पों से इच्छा प्रबल बनती है और प्रबल इच्छा से विषयों का सेवन होता है ।
वासनायास्ततो दाढ्यं ततो मोहप्रवर्तनम् । मोहव्यूहे प्रविष्टानां मुक्तिर्भवति दुर्लभा ॥ २६॥
२६. विषयों के सेवन से वासना दृढ़ होती है और दृढ़ वासना से मोह बढ़ता है । मोह एक व्यूह है । उसमें प्रवेश करने के पश्चात् मुक्ति की उपलब्धि कठिन हो जाती है ।
जीवन-धारण का लक्ष्य है— बन्धन - मुक्ति । बन्धन मोह है । मोह व्यूह को बिना तोड़े कोई भी व्यक्ति साध्य तक पहुंच नहीं सकता । यह हमारी प्रगति में बाधक है । अज्ञान अन्धकार की ओर ढकेलता है । इसलिए भक्त पुकारता हैप्रभो ! तू मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चल, मृत्यु से अमरता की ओर ले चल, असत्य से सत्य की ओर ले चल ।
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