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८६ : सम्बोधि
से समेटते हुए कहा-'तुम दोनों ठीक हो। न तुमने देखा है कि ईश्वर है और न लेखक ने देखा है कि वह नहीं है। तुम दोनों सिर्फ मानते हो । मानने का क्या मूल्य होता है ?'
जबलपुर के महान् ख्याति प्राप्त वकील हरिसिंह की घटना तर्क की सार्थकता और निरर्थकता का स्पष्ट बोध कराती है। एक बार वे कोर्ट में अपने पक्ष की ओर से बोलने खड़े हुए, किन्तु भूल गए और बोलने लगे प्रतिपक्ष की ओर से। इतने अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए कि सभी हतप्रभ रह गए। प्रतिपक्षी वकील बड़ा प्रसन्न हो रहा था। सेक्रेटरी का साहस नहीं हुआ कि बीच में कह दे । जब बीच में पानी पीने लगे तब संकेत किया कि यह आपने क्या किया? हमें प्रतिपक्ष के लिए नहीं बोलना था। हरिसिंह ने कहा- ठीक है। फिर बोलने लगे और कहा-अभी तक मैंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं वे विरोधी की ओर से थे। वह क्या कहने वाला है, यह आपके समक्ष रखा, अब मैं अपने तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं। बस, उसी सचोट भाषा में उनके उत्तर दिए और अपने पक्ष की सत्यता प्रमाणित की। वे जीत गए। यह है तर्क का चक्र। आप घुमाने में कुशल हैं तो चाहे जिस ओर घुमा सकते हैं। _ महावीर कहते हैं-मैं तर्क को बुरा नहीं मानता। बुद्धिवाद व्यर्थ नहीं है। किन्तु वह सर्वत्र सार्थक भी नहीं है। उसकी सीमा पहचाननी चाहिए। तर्क से ज्ञात होने वाले पदार्थों में ही तर्ककाम कर सकता है। उसके आगे नहीं। पदार्थों की अपनी-अपनी परिधि है। पदार्थ तर्कगम्य और श्रद्धागम्य दोनों हैं। इनका विवेक अपेक्षित है।
श्रद्धा-विश्वास की सुस्थिरता हमें ज्ञान के अन्तिम चरण तक पहुंचा देती है । अज्ञान विलीन हो जाता है। ज्ञान के एक-एक रहस्य खुलकर हमारे सामने आने लगते हैं। तर्क उन रहस्यों का पता अनेक जन्म तक भी नहीं पा सकता, क्योंकि जो विषय अतर्कणीय है, उसके लिए तर्क का जाल बिछाना अकिंचित्कर हैं। पदार्थों की यह स्वयं मर्यादा है। कुछ तर्क से पकड़े जा सकते हैं, कुछ नहीं। ... श्रद्धा और तर्क का समन्वय समुचित है। सत्य तक पहुंचने के लिए दोनों का आलम्बन आवश्यक है, किन्तु उनकी सीमाओं का ज्ञान अपेक्षित होता है ।
हेतुगम्येषु भावेषु, युजानस्तर्कपद्धतिम् ।
अहेतुगभ्ये श्रद्धावान्, सम्यग्दृष्टि वेज्जनः ॥२१॥ २१. जो हेतुगम्य पदार्थों में हेतु का प्रयोग करता है और अहेतु
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