Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ मनःस्थिति और समाजवाद की धारा बिलकल भिन्न हो जाती है। यह एक मनोवैज्ञानिक बात है। आज इस विषय पर बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक गहरी खोज कर रहे हैं और यह अध्ययन कर रहे हैं कि समय के साथ हमारे भावों का क्या सम्बन्ध है ? सात वार हैं और पन्द्रह तिथियाँ हैं। मान्त्रिक आचार्यों ने प्रत्येक तिथि के अलग-अलग जाप निश्चित किए हैं। मन में प्रश्न होता था कि ऐसा क्यों किया गया ? क्या एक ही प्रकार का जाप सातों वारों और सभी तिथियों के लिए पर्याप्त नहीं होता ? गहरा चिन्तन करने पर ज्ञात हुआ कि सोमवार में या एकम तिथि में हमारे मन का भाव एक प्रकार का होता है और शेष वारों और तिथियों में भाव भिन्न प्रकार का होता है। प्रत्येक वार तिथि को वह बदलता रहता है। अमावस्या, पूर्णिमा चतुर्दशी को वह एकदम बदल जाता है। इन तिथियों में मन उन्माद और पागलपन से भर जाता है। इसलिए इन तिथियों में उपवास और धार्मिक जागरण का विधान किया गया है जिससे कि मनुष्य अपने मन की स्थिति को सुरक्षित रख सके, उस पर नियन्त्रण रख सके और बड़ी दुर्घटना से बच सके। . संस्कृत साहित्य का मर्मज्ञ राजा भोज उस समय वालक था जब पिता का देहान्त हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् उस राज्य का भार भोज के चाचा भुज पर आ गया। एक दिन भुज के मन में दक्षिणायन आ गया। रात का समय होगा। उसने सोचा-अब कुछ ही वर्षों बाद मुझे यह राज्य भोज को सौंपना पड़ेगा। सत्ता मेरे हाथ से निकल जाएगी फिर मैं कहीं का न रहूँगा। अच्छा है भोज का नामोनिशान ही मिटा दिया जाए। उसने वत्सराज को बुलाकर कहा-बालक भोज को जंगल में ले जाओ और वहाँ उसका वध कर दो। वत्सराज देखता रह गया। पर राजा की आज्ञा थी। उसने यह कल्पना ही नहीं की थी कि राजा भुज इतना अन्याय कर सकता है। पर मन के दक्षिणायन में अपटित हो सकता है, बड़े से वड़ा अन्याय हो सकता है। वत्सराज बालक भोज को रथ में बिठा जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल में जाकर महाराजा भुज का आदेश बालक भोज को कह सुनाया। बालक भोज आदेश सुनकर सन्न रह गया। उसने कहा-वत्सराज ! मारने से पूर्व एक काम करो। मैं एक पत्र लिखता हूँ। उसको तुम महाराज भुज को दे आओ। मैं इस स्थान पर बैठा रहूँगा, पलायन नहीं करूँगा। वत्सराज ने बात मान ली। बालक भोज ने एक श्लोक लिखा 'मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः, सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्यासी दशास्यांतकः। अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ! नैकेनापि समं गता वसुमतिः नूनं त्वया यास्यति ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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