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अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद
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आ गया। एक धनी और हजारों बेकार हो गए। संघर्ष की जड़ मजबूत हो गई। वही आगे जाकर साम्यवाद के रूप में फलित हुई।
पुराने पूंजीपतियों की धारणा यह थी कि यह परम्परा इसी प्रकार चलती रहेगी। पूँजीपति और मजदूर उसी प्रकार बने रहेंगे। मार्क्स ने इस दृष्टिकोण से भित्र विचार प्रस्तुत किया। वह द्वन्द्वात्मक भौतिकता कहलाता है। उसके अनुसार यह विश्व परिवर्तनशील है। मूलावस्था में विरोधी तत्त्व समवेत रहते हैं। जिस समय जिसकी प्रवलता होती है, उस समय वह व्यक्त हो जाता है। एक के बाद दूसरी अवस्था आती है, दूसरी के वाद तीसरी। दूसरी अवस्था पहली का विपरिणाम और तीसरी विपरिणाम का विपरिणाम होती है। यह क्रम चलता रहता है। पहले पूंजीवाद आया, बेकारी बढ़ी, शोपण हुआ। शोपण सं क्षोभ उत्पन्न हुआ-पूँजीवाद का ढाँचा लड़खड़ाने लगा। प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद को जन्म मिला। आर्थिक दृष्टि से साम्यवाद का स्वरूप उत्पादन और वितरण में समाया हुआ है। इन पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो, यही है साम्यवाद का आर्थिक दृष्टिकोण।
कुछ पुराने दार्शनिकों ने कहा है-सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो। किन्तु सम्पत्ति का वितरण कैसे किया जाए, यह उन्होंने नहीं बतलाया। इसलिए आज के चिन्तक उसे दार्शनिक साम्यवाद कहते हैं। मार्क्स ने सम्पत्ति के वितरण की व्यवस्थित पद्धति बतलाई। इसलिए उसका साम्यवाद. वैज्ञानिक साम्यवाद कहलाता है। उसने एक सीमा तक सम्पत्ति के वैयक्तिक-प्रभुत्व को राष्ट्रीय प्रभुत्व के रूप में बदल दिया। ___अणुव्रत का अभियान वैयक्तिकता से राष्ट्रीयता की ओर नहीं है। वह असंग्रह की ओर है। यह आर्थिक समस्या का समाधान नहीं है, किन्तु अर्थ के प्रति होने वाले आकर्पण को तोड़ने की प्रक्रिया है। लोग कहते हैं, अपरिग्रह का उपदेश हजारों वर्षों से चल रहा है, पर स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। तर्क सही है। वैज्ञानिक साम्यवाद के द्वारा समाज की अर्थ-व्यवस्था में जो परिवर्तन आया है, वह अपरिग्रह के उपदेश से नहीं आ सका है। इसका कारण दोनों का भूमिका-भेद है। साम्यवाद का उद्देश्य है-समाज के अर्थतन्त्र का परिवर्तन और अपरिग्रह का उद्देश्य है-व्यक्ति की आत्मा का परिशोधन या पदार्थ-संग्रह की मूर्छा का उन्मूलन। इनकी प्रक्रिया भी एक नहीं है। साम्यवादी अर्थ-व्यवस्था, राज्य-शक्ति के द्वारा होती है और आत्मा का परिशोधन व्यक्ति के हृदय परिवर्तन से होता है। अर्थ-व्यवस्था सामाजिक हो सकती है, पर आत्मा का शोधन वैयक्तिक ही होता है। संक्षेप में कहा जाए तो परिग्रह भोग-त्याग का प्रेरक है और साम्यवाद भोग की
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