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भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध
भिन्न-भिन्न शब्द हैं और भिन्न-भिन्न विचार। संस्कृति भी एक नहीं है। प्रेरणाएँ और सम्बन्ध भी अनेक हैं। हम प्रेरणा और सम्बन्ध पर विचार करें। हमें दोनों को एक साथ देखना होगा कि मनुष्य की मौलिक प्रेरणाएँ क्या हैं और उनके आधार पर सामाजिक सम्बन्धों का कैसा निर्माण होता है ? हम पूरी संस्कृति का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि किसी भी संस्कृति को कभी विभक्त नहीं किया जा सकता। भौगोलिक सीमाओं को बाँधा जा सकता है, किन्तु संस्कृति की विभाजक रेखाएँ नहीं बनतीं। विचार इतना संक्रान्त होता है कि पूरे जगत् की संस्कृति एक बन जाती है। वास्तव में काम की प्रेरणा और अर्थ की प्रेरणा से एक संस्कृति का विकास हुआ। इसे पदार्थवादी संस्कृति या भोगवादी संस्कृति कहा जा सकता है। ___व्यक्ति को सुविधा और सुख चाहिए। वह पदार्थ से मिलता है। धन होता है तो सब कुछ मिल जाता है।
चैतन्य और त्याग पर्दे के पीछे हैं। पदार्थ और भोग सामने हैं। प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि पदार्थ से, भोग से सुख मिल रहा है, सारी सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं। त्याग का सुख कब, कैसे मिलेगा, कौन जाने। वह परोक्ष है। चैतन्य का अनुभव कब, कैसे होगा, पता नहीं। पर पदार्थ और भोग का अनुभव तो सबको है। इसमें अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है। इसमें सदा भीड़ लगी रहती है।
ध्यान का मार्ग ऐसा नहीं है। यह अज्ञात दिशा की ओर ले जाने वाला मार्ग है। यहाँ भीड़ कैसे हो सकती है ? यदि कोई कहे कि यहाँ स्वर्ण बनाने की विधि सिखाई जा रही है तो बहुत बड़ी भीड़ लग सकती है। यदि यह कहा जाए कि यहाँ चैतन्य का अनुभव कराया जाता है तो विरल व्यक्ति ही उपस्थित रहेंगे। लोग कहेंगे चैतन्य का अनुभव बकवास है, व्यर्थ है। पदार्थ के भोग से प्रत्यक्ष लाभ होता है, यह सब जानते हैं। पर यह भी जान लेना चाहिए कि ध्यान और त्याग का लाभ भी परोक्ष नहीं है, प्रत्यक्ष है, पर वह कठिनाई से समझ में आता है।
कल की ही घटना है। शिविर की एक बहिन ने आकर कहा- 'मुझे लगभग
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