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अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद
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लिए अभिशाप बनीं-संघर्ष और संहार का कारण बनीं। राष्ट्र और क्या है ? व्यक्ति के स्वार्थों का विस्तार-क्षेत्र है। परिवार में स्वार्थों का विस्तार होने लगा और वह होते-होते राष्ट्र तक होता चला गया। यह स्वार्थ या भोग के विस्तार की दिशा है। इसी दिशा में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना भी विशेष मूल्यवान् नहीं है। आध्यात्मिकता इसकी विपरीत दिशा है। उसका स्वरूप है-स्वार्थ-त्याग या भोग-त्याग। अपने हित के लिए, अपनी शान्ति के लिए स्वार्थ और भोग का संयम करने से नैतिकता का विकास अपने आप होता है।
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