Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 91
________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र मर्यादा महोत्सव के समय हमें चेतना की समस्याओं का बहुत सामना करना पड़ता है । तेरापंथ एक के अनुशासन में चलने वाला सं है। उसके सदस्य चेतनावान्, मनीषी, तर्कशील और भावनाप्रधान हैं। उनकी अपनी समस्याएँ हैं और आचार्य को उन समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। आचार्य को इसका गहरा अनुभव है। जब कभी मैं आचार्यश्री की सन्निधि में बैठता हूँ, यह चर्चा चल पड़ती है कि चैतन्य में सामंजस्य बिठाना, तनाव को दूर करना, सबसे कठिन काम है I I साधु-साध्वी बन गए, पर अभी वीतराग नहीं बने हैं। साधना कर रहे हैं। उनका जीवन सामुदायिक है, सामाजिक है। इसका अर्थ है कि उन्हें साथ में जीना है । सेवा लेना है, सेवा देना है। सारे कार्य सापक्ष हैं, परस्पर में जुड़े हुए हैं। इस स्थिति में सारे सम्बन्ध मृदु रहें, तनावपूर्ण न बनें, यह अपेक्षित है । सम्बन्धों को तोड़ा नहीं जा सकता, नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि सारा जीवन ही सापेक्ष जीवन है । कोई अकेला रह नहीं सकता, साथ ही रहना होता है । यह सापेक्षता है। जहाँ सापेक्षता है वहाँ सम्बन्ध है । प्रश्न है सम्बन्ध हो पर तनाव न हो । तनाव बीमारियाँ पैदा करता है। स्त्रियों में तनाव जनित बीमारियाँ अधिक होती हैं। उनमें घुटन होती है। जब वह घुटन बढ़ती है तब भूत दिखाई देने लग जाता है। मिरगी के दौरे प्रारम्भ हो जाते हैं । सम्बन्धों में तनाव न हो तो बीमारी नहीं हो सकती । स्त्रियाँ अधिक संवेदन करती हैं, इसलिए सम्बन्धजनित तनावों से उनमें अधिक बीमारियाँ होती हैं। पुरुष कम संवेदन करता है। वह कम बीमार होता है। मर्यादा महोत्सव के अवसर पर सैकड़ों साधु-साध्वी एकत्रित होते हैं । आचार्य उनकी रिपोर्ट लेते हैं। एक होती है लिखित रिपोर्ट और एक होती है मौखिक रिपोर्ट। इस मौखिक रिपोर्ट को हमारी भाषा में 'पृच्छा' कहा जाता है । एक-एक 'ग्रुप' को आचार्य के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है। आचार्य उनसे पहला प्रश्न पूछते हैं- 'कहो, आपस में चित्त - समाधि कैसी रही ? इतने वर्षों के बाद (एक, दो, तीन या पाँच वर्ष ) आए हो, आपस में मनमुटाव तो नहीं हुआ ? चित्त-समाधि बनी रही ?' इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य, स्वाध्याय, प्रचार-प्रसार, क्षेत्र आदि के विषय में पूछा जाता है। पर पहला प्रश्न होता है चित्त के स्वास्थ्य का, पारस्परिक व्यवहार की मृदुता और सरलता का । यदि चित्त-समाधि नहीं रही है तो इसका अर्थ है कि तनाव बन रहा है । सम्बन्धों में समता और कोमलता नहीं रही है । इस समस्या को समाहित करना, उन-उन व्यक्तियों को पुनः सही स्थान पर . बिठाना, जहाँ उनकी चित्त - समाधि बनी रहे, यह कठिनतम कार्य है । जब साधुओं के ग्रुप की पृच्छा होती है तब मैं और आचार्यश्री के अतिरिक्त और कोई नहीं रहता और जब साध्वियों के ग्रुप की पृच्छा होती है तब हम दोनों और साध्वी ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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