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समाज-व्यवस्था के सूत्र
बदले, व्यवस्था व परिस्थिति बदले और युवक का मानस बदले। यह परिवर्तन केवल उपदेश या समझाने-बुझाने से हो सकेगा, यह भी सम्भव नहीं है । इसे प्रयोगात्मक भूमिका अपनाकर ही सम्भव किया जा सकता है। जीवन शैली को बदलने का एक प्रयोग हमने निर्धारित किया है। उसका नाम है जीवन - विज्ञान | उसके द्वारा विद्यार्थी या युवक की जीवन-शैली को बदला जा सकता है । यह बदलाव आरोपित नहीं होगा। यह सर्वथा आन्तरिक है। अभी तक बच्चा अपनी छाया की चोटी पकड़ने की असफल चेष्टा कर रहा है। कोई समझदार आए और स्वयं की चोटी पर हाथ थमा दे तो छाया की चोटी अपने आप पकड़ में आ जाए। भौतिकवादी या पदार्थवादी दृष्टिकोण का निर्माण कर अनुशासन व चरित्र का विकास नहीं किया जा सकता । अध्यात्मवादी या आत्म-निरीक्षण की दृष्टि का निर्माण करने पर ही उसकी सम्भावना की जा सकती है।
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२. दृष्टिकोण का निर्माण
दृष्टिकोण का प्रश्न महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । मैं इसकी चर्चा अध्यात्म के मंच से 1. कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ प्रत्येक व्यक्ति में आध्यात्मिक चेतना का जागरण हो । जिसमें भीतर की चेतना नहीं जागी, जिसने अपने आपको देखने का प्रयत्न नहीं किया, वह अपने दृष्टिकोण को भी नहीं समझ पाता, वह दूसरे को समझ लेता है, यह मानना बड़ी भ्रान्ति है। जो अपने आपको जानता है, पहचानता है, समझता है, वह दूसरों को भी जान सकेगा, पहचान सकेगा, समझ सकेगा । अन्यथा ऐसा सम्भव नहीं है । यह न केवल अध्यात्म की दृष्टि से, किन्तु तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भी ध्रुव सत्य है ।
दृष्टिकोण उसी का सहा हो सकता है, जो अपने आपको जानता है। इसे अध्यात्म की भाषा में 'भेद - विज्ञान' कहा जाता है। यही विवेक है। विवेक का अर्थ है - पृथक्करण करना । चेतन और अचेतन दोनों का संयोग है जीवन । ये दोनों इतने जुड़े हुए हैं कि जव तक इनका भेद-विज्ञान नहीं होगा, तब तक आदमी सत्य को नहीं पा सकता।
भेद - विज्ञान के सम्बन्ध में दो प्रश्न उपस्थित होते हैं
१. क्या हम पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से देखते हैं या मूर्च्छा की दृष्टि से ? २. क्या हम साधना को साधना की दृष्टि से देखते हैं या साध्य की दृष्टि
से ?
यदि हम पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से नहीं देखते हैं और हम गहरी मूर्च्छा से ग्रस्त हैं तो हमारा दृष्टिकोण सही नहीं होगा। उस व्यक्ति का दृष्टिकोण सही
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