Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 96
________________ समाज निर्माण के दो घटक ૧ होता है जो साधना को मात्र साधन मानता है, साध्य नहीं । उस व्यक्ति का दृष्टिकोण सही होता है जो पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से या उपयोगिता की दृष्टि से देखता है किन्तु अपने अस्तित्व की दृष्टि से नहीं देखता । 1 जब तक शरीर है, तब तक अनेक साधन अपेक्षित होते हैं। कपड़ा, मकान, रोटी - ये जब साधन मात्र रहते हैं, वहाँ अध्यात्म या धर्म खण्डित नहीं होता और जहाँ ये साधन बन जाते हैं, वहाँ धर्म खण्डित हो जाता है । दृष्टिकोण के परिवर्तन के साथ ही यह स्पष्ट आभासित हो जाता है कि साधन साधन होता है, साध्य नहीं । जब साधन साध्य बन जाता है तब समस्या पैदा होती है। धन जीवन निर्वाह का साधन है । किन्तु जब यह साध्य बन जाता है तब आदमी अकरणीय कार्य करने में भी नहीं हिचकता। आज पदार्थ साधन नहीं रहा, वह साध्य बन गया है। यह भेद समाप्त हो गया है कि पदार्थ पदार्थ है, जड़ जड़ है और चेतन चेतन है । जड़ में संवेदन नहीं होता । चेतन में संवेदना है, अनुभव की शक्ति है । यदि आदमी को चेतना की शक्ति और संवेदना का सही ज्ञान हो तो वह दूसरे के प्रति क्रूर व्यवहार नहीं कर सकता। जैसे मैं सुख-दुःख का संवेदन करता हूँ, प्रिय-अप्रिय का अनुभव करता हूँ, अनुकूल परिस्थितियों में प्रसन्न और प्रतिकूल परिस्थितियों में चिन्तातुर होता हूँ, वैसे ही प्रत्येक प्राणी में संवेदन होता है। जिस व्यक्ति में संवेदनशीलता की यह सचाई जाग्रत हो जाती है तो आदमी इतना क्रूर नहीं हो सकता, जितना वह आज है । जब पदार्थ केन्द्रस्थ हो जाता है, तब मनुष्य गौण बन जाता है। इसीलिए आज मनुष्य का मूल्य कम है और पदार्थ का मूल्य अधिक है। पदार्थको मूल्य देने वाला आदमी है। मूल्य देने वाला स्वयं मूल्यहीन हो गया और मूल्यहीन पदार्थ स्वयं मूल्यवान् बन गया। जितनी पारिवारिक लड़ाइयाँ या संघर्ष होते हैं, उनका मूल यही है कि आदमी की दृष्टि में मूल्य है पैसे का । आदमी या सम्बन्ध का कोई मूल्य नहीं है । जहाँ पैसे का मूल्य बढ़ता है वहाँ आदमी का मूल्य घट जाता है इस स्थिति में लड़ाइयाँ या संघर्ष मिट नहीं सकते। यह तब मिट सकता है जब आदमी का मूल्य बढ़ता है और पैसे का मूल्य कम होता हैं, जब आदमी प्रधान होता है और पैसा गौण होता है । किन्तु आदमी ने अपना मूल्य बहुत खो दिया है । संस्कृत कवि ने एक मार्मिक श्लोक कहा है ' अग्निदाहे न मे दुःखं, न दुःखं लोहताडने । इदमेव महद् दुःखं, गुञ्जया सह तोलनम् ॥' एक बार स्वर्ण ने स्वर्णकार से कहा- तुम मुझे अग्नि में पिघलाते हो, हथौड़े से पीटते हो, इसका मुझे दुःख नहीं है। दुःख बस इस बात का है कि तुम मुझे घुघचियों से तोलते हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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