Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज व्यवस्था CD सूत्र आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र आचार्य महाप्रज्ञ सम्पादक मुनि दुलहराज जैन विश्व भारती Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © जैन विश्व भारती, लाडनूँ (राज.) प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूँ (राज.) ISBN: 81-7195-006-X नवीन संस्करण: जनवरी 2009 मूल्य : 30.00 मुद्रक : कला भारती, नवीन शाहदरा, दिल्ली- ३२ SAMAJ-VYAVASTHA KE SUTRA Acharya Mahaprajna Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति धर्म से समाज को शासित किया जा सकता है या नहीं इस प्रश्न का उत्तर हाँ या ना में नहीं दिया जा सकता। धर्म ऐच्छिक स्वीकृति है। उसका आधार है हृदय परिवर्तन। पूरे समाज का हृदय परिवर्तन एक साथ हो जाए - यह सोचना अति प्रसंग है। धर्म-शून्य कोरी दण्ड - शक्तिशाली शासन प्रणाली समाज को शासित कर सके - यह सोचना भी भ्रान्ति से शून्य नहीं है। समाज अपनी अवधारणा से शासित होता है । धर्म ने कुछ महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। वे समाज के शासन में आधारभूत बनती हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उन अवधारणाओं और विशेषतः भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त अवधारणाओं की संकेत- लिपि उपलब्ध है । प्रस्तुत पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने के श्रमसाध्य कार्य में तथा उसके सम्पादन में मुनिश्री दुलहराज ने उत्साहपूर्ण कार्य किया है। इसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ । २४ फरवरी, ८६ उदयपुर युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम o ३७ ४४ १. मनःस्थिति और समाजवाद २. वास्तविक समस्या-आर्थिक या मानसिक ३. अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा ४. समाज-व्यवस्था के दो सूत्र ५. प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन ६. पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा ७. अस्तित्व और व्यक्तित्व ८. विरोधाभासी जीवन प्रणाली ६. सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना १०. सामाजिक चेतना और धर्म ११. महावीर की समाज-व्यवस्था १२. अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद १३. भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध १४. समाज-निर्माण के दो घटक ५२ ५८ ६५ ६८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःस्थिति और समाजवाद दो दृष्टियाँ हैं-व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि । एक स्थूल है और दूसरी सूक्ष्म । स्थूल दृष्टि से देखते हैं तो लगता है कि जगत् व्यवस्था से चलता है। सूक्ष्म दृष्टि से देखते हैं तो लगता है कि जगत् चेतना के द्वारा चल रहा है। व्यवस्था स्वयं में नहीं है। वह चेतना के द्वारा संचालित है। समाजवाद, साम्यवाद, जनतन्त्र आदि-ये सारी शासन प्रणालियाँ मनुष्य के द्वारा संचालित हैं। सामाजिक व्यवस्थाएँ, चिकित्सा या प्रशिक्षण की व्यवस्थाएँ तथा ऐच्छिक व्यवस्थाएँ-ये सारी मनुष्य के द्वारा संचालित हैं। कम्प्यूटर के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें सुनी जा रही हैं पर कम्प्यूटर आखिर है क्या ? यन्त्र ही तो है। और वह भी एक मनुष्य के द्वारा संचालित है। कम्प्यूटर में जितना भरा जाता है उतना ही वह उगल देता है। इससे अधिक वह कुछ कर नहीं सकता। इसमें भी मूल बात है मनुष्य और उसकी चेतना। वह चेतना के द्वारा संचालित है। हमें समझना है कि चेतना किस प्रकार बदलती रहती है, किस प्रकार हमारी मनःस्थिति बदलती है। मनःस्थिति और परिस्थिति दो हैं। हम स्थूलदृष्टि से देखते हैं तो परिस्थिति को बहुत मूल्य देते हैं। सारी अच्छाई और बुराई का दायित्व परिस्थिति पर लाद देते हैं। जब हम स्थूलदृष्टि से विचार करते हैं तो यह सचाई सामने आती है कि बेचारी परिस्थिति बहुत कमजोर है। उसमें शक्तिसंचार करने की प्राण-ऊर्जा है मनःस्थिति। मनःस्थिति परिस्थिति को सहारा देती है, आगे बढ़ाती है। यदि मनःस्थिति ठीक है तो परिस्थिति ठीक हो जाती है। यदि मनःस्थिति ठीक नहीं है तो परिस्थिति गड़बड़ा जाती है। व्यवस्था करने वाला यदि स्वस्थ नहीं है तो परिस्थिति विषम बन जाती है। जनतन्त्र की प्रणाली में यदि भ्रष्टाचार और अनैतिकता है तो साम्यवादी प्रणाली में भी वह है। क्योंकि मनुष्य के मन में भ्रष्टाचार और अनैतिकता व्याप्त है तो वह व्य 'स्था भी उनसे मुक्त नहीं हो सकती। व्यवस्था में भी वे व्याप्त हो जाएंगे। अतः सूक्ष्मदृष्टि से विचार करेंगे तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि परिस्थिति को सुधारने की अपेक्षा पहले मनःस्थिति को सुधारना जरूरी है। दोनों में प्राथमिकता मिलनी चाहिए मनःस्थिति को। आज के Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र शिक्षाविद् और राजनैतिक विशारद परिस्थिति को सुधारने को प्राथमिकता दे रहे हैं। परिस्थिति को सुधारने के लिए आज दसों तन्त्र कार्यरत हैं, पर सुधार कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। कहीं न कहीं कमी अवश्य है। वह कमी यह है कि जव तक मनःस्थिति नहीं सुधरती तब तक परिस्थिति पूर्णरूपेण नहीं सुधर सकती। शासन के भय से कुछ सुधार होता है तो वह भी क्षणिक। स्थायी सुधार नहीं होता। एक आदमी होटल में ठहरा हुआ था। रात वीती। प्रातःकाल होटल के मालिक ने पूछा-रात कैसे वीती ? उसने कहा-'वहुत अच्छा रहा। यहाँ के मच्छर मुझे आकाश में उड़ा ले जाना चाहते थे, पर खाट के खटमल ने मुझे थामे रखा। अन्यथा न जाने अभी मैं कहाँ होता ?' मच्छर आकाश में ले जाना चाहते हैं और खटमल टाँग पकड़े हुए हैं। परिस्थिति भी कभी आकाशीय उड़ान भरती है और कभी टाँग पकड़ लेती है। परिस्थिति भी केकड़ानीति है। मछआरे केकड़ों को पकड़कर टोकरी में एकत्रित करते हैं, पर उन टोकरियों पर ढक्कन नहीं लगाते, क्योंकि वे जानते हैं कि मछलियाँ तो फदक-उछलकर पनः पानी में चली जा सकती हैं, पर केकड़ा यदि टोकरी से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो दूसरा केकड़ा उसकी टाँग खींचकर उसे नीचे गिरा देता है। अतः ढक्कन देने की जरूरत नहीं है। परिस्थिति भी ऐसी ही है। यदि कोई व्यक्ति परिस्थिति का अतिक्रमण कर आगे बढ़ना चाहता है तो दूसरा व्यक्ति टॉग खींचते हुए कहेगा-कहाँ जा रहे हो ? हमारी पंक्ति में बैठे रहो। जबतक हम परिस्थिति पर निर्भर रहेंगे और मनःस्थिति पर ध्यान केन्द्रित नहीं करेंगे तो दीर्घकाल में भी सुधार की सम्भाव्यता नहीं होगी। मनःस्थिति सुधरे विना परिस्थिति सुधर जाए, यह न भूतं न भविष्यति। एक प्रश्न फिर उभर आता है कि पहले परिस्थिति को सुधारना अपेक्षित है अथवा मनःस्थिति को सुधारना अपेक्षित है ? एक आदमी अपना सारा सामान गाड़ी में लादकर जा रहा था। गाँव वालों ने पूछा-'कहाँ जा रहे हो ?' उसने कहा-'गाँव में गन्दगी बहुत है, इसलिए जंगल में जा रहा हूँ। वहाँ गन्दगी नहीं है।' गाँव वाले बोले-'भले आदमी ! गन्दगी को करने वाला आदमी ही तो है। वह जहाँ जाएगा गन्दगी करेगा। जंगल को तो साफ रहने दो।' परिस्थिति को जटिल या विषम बनाने वाला आदमी ही तो है। जब तक हम आदमी की मनःस्थिति के परिष्कार की ओर ध्यान नहीं देंगे तब तक परिस्थिति के Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःस्थिति और समाजवाद परिष्कार का स्वप्न भी चरितार्थ नहीं होगा। ___मनःस्थिति के परिष्कार का मुख्य सूत्र है-अध्यात्म, धर्म। मैं उस धर्म की चर्चा नहीं करता जो मनःस्थिति को बिगाड़ता है, मलिन और दूषित बनाता है। जिसमें जातीयता है, साम्प्रदायिक अभिनिवेश है, दूसरे के प्रति घृणा का भाव है, वह धर्म नहीं सम्प्रदाय है। धर्म और अध्यात्म वह है जहाँ मनःस्थिति को परिष्कृत करने का प्रयत्न है अभ्यास और साधना है। चित्त की निर्मलता, पवित्रता और शद्धि से अधिक कोई धर्म या अध्यात्म नहीं है। धर्म और अध्यात्म का अर्थ है-चेतना का परिष्कार। मन को समझना, मन का परिष्कार करना, मन को निर्मल बनाना-धर्म, अध्यात्म और प्रेक्षाध्यान का यही उद्देश्य है। चित्त इतना निर्मल बन जाए कि उसमें दूसरे के प्रति क्रूरता के भाव न रहें। वह करुणा से परिपूर्ण हो जाए। उसमें अप्रामाणिकता, अनैतिकता और बुराई का भाव न रहे। उसमें रहे केवल मंगल भावना, मैत्री भावना और करुणा. भावना। यह वस्तुस्थिति है। इसे कोई भी वाद अस्वीकार नहीं कर सकता। जो मनुष्य को तो स्वीकार करता है, पर उसकी पवित्र मनःस्थिति को अस्वीकार करता है, वह सचाई के साथ और स्वयं के साथ आँख-मिचौनी करता है। धर्म में भी जो विवाद है, वह छिलकों के साथ है, रस के साथ कोई विवाद नहीं है। अध्यात्म में कोई विवाद हो ही नहीं सकता। आचार्य हरिभद्र ने एक मार्मिक बात लिखी है-अध्यात्म साधक को चाहिए कि इन वाद-कुश्तियों को छोड़कर केवल अध्यात्म का अनुचिन्तन करे। जहाँ अध्यात्म की चेतना होती है, वहाँ सारे वाद समाप्त हो जाते हैं। वाद चलता है साम्प्रदायिकता के आधार पर। अध्यात्म आते ही वाद समाप्त हो जाता है। केवल संवादिता रह जाती है। न वाद, न प्रतिवाद, केवल संवाद रह जाता है। कछ बचता नहीं। आज इस वैज्ञानिक युग में धर्म की बहुत बड़ी आवश्यकता है। धर्म शब्द सम्पद्राय के साथ जुड़कर कुछ धुंधला-सा बन गया है। वह उतना उजला नहीं रहा, जितना हमारी धारणा में था। अध्यात्म में आज गरिमा है। अध्यात्म है-अपने भीतर जाना और मन को समझने का प्रयत्न करना। प्रेक्षाध्यान के साधकों के सामने एक प्रश्न रखता हूँ कि क्या उन्होंने अपने मन को समझा या नहीं ? यदि मन को ठीक समझ लेते हैं तो ध्यान स्वयं होने लग जाता है। यदि मन को ठीक नहीं समझ लेते तो ध्यान से जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं होगी। मन को, चित्त को और चेतना को समझना, पहली शर्त है ध्यान की। . एक वर्ष में दो अयन और छह ऋतुएँ होती हैं। दो अयन हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन । हमारे मन के भी दो अयन और छह ऋतुएँ होती हैं। एक है अयन का Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र अनुभव और दूसरा है ऋतुओं का अनुभव । मनःस्थिति के आधार पर मन में जो उतार-चढ़ाव आता है, इतना विचित्र और सूक्ष्म है कि उसको जानना भी कठिन होता है । आप एक दिन में आने वाले मनोभावों को लिखना प्रारम्भ करें। आश्चर्य होगा कि एक दिन-रात में दस हजार से अधिक उतार-चढ़ाव आप लिख लेंगे। हम कैसे पकड़ें मन को और उतार-चढ़ाव को ? यह इतना सूक्ष्म विज्ञान है कि इसे जानना कठिन है । ४ जो व्यक्ति मन के इन उतार-चढ़ावों और भावों को नहीं पकड़ पाता वह मनःस्थिति का पूरा परिष्कार नहीं कर पाता । 1 सूर्य की दो अवस्थाएँ हैं। वैसे ही हमारे मन की भी दो अवस्थाएँ हैं । सूर्य की उत्तरायण अवस्था उग्रता, तेजस्विता और दीप्ति की अवस्था होती है और उसकी दक्षिणायन अवस्था मंदता, जड़ता और शिथिलता की अवस्था होती है । इसी प्रकार मन की भी दो अवस्थाएँ होती हैं। एक है तेजस्वी अवस्था और दूसरी है शिथिल या मन्द अवस्था । मन में जब तपस्या करने की वृत्ति जागती है तो यह हमारे मन की उत्तरायण अवस्था है । और जब आलस्य, प्रमाद और नींद की वृत्ति जागती है तो यह हमारे मन की दक्षिणायन अवस्था है। मन का दक्षिणायन है रात और उत्तरायण है दिन । दिन में मन जितना सुप्त रहता है उतना शायद रात में नहीं रहता । कर्मशास्त्र की दृष्टि से भी ऐसा माना गया है कि रात्रि में तामस परमाणुओं का योग मिलता है और तामसगुण प्रगट हो जाता है। दिन में राजसिक और सात्त्विक वृत्तियों के उभरने का अधिक अवसर प्राप्त होता है। यही तो काले और सफेद रंग में अन्तर होता है । काला रंग तमोगुण को बढ़ाता है और सफेद रंग सात्त्विक गुण को बढ़ाता है। सफेद रंग की प्रकृति है सात्त्विक और काले रंग की प्रकृति है तामसिक । न्यायाधीश और वकील काले रंग का कोट पहनते हैं। इसका कारण है कि दूसरों का प्रभाव उस रंग के भीतर नहीं जा सकता है। न्यायाधीश को कठोरतम दण्ड - आजीवन कारावास, फाँसी आदि देना होता है । काले रंग के कारण ही वह इतना कठोर दण्ड दे सकता है। सफेद रंग का कुर्ता पहनकर वह इतना कठोर दण्ड नहीं दे सकता। उसका हृदय काँप उठता है । मन का दक्षिणायन है रात का समय और उत्तरायण है दिन का समय । बड़ी सूक्ष्मता से हमें यह ज्ञात करना चाहिए कि मन का कौन-सा अयन चल रहा है और किस अयन में क्या-क्या हो सकता है ? दक्षिणायन में भिन्न प्रकार के परिणाम होते हैं। मन की अवस्थाएँ बदल जाती हैं। जब मनुष्य का मन दक्षिणायन में होता है तब चिन्तन एक प्रकार का होता है और जब मन उत्तरायण में होता है तो चिन्तन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःस्थिति और समाजवाद की धारा बिलकल भिन्न हो जाती है। यह एक मनोवैज्ञानिक बात है। आज इस विषय पर बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक गहरी खोज कर रहे हैं और यह अध्ययन कर रहे हैं कि समय के साथ हमारे भावों का क्या सम्बन्ध है ? सात वार हैं और पन्द्रह तिथियाँ हैं। मान्त्रिक आचार्यों ने प्रत्येक तिथि के अलग-अलग जाप निश्चित किए हैं। मन में प्रश्न होता था कि ऐसा क्यों किया गया ? क्या एक ही प्रकार का जाप सातों वारों और सभी तिथियों के लिए पर्याप्त नहीं होता ? गहरा चिन्तन करने पर ज्ञात हुआ कि सोमवार में या एकम तिथि में हमारे मन का भाव एक प्रकार का होता है और शेष वारों और तिथियों में भाव भिन्न प्रकार का होता है। प्रत्येक वार तिथि को वह बदलता रहता है। अमावस्या, पूर्णिमा चतुर्दशी को वह एकदम बदल जाता है। इन तिथियों में मन उन्माद और पागलपन से भर जाता है। इसलिए इन तिथियों में उपवास और धार्मिक जागरण का विधान किया गया है जिससे कि मनुष्य अपने मन की स्थिति को सुरक्षित रख सके, उस पर नियन्त्रण रख सके और बड़ी दुर्घटना से बच सके। . संस्कृत साहित्य का मर्मज्ञ राजा भोज उस समय वालक था जब पिता का देहान्त हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् उस राज्य का भार भोज के चाचा भुज पर आ गया। एक दिन भुज के मन में दक्षिणायन आ गया। रात का समय होगा। उसने सोचा-अब कुछ ही वर्षों बाद मुझे यह राज्य भोज को सौंपना पड़ेगा। सत्ता मेरे हाथ से निकल जाएगी फिर मैं कहीं का न रहूँगा। अच्छा है भोज का नामोनिशान ही मिटा दिया जाए। उसने वत्सराज को बुलाकर कहा-बालक भोज को जंगल में ले जाओ और वहाँ उसका वध कर दो। वत्सराज देखता रह गया। पर राजा की आज्ञा थी। उसने यह कल्पना ही नहीं की थी कि राजा भुज इतना अन्याय कर सकता है। पर मन के दक्षिणायन में अपटित हो सकता है, बड़े से वड़ा अन्याय हो सकता है। वत्सराज बालक भोज को रथ में बिठा जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल में जाकर महाराजा भुज का आदेश बालक भोज को कह सुनाया। बालक भोज आदेश सुनकर सन्न रह गया। उसने कहा-वत्सराज ! मारने से पूर्व एक काम करो। मैं एक पत्र लिखता हूँ। उसको तुम महाराज भुज को दे आओ। मैं इस स्थान पर बैठा रहूँगा, पलायन नहीं करूँगा। वत्सराज ने बात मान ली। बालक भोज ने एक श्लोक लिखा 'मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः, सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्यासी दशास्यांतकः। अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ! नैकेनापि समं गता वसुमतिः नूनं त्वया यास्यति ॥' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र - 'सत्युग का अलंकारभूत राजा मान्धाता मर गया। समुद्र पर सेतु बाँधने और रावण को मारने वाला राम भी आज कहाँ है ? युधिष्ठिर आदि बड़े-बड़े राजा भी स्वर्ग चले गए। किसी के साथ यह राज्य, यह भूमि नहीं गई। लगता है कि यह तुम्हारे साथ अवश्य जाएगी ।' ६ वत्सराज पत्र लेकर राजा भुज के पास गया। राजा भुज को पत्र दे, अग्रिम आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। दिन का समय था। मन का उत्तरायण चल रहा था। राजा भुज बोला- वत्सराज ! बालक भोज का वध अभी तक नहीं किया यह बहुत अच्छा हुआ। इस पत्र ने मेरी आँखें खोल दी हैं। चलो, मैं तुम्हारे साथ ही जंगल में चलता हूँ । महाराज भुज जंगल में आया और बालक भोज के सिर पर मुकुट रखकर कहा- तुम राज्य सँभालो, मैं संन्यास ग्रहण करता हूँ । आश्चर्य होता है कि ऐसा कैसे हुआ ? यह सारी करामात है मन के दक्षिणायन या उत्तरायण होने की । दक्षिणायन में आदमी ऐसी बात करेगा कि जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती और उत्तरायण में ऐसी बात करेगा कि हम समझ ही नहीं पाएँगे कि क्या यह वही आदमी है। आदमी तो वही होता है, पर उतार-चढ़ाव के कारण ऐसा सोच लिया जाता है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक समस्या आर्थिक या मानसिक ? मनुष्य समाज में जीता है। समाज में जीने का अर्थ है समस्या में जीना। समाजे एक समस्या भी है और एक समाधान भी हैं अनेक लोगों का होना एक समस्या है, पर समाधान भी है। प्रत्येक आदमी दो आयामों में जीता है-बाहर में जीता है। और भीतर में जीता है। भूख लगती है भीतर में और खाता है बाहर में। धन, अनाज, पैसा-सब बाहर से आता है, पर माँग होती है भीतर से। एक है माँग का जगत् जो भीतर में है, और दूसरा है पूर्ति का जगत् जो बाहर में है। माँग भीतर से उठती है और उसकी पूर्ति बाहर से होती है। ये दो आयाम हैं। इन दो आयामों में जीने के कारण समस्या और अधिक जटिल बन गई है। समस्या को समाहित करने के लिए अनेक प्रणालियाँ चालू हुईं। सामाजिक प्रणाली, राजनैतिक प्रणाली, धार्मिक प्रणाली आदि अनेक प्रणालियाँ जीवन के साथ जुड़ गईं। इनका उद्देश्य था कि समस्या का समाधान हो सके। पर आज ऐसा अनुभव हो रहा है कि सारी प्रणालियाँ समाधान देने में असफल रही हैं। कुछ अंश में धार्मिक प्रणाली को सफल माना जा सकता है, पर वह भी पूरा समाधान देने में असफल रही है। समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, वैसे ही उलझी हुई पड़ी है। प्रश्न होता है कि क्या समस्या को सुलझाने के लिए कोई उपाय है ? क्या कोई उपाय खोजा जा सकता है ? या जैसा है वैसा ही रहने दें ? दो प्रकार के विश्वास होते हैं। कुछ व्यक्ति यथास्थिति में विश्वास करते हैं और कुछ व्यक्ति परिवर्तन में विश्वास करते हैं। परिवर्तन का विश्वास बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति यथास्थिति में विश्वास करता है वह रूढ़ हो जाता है, आगे नहीं बढ़ सकता। जो व्यक्ति परिवर्तन की बात सोचता है, वह आज नहीं कल समाधान ढूँढ लेता है और आगे बढ़ जाता है। पूरे संसार का विकास इसी बदलने के विश्वास पर हुआ है। यदि बदलने की बात नहीं होती तो विकास कभी नहीं होता, जो जहाँ है वहीं रह जाता। आदम युग का आदमी ही रह जाता। वह आज के इस बौद्धिक और वैज्ञानिक युग में नहीं पहुँच पाता। परिवर्तन की प्रक्रिया चलती है और आदमी आगे से आगे प्रगति करता जाता है। परिवर्तन स्वभाव है, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ τ निसर्ग है, यह कोई थोपी हुई बात नहीं है । यह माना जाता है कि समाज का विकास अर्थ के आधार पर होता है । आर्थिक उन्नति और अवनति के आधार पर ही समाज बना-बिगड़ता है। इस आर्थिक युग में यह बात बहुत स्पष्ट रूप से मान ली गई है कि समाज की रीढ़ अर्थ | इसमें कोई सन्देह नहीं है। प्राचीन काल में चार पुरुषार्थ की चर्चा उपलब्ध होती है। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । कौटिल्य आदि महान् अर्थशास्त्रियों ने कहा- " अर्थ एव प्रधानम्" । इन चार पुरुषार्थों में अर्थ ही प्रधान है । काम, धर्म और मोक्ष ये गौण हैं । अर्थ समूचे संसार का संचालन करता है । इसी आर्थिक प्रधानता के कारण यह मान लिया गया है कि मूल समस्या है अर्थ की। समाज-व्यवस्था के सूत्र पर हमें सोचना है कि वास्तविक समस्या आर्थिक है या मानसिक ? बाहर से यह प्रतीत होता है कि मनुष्य समाज की वास्तविक समस्या है - आर्थिक । अब प्रत्येक व्यक्ति अर्थ की परिक्रमा कर रहा है। धर्म भी उसी अर्थ की परिक्रमा कर रहा है । यह आश्चर्य की बात है। धर्म की रीढ़ है त्याग । धर्म अर्थ के त्याग की बात सिखाता है, पर आज धर्म की उपासना इसलिए करते हैं कि अर्थार्जन अच्छा हो, कमाई अच्छी हो, सम्पत्ति बढ़े। इस प्रकार धर्म अर्थ की ही परिक्रमा कर रहा है इससे ऐसा लगता है कि केन्द्र में अर्थ है और पूरा समाज उसी की परिक्रमा कर रहा है। तो क्या आर्थिक समस्या ही वास्तविक समस्या है ? अनेक धुरन्धरों ने इसे ही वास्तविक माना है । अनेक अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और दार्शनिकों ने ऐसी जीवन प्रणालियाँ प्रस्तुत कीं, जिनके द्वारा समाज की आर्थिक समस्या का समाधान हो सके, गरीबी और आर्थिक विषमता मिट सके और समाज में समता स्थापित हो सके। इन प्रणालियों में समाजवादी और साम्यवादी प्रणालियाँ आर्थिक विषमता मिटाने के लिए कारगर प्रणालियाँ मानी गई हैं। आर्थिक समस्या के सुलझ जाने पर समाज चतुर्मुखी विकास कर सकता है। एक बात बहुत स्पष्ट है कि जब आदमी को खाने के लिए रोटी सुलभ नहीं होती, तब दूसरी बात पर ध्यान केन्द्रित करना उसके लिए कठिन हो जाता है। संस्कृत में बहुत सुन्दर कहा है- "बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते ।” भूखा आदमी व्याकरण को नहीं खा सकता और प्यासा आदमी काव्य रस का पान कर प्यास नहीं बुझा पाता । भूखे को रोटी और प्यासे को पानी चाहिए। भूख और प्यास- ये जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। जब तक इनकी पूर्ति नहीं होती तब तक आगे का विकास हो नहीं सकता। भूख और प्यास का मूलभूत प्रश्न अर्थ के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए हमें लगता है कि आर्थिक समस्या ही वास्तविक समस्या है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक समस्या-आर्थिक या मानसिक मार्क्स ने अर्थशास्त्र का पूरा दर्शन प्रस्तुत किया लेनिन और उसके साथियों ने इसका प्रयोग किया। मार्क्स के दर्शन को पढ़कर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने टिप्पणी करते हुए लिखा- “यह मात्र कल्पना है, स्वप्न है। यह स्वप्न क्या कभी पूरा हो सकेगा ?" तीस वर्ष पश्चात् उन्होंने रूस की यात्रा की। वहाँ का जनजीवन देखा। फिर उन्होंने लिखा- “यदि मैं रूस नहीं आता, वहाँ की समाजवादी व्यवस्था को स्वयं नहीं देखता तो मेरे जीवन की एक बात अधूरी रह जाती। रूस में कितना बड़ा परिवर्तन हुआ है आर्थिक क्षेत्र में। इस आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिए एक बड़ा उपक्रम हुआ है। मैंने साक्षात् उसे देखा है।" यह थी रवीन्द्रनाथ की टिप्पणी। प्रश्न होता है, इतना होने पर भी क्या समस्या सुलझ गई ? समस्या सुलझी नहीं, यथावस्थित है। नियन्त्रण और अंकुश के कारण उस पर एक आवरण आ गया है। यदि आज यह हट जाए, नियन्त्रण हट जाए तो आदमी वैसा का वैसा है। उसमें स्वार्थ, वैयक्तिकता की भावना, लोभ, आकांक्षा-सब कुछ वही है। कुछ भी परिवर्तन नहीं है। जब तक सत्ता का अंकुश है तब तक लगता है कि कुछ समाधान हो गया। पर जिस दिन सत्ता का अंकुश हट जाएगा तब तीव्र प्रतिक्रिया सामने आएगी। आज भी वहाँ अनेक प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं। वहाँ का आदमी मानने लगा है कि जहाँ व्यक्तिगत स्वामित्व है, वहाँ आर्थिक विकास अधिक होता है। समाजवादी देशों में व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होता, इसलिए आर्थिक विकास कम होता है। यह जनमत वनता जा रहा है। वहाँ के कुछेक शीर्षस्थ व्यक्ति एक सीमा तक व्यक्तिगत स्वामित्व को स्वीकृति दे रहे हैं। साम्यवादी जीवन प्रणाली में आर्थिक हेराफेरी की घटनाएँ सामने आती हैं, तब लगता है कि आदमी की मनोवृत्ति बदली नहीं है। एक व्यक्ति ने कहा, कितना विषम जमाना आया है कि बस में मैं यात्रा कर रहा था। मैंने देखा कि मेरी अटैची गायब है। लोगों की कितनी नीच मनोवृत्ति है। मैंने पूछा-क्या अटैची नई थी? उसमें कितने रुपये थे ? उसने कहा-मैं तो उसे रेल से उठा लाया था। भीतर क्या था, मुझे ज्ञात नहीं है। आदमी की मनोवृत्ति है कि जब दूसरा कोई उठा लेता है तो वह सोचता है, कैसा विषम जमाना है और जब स्वयं दूसरे की चीज उठा लाता है तो हृदय में कम्पन नहीं होता। वह सोचता है, पड़ी थी, उठा ली। आदमी का सीधा ध्यान दूसरों की मनोवृत्ति पर जाता है, अपनी मनोवृत्ति पर ध्यान ही नहीं जाता। अर्थ की समस्या अवास्तविक है, ऐसा तो मैं कहना नहीं चाहता क्योंकि यह जीवन के साथ जुड़ी हुई यथार्थ समस्या है। पर प्रश्न होता है, क्या यही मूलभूत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० समाज-व्यवस्था के सूत्र समस्या है ? मैं कहूँगा यह मूलभूत समस्या नहीं है। मूलभूत समस्या है-मानसिक। मानसिक समस्या ही आर्थिक समस्या को जन्म देती है। यही जनक समस्या है। गरीबी, विषमता, बेईमानी और छीना-झपटी क्यों हैं ? क्या ये सब अर्थ के अभाव में होते हैं ? नहीं, ऐसा नहीं लगता। वास्तविकता यह है कि धनी व्यक्ति जितना बेईमान है उतना गरीब व्यक्ति नहीं है। यह सचाई है, क्योंकि गरीब आदमी की आकांक्षाएँ, कल्पना और दौड़ बहुत सीमित होते हैं। बुद्धिमान् और धनवान आदमी जितनी अप्रामाणिकता और बेईमानी कर सकता है, उतनी कम पढ़ा-लिखा और गरीव आदमी नहीं कर सकता। तो यह अर्थ है कि जटिलता शायद गरीबी के साथ जुड़ी हुई नहीं है। यह जुड़ी हुई है मानसिकता के साथ । तो मौलिक समस्या है मानसिक।। दो समीकरण हैं। एक है-आवश्यकता और पदार्थ तथा दूसरा है आकांक्षा और पदार्थ। यदि हमारी इस दुनिया में आवश्यकता और पदार्थ के साध सम्बन्ध होता तो न इतनी गरीबी होती न इतनी अधिक समस्याएँ होतीं, न क्रान्तियाँ होती और न जटिलताएँ होतीं। आवश्यकता पूरी होती और आदमी सन्तोष की साँस ले लेता। पर ऐसा नहीं है। पदार्थ का सम्बन्ध आवश्यकता से जुड़ा हुआ नहीं है। उसका सम्बन्ध आकांक्षा से जुड़ा हुआ है। जब पदार्थ का सम्बन्ध आकांक्षा से जुड़ गया तो गरीबी भी होगी, घोटाला और संग्रह भी होगा, भावों में तेजी भी आएगी, अपव्यय भी बढ़ेगा, धन को तानने का प्रयत्न भी होगा और व्यक्तिगत स्वामित्व भी आएगा। आकांक्षा या इच्छा मौलिक मनोवृत्ति है। लोभ केन्द्रीय मनोवृत्ति है। मनुष्य लोभ के द्वारा संचालित है। जैन दर्शन में इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है। कपाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें सबसे अधिक टिकता है लोभ। यह मूलभूत कपाय है। लोभ होता है तभी आदमी क्रोध करता है। लोभ होता है तभी आदमी अहंकार करता है और लोभ होता है तभी आदमी माया करता है। क्रोध, मान और माया समाप्त हो जाते हैं। फिर भी लोभ बचा रह जाता है। यह बीमारी की जड़ है। इसी के आसपास अन्यान्य बीमारियाँ पलती हैं। . इच्छा एक मानसिक बीमारी है, मनोवृत्ति है। इसी के कारण व्यक्ति पदार्थ का आकांक्षी बन जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है। राजा ने यह घोषणा करवाई कि प्रातःकाल मेरे सामने जो पहले आएगा, उसे सवा मासा सोना दूँगा। एक दिन कपिल नामक ब्राह्मण सोने के लोभ से वहाँ आ पहुँचा। वह अत्यन्त गरीब था। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक समस्या-आर्थिक या मानसिक ११ उसकी पत्नी गर्भवती थी। पास में कुछ था नहीं, व्यवस्था करनी थी। बड़ी आकांक्षा लेकर आया। उसे समय का पता ही नहीं चला। जैसे ध्यान में कालबोध नहीं होता, वैसे ही धन की आकांक्षा में भी कालबोध समाप्त हो जाता है। कपिल को आना चाहिए था चार बजे, पर आकांक्षा की तीव्रता के कारण काल का ज्ञान नहीं रहा और वह बारह बजे ही वहाँ आ पहुँचा। वहाँ के आरक्षकों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। प्रातः राजा के सम्मुख उसे उपस्थित किया गया। राजा ने उसका पूरा वृत्तान्त सुना। राजा का मन करुणा से भर गया। उसने कहा-"मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी सचाई पर। जो चाहो सो माँगो।" कपिल बोला, "मैं एकान्त में सोचकर बताऊँगा।" वह एकान्त में चला गया। उसने सोचा, जब राजा सन्तुष्ट है तो सवा मासा सोना ही क्यों माँगा जाए। आखिर इतने से सोने से होगा क्या ? उसने सोचा, एक तोला सोना माँग लूँ। नहीं, नहीं, दस तोला माँग लूँ। नहीं, यह भी थोड़ा होगा। राजा जब देना ही चाहता है तो दस हजार माँग लूँ, नहीं, नहीं, एक लाख, एक करोड़, रुपये माँग लूँ। ये भी कम होंगे। आकांक्षा भीतर ही भीतर बढ़ती जा रही है। उसने सोचा पाँच-दस करोड़ माँग लूँ। नहीं, नहीं पाँच-दस करोड़ की पूँजी वाले अन्यान्य मिल जाएँगे। अच्छा है कि मैं राजा का राज्य माँग लूँ। फिर मेरे से कोई बड़ा नहीं रहेगा। मन में यह बात पक्की ऊंच गई। उसने सोचा, राजा को कह दूँ कि सत्तान्तरण, स्थानान्तरण हो जाए। मैं राज-सिंहासन पर बैठ जाऊँ और आप मेरे सामने नीचे बैठ जाएँ। यह विकल्प आया। पर आदमी में केवल वृत्ति ही नहीं होती, विवेक भी होता है। वृत्ति के साथ पवित्रता भी होती है। यदि आदमी में कोरी वृत्ति ही होती तो वह पश से भी बदतर बन जाता। मनुष्य में ही नहीं सभी प्राणियों में दो धाराएँ चलती हैं। एक है-वृत्तियों की धारा और दूसरी है पवित्रता की धारा। दोनों पक्ष-शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष-उसमें होते हैं। जीवन में कोरा कृष्ण पक्ष-अँधेरा ही अँधेरा नहीं होता, शुक्ल पक्ष-प्रकाश भी होता है। आवरण और अनावरण-दोनों साथ-साथ चलते हैं। मलिनता और निर्मलता दोनों चलती हैं। कपिल कृष्ण पक्ष या आवरण से प्रभावित होकर राजा के राज्य को हड़प जाना चाहता था। शुक्ल पक्ष या अनावरण का क्षण आया और उसने सांचा-कपिल ! कहाँ से कहाँ छलाँग भर दी। आए थे सवा मासा स्वर्ण लेने के लिए, पर तुमने राजा के राज्य को ही माँगने का निश्चय कर डाला। कपिल मुड़ा। जीवन में प्रकाश जागा, अनुभव जागा। जव अनुभव जाग जाता है तब जीवन बदल जाता है। उसने अपने अनुभव की वाणी में गुनगुनाया Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवहुई। दो मास कयं कज्जं कोडिए वि न निट्ठियं ॥ जहाँ लाभ होता है वहाँ लोभ बढ़ता है। आग में ईंधन डालते जाओ, वह कभी नहीं बुझेगी। आग तब बुझती है जब उसे ईंधन नहीं मिलता। कपिल राजा के पास आया। राजा ने कहा-बोलो, मेरे से क्या चाहते हो ? कपिल ने कहा-“राजन् ! कुछ भी नहीं चाहता। कुछ क्षणों पूर्व मन में असीम माँग थी, पर अब वह मिट चुकी है, शान्त हो चुकी है। अब मुझे सवा मासा सोना भी नहीं चाहिए। मैं घर भी नहीं जा रहा हूँ। मुझे अब उस जीवन में जाना है जहाँ चाह नहीं है।" ___व्यक्ति की आकांक्षा अनन्त होती है। वह सब कुछ चाहता है। पर जब उसमें कुछ भी न पाने की बात आ जाती है तो उसकी चाह समाप्त हो जाती है। बड़े-बड़े अनेक साधकों ने प्रभु की प्रार्थना करते हुए कहा-प्रभो ! मुझे ऐसी शक्ति दें कि मेरे मन में चाहने की चाह मिट जाए। जब तक चाहने की चाह बनी रहती है तब तक समस्या नहीं सुलझती। "कुछ न चाहूँ"-यह चाह पैदा हो जाए। अन्ततः चाह को चाह से ही मिटाना होगा। विकल्प विकल्प से ही समाप्त होता है। एक क्षण में ही आदमी निर्विकल्प नहीं बन जाता। इसके लिए अनेक भूमिकाओं को पार करना होता है। पहले विकल्प फिर उस विकल्प को काटना जरूरी है। प्रश्न है कि किससे काटा जाए। शस्त्र से शस्त्र कटता है। आचारांग का वाक्य है- “अत्थि सत्थं परेण परं" एक तेज शस्त्र दूसरे शस्त्र को काट देता है। जहर से जहर का शमन होता है। इस प्रकार विकल्प से विकल्प कटता है। अच्छा विकल्प आया तो बुरा विकल्प समाप्त हो गया। जव सत्य का साक्षात्कार होता है, तब आदमी बदल जाता है। जब तक सत्य परोक्ष रहता है, आदमी नहीं वदलता। बदलने में दो-चार घण्टे नहीं लगते, वर्ष-दो वर्प नहीं लगते। बदलने का एक क्षण आता है और आदमी बदल जाता है। लड़ाई भी एक क्षण में होती है तो मैत्री भी एक क्षण में होती है। ऐसा नहीं होता कि लड़ाई करने में वर्ष लगे या मैत्री करने में वर्ष लगे। ये सब तत्काल होने वाली घटनाएँ हैं। मूलभूत समस्या है-मानसिक । आर्थिक समस्या का समाधान नहीं हो रहा है। क्यों ? अर्थशास्त्री नए-नए फार्मूल और सिद्धान्त प्रस्तुत कर रहे हैं, पर समस्या नहीं सुलझ रही है। यहाँ हमें मुड़कर सोचना होगा कि जब तक अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्तों के साथ-साथ अध्यात्म के सिद्धान्तों का समीकरण नहीं बिठाया जाएगा, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक समस्या - आर्थिक या मानसिक मानसिक समस्याओं को नहीं देखा जाएगा तब तक आर्थिक समस्या का समाधान भी नहीं होगा । प्रेक्षाध्यान का प्रयोग आर्थिक समस्या के समाधान का भी प्रयोग है और इस अर्थ में है कि इच्छा और लोभ हमारी मौलिक मनोवृत्तियाँ हैं । हम इन वृत्तियों की प्रेक्षा करना सीखें। इन्हें देखें। जब तक इन वृत्तियों को नहीं देखा जाएगा तब तक इनकी वास्तविकता समझ में नहीं आएगी । वृत्तियों को देखना और समझना आवश्यक है । सिद्धान्तों को पढ़कर कभी सचाई को नहीं पकड़ा जा सकता । प्रयोग करना होगा । गरीबी बाहर दीखती है। फटे कपड़े देखकर जान लेते हैं कि यह आदमी गरीब है । पर उसी गरीब के मन में कितनी इच्छा है क्या आप उसे देख सकेंगे ? क्या गरीब के मन में इच्छा नहीं होती ? इच्छा तो है ही । प्रत्येक व्यक्ति के मन में इच्छा होती है । पर यह साक्षात् नहीं है। गरीब का पता चलता है उसके कपड़े से, रहन-सहन और जीवन की पद्धति से । अमीर का भी पता चलता है उसके कपड़े से, रहन-सहन से, मकान से और जीवन की पद्धति से । पर गरीब और अमीर के मन में जो इच्छा काम कर रही है, उसका पता नहीं चलता । १३ जब तक इच्छा की प्रेक्षा नहीं की जाती, उस वृत्ति की प्रेक्षा नहीं की जाती, तब तक आर्थिक समस्या का समाधान होना असम्भव है। पता नहीं, मनुष्य की क्या मनोवृत्ति है कि वह एक पक्षीय चिन्तन करता है। आज के अर्थशास्त्री, समाजवादी और राजनयिकों ने कहा- आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन जब तक नहीं होगा, तब तक गरीबी का समाधान नहीं होगा। धार्मिक नेताओं ने बलपूर्वक कहा कि जब तक धर्म का आचरण नहीं होगा, तब तक समाधान नहीं मिलेगा, आर्थिक समस्या भी नहीं सुलझेगी । दोनों भौतिकवादी और अध्यात्मवादी - एक-एक पक्ष पर ही ध्यान दे रहे हैं । अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने सारा भार व्यवस्था के परिवर्तन पर डाल दिया और धार्मिकों ने सारा भार वृत्तियों के परिवर्तन पर डाल दिया। दोनों ऐकान्तिक बातें हैं । अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो वृत्तियों का परिवर्तन भी जरूरी है और व्यवस्था का परिवर्तन भी जरूरी है। दोनों आवश्यक हैं। पर आज आर्थिक पक्ष प्रधान हो गया और केवल बाहर ही देखा जा रहा है। हमें प्रेक्षा के माध्यम से लोभ वृत्ति, जो गहरे अन्तराल में बैठी है, तक पहुँचना है। जब हम उस वृत्ति को देखने लगेंगे तव वृत्ति का परिष्कार स्वयं घटित होने लगेगा । ध्यान आकाशीय उड़ान नहीं है । वह एक यथार्थ है, सचाई है । वहसमस्याओं का समाधान है। यदि सामाजिक समस्याओं से कटकर हम ध्यान की Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र बात करें तो भी आकाशीय उड़ान बन जाएगा। जीवन की परम समस्याएँ, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैं-इन सारी समस्याओं के सन्दर्भ में प्रेक्षा को समझने का प्रयत्न करें और यह जानें कि प्रेक्षा का इनसे क्या सम्बन्ध है ! इधर ध्यान चलता है और उधर समस्याएँ एक-एक कर आ रही हैं। दोनों में क्या सम्बन्ध है ? क्या सामंजस्य है ? ध्यान की प्रक्रिया से, इस आन्तरिक प्रेक्षा से इन बाहरी समस्याओं का समाधान मिल सकता है। इस ओर गहरा चिन्तन, मनन करना होगा। तब हम ध्यान की सचाई को भी समझ पाएँगे और समस्याओं की यथार्थता को भी समझ पाएँगे। हम यह भी जानेंगे कि किस प्रकार आन्तरिक परिवर्तनों के द्वारा वाहरी जगत् में परिवर्तन सम्भव हो सकता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा टालस्टाय ने एक कहानी लिखी है। उसका शीर्पक है-तीन प्रश्न । पहला प्रश्न है-सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या ? दूसरा प्रश्न है-परामर्श लेने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन है ? तीसरा प्रश्न है-कार्य प्रारम्भ करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण समय कौन-सा है ? ये तीन प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के सामने हैं। पहलं हम प्रक्षा ध्यान के सन्दर्भ में इन तीनों प्रश्नों का उत्तर समझें। पहला प्रश्न है सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है ? इसका उत्तर होगा-अपने आपको देखना। यह दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। जो दूसरों को देखता है, वह बहुत बड़ा कार्य नहीं कर सकता। बड़ा काम वह होता है जो सव नहीं कर पाते, कोई एक व्यक्ति करता है। आज का प्रवाह है, दूसरों को देखना। इस स्थिति में स्वयं को देखना बड़ा काम है, असाधारण काम है। दूसरे प्रश्न का उत्तर होगा कि परामर्श उस व्यक्ति का लिया जाए जो आर्थिक दोड़ से परे है। जो आर्थिक दौड़ में लगा हुआ है, उसका परामर्श वहुत काम का नहीं होता, उलझाने वाला होता है। जो आर्थिक दौड़ से परे है, उसका परामर्श समाधान देने वाला होगा और समस्या का पार दिखाने वाला होगा। तीसरा प्रश्न है कि समय कौन-सा महत्त्वपूर्ण है ? ध्यान का अभ्यास करने वाले के लिए यह शिविर काल ही सबसे महत्त्वपूर्ण समय है। ऐसा समय कभी-कभार मिलता है। आर्थिक दौड़ और चिन्ता से हटकर जो केवल अपने आपको देखने में लगता है, ऐसा समय सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। प्रेक्षा ध्यान के सन्दर्भ में तीन प्रश्नों के तीन उत्तर हैं। टालस्टाय ने भी अपने ढंग से उत्तर दिए हैं। हम उन उत्तरों से प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन है उन प्रश्नों से। प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उत्तर हमें देना है। प्रश्न कभी कठिन नहीं होते, उत्तर कठिन होते हैं। आज की इस आर्थिक व्यवस्था ने अणुयुग को जन्म दिया है। आज हमें कोई भी काम करना है, सोचना है, चिन्तन करना है, तो वह अणुयुग के सन्दर्भ में ही करना होगा। अणुयुग के सन्दर्भ के विना और किसी बात पर हम सोच Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र नहीं सकते। इस अर्थ-व्यवस्था ने मनुष्य में किस प्रकार के भाव पैदा किए हैं, मनुष्य कहाँ से कहाँ पहुँचा है, उसका दृष्टिकोण और चिन्तन क्या बना है, यह सब हमें सोचना है। आज यदि हम यथार्थ में सोचते हैं तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आज के मनुष्य का दृष्टिकोण एकमात्र आर्थिक बन गया है। वह प्रत्येक बात आर्थिक लोभ-अलोभ की दृष्टि से सोचता है। इसके सिवाय चिन्तन का कोई कोण ही नहीं रहा, ऐसा लगता है। प्राचीन काल में कहा जाता था कि प्रत्येक वनिया या व्यापारी हर बात आर्थिक दृष्टि से ही सोचता है। पर आज कौन व्यापारी नहीं है ? एक व्यापारी मर गया। उसे धर्मराज के सामने उपस्थित किया गया। धर्मराज ने पूछा-कहाँ जाना चाहते हो, नरक में या स्वर्ग में ? वह बोला-भगवन जहाँ दो पैसे की कमाई हो, वहीं भेज दें। मेरे लिए स्वर्ग-नरक का कोई फर्क नहीं है। आज प्रत्येक व्यक्ति व्यापारी है। उसका दिमाग व्यावसायिक है, फिर चाहे वह राजनीति के क्षेत्र में हो, सामाजिक क्षेत्र में हो या धार्मिक क्षेत्र में हो। आज संन्यासी को भी सम्पत्ति के आधार पर आँका जा रहा है। कहा जाता है-अमुक संन्यासी के पास इतने अरब रुपयों की सम्पत्ति है और अमुक के पास इतनी। कितनी विडम्बना ! ऐसी स्थिति में किसको व्यापारी कहें और किसको न कहें ? लगता है संसार का प्रत्येक वर्ग व्यापारी है, आर्थिक दृष्टिकोण से सोचने वाला है। आज की अर्थ-व्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। एक सूत्र है-जो शक्य है वह काम कर लेना चाहिए। अण्वम बनाना शक्य है तो वह भी बना लेना वाहिए। इस शक्यता के साथ करणीयता को जोड़कर आदमी ने इतनी तम्बी छलाँग भर ली कि वह अणु शस्त्रों तक पहुँच गया। यदि यह सीमा होती कि शक्यता तो है, पर सोचना यह है कि शक्यता का परिणाम क्या होगा, तो एक नियन्त्रण होता। पर वर्तमान अर्थशास्त्र का सिद्धान्त यह बन गया कि जो शक्य है वह करणीय है। इससे सीमा का अतिक्रमण हो गया। आदमी की दृष्टि ध्वंसात्मक बन गई। निर्माण के स्थान पर विनाश मुख्य बन गया। शक्यता के साथ संयम की सीमा होनी चाहिए। अध्यात्म में भी शक्य का करने की बात प्राप्त है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया-'किं सक्कणिज्जं न समायरामि'-क्या मैं शक्य कार्य को भी नहीं कर रहा हूँ ? शक्य कार्य अवश्य करणीय होता है, पर उसके साथ यह अंकुश हो कि वही शक्य कार्य करूँ जिससे दूसरे का कोई अनिष्ट न हो। यह बड़ा अंकुश है। शक्य तो बहुत हो सकता है। पास में कंकड़ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा १७ पड़े हैं। घडे पडे हैं। कंकड फेंका और घड़े को फोड़ डाला। यह शक्य है, पर करणीव नहीं है। सारे शक्य-कार्य करणीय नहीं होते। शक्य होना एक बात है और करणीय होना दूसरी बात है। शक्य होने पर भी वही काम करणीय है जिसका परिणाम अच्छा होता है, दूसरे का अनिष्ट नहीं होता। जहाँ शक्य और करणीय का विवेक नहीं होता वहाँ अनर्थ घटित होता है। - इसी विवेक के अभाव में मना ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दे दिया है जो उस ही निगलने को तैयार हो रही है। ऐसी संस्कृति को जन्म देना तो शक्य था पर करणीय नहीं था, क्योंकि आज निगले जाने का परिणाम उसे ही भुगतना पड़ रहा है। चार मित्र थे। तीन वुद्धिहीन वैज्ञानिक थे और एक बुद्धिमान् अवैज्ञानिक। चारों घूमने निकले। एक घने जंगल में गए और सघन वृक्ष के नीचे बैठ गए। इतने में ही एक की दृष्टि वहाँ पड़ी जहाँ शर की अस्थियों का पूरा ढाँचा पड़ा था। शेर को मरे कुछ समय बीत गया था। उसने कहा-देखो, आज विद्या की परीक्षा का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। शेर को जीवित कर सकते हैं। एक वैज्ञानिक मित्र बोला, मैं इसमें मांस का संचार कर सकता हूँ। दूसरा बोला, मैं इसमें रक्त को प्रवाहित कर सकता हूँ और तीसरा बोला, मैं इसमें प्राण भर सकता हूँ। तीनों ने सोचा, परीक्षण होगा। कुतूहल होगा, चमत्कार होगा। चौथा वोला-यह मत करो। ऐसा करना खतरे से खाली नहीं है। शेर जीवित होगा और हमें ही अपना शिकार बनाएगा। यह आत्मघाती प्रयत्न हैं। ऐसा मत करो। तीनों एक साथ वोले-तुम मुर्ख हो, अवैज्ञानिक हो। तुम नहीं जानते सदा निषेध ही निषेध करते रहते हो। सृजन करना महान् कार्य है। हम मरे हुए शेर को जिन्दा कर रहे हैं, कम काम नहीं है। वह बोला-मैं जानता हूँ कि निर्माण करना बहुत बड़ा काम है। पर मैं यह भी जानता हूँ कि वह निर्माण खतरनाक होता है जो विध्वंस को जन्म देता है। इस निर्माण की परिणति है-विध्वंस । निर्माण सदा अच्छा ही नहीं होता और विध्वंस सदा वुरा ही नहीं होता। विध्वंस भी अच्छा हो सकता है, और निर्माण भी बुरा हो सकता है। उसने बहुत समझाया, पर तीनों मित्र उसकी बेसमझी की मजाक करते रहे। तीनों उस शेर के कलेवर के पास पहुंचे। चौथा अवैज्ञानिक मित्र ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया। एक ने उसमें मांस का, दूसरे ने उसमें रक्त का संचार किया। तीसरे ने ज्योंही उसमें प्राण का संचार किया, शेर जीवित हो उठा और दहाड़ने लगा। तीनों अपनी सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त कर ही रहे थे कि शेर ने तीनों का काम समाप्त कर अपनी भूख शान्त की। पेड़ पर बैठे अवैज्ञानिक, किन्तु बुद्धिमान् मित्र, अपने तीनों साथियों की मूर्खता Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र से निष्पन्न स्थिति पर रो पड़ा और अकेला ही घर आ गया। आदमी आने-अनजाने ऐसा निर्माण कर देता है, ऐसी संस्कृति को जन्म दे देता है जो सर्वभक्षी बन जाती है। आज वह ऐसी अर्ध-व्यवस्था को जन्म दे रहा है जो स्वयं उसको ही ग्रसने को तैयार है। यदि हम एक प्रश्न पर विचार करें कि अणु-शस्त्रों का निर्माण आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए ही तो हुआ। प्राचीन काल में भूमिगत विस्तार की वात सोची जाती थी। आज आर्थिक साम्राज्य की वात प्रमुख वन गई। मान लें छोटा राष्ट्र है, थोड़ी भूमि और सीमित जनसंख्या पर आर्थिक साम्राज्य यदि बढ़ जाता है तो वह सारी दुनिया पर अपना सिक्का जमा सकता है। छोटे-छोटे राष्ट्र आज आर्थिक साम्राज्य के कारण बहुत शक्तिशाली बन गए। आर्थिक व्यवस्था के साथ सारा दृष्टिकोण ही बदल गया। पहले लड़ाइयाँ होती थीं भूमि के लिए और आज संघर्ष चल रहा है आर्थिक प्रभुत्व के विकास के लिए, आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने के लिए। आर्थिक व्यवस्था का दूसरा सूत्र है-आवश्यकता बढ़ाएँ, कार्य-क्षमता को चढ़ाएँ और उत्पादन को बढ़ाएँ। इस सूत्र ने आर्थिक साम्राज्य का विस्तार किया और साथ ही साथ मनुष्य के लिए संकट और खतरे भी पैदा कर दिए। आवश्यकता बढ़ाने का पहला अर्थ है-संघर्प। पदार्थ कम, आवश्यकता अधिक। खाने वाले अधिक, खाद्य वस्तुएं कम। एक ओर कहा जा रहा है परिवार नियोजन करो। विरोधाभास है। एक ओर आवश्यकता को बढ़ाओ और एक ओर आवश्यकता को घटाओ। उसका सीधा-सा अर्थ है-चेतना को घटाओ और पदार्थ को बढ़ाओ। चेतन घटे, पदार्थ बढ़े। सारा दृष्टिकोण ही पदार्थवादी हो गया। चेतनाशील और विवेकशील प्राणी है मनुष्य, उसको कम करना और पदार्थ या जड़ को बढ़ाना। यदि आवश्यकता बढ़ाने की बात नहीं होती तो शायद दृष्टिकोण ऐसा नहीं बनता। अव दूसरी बात है-कार्यक्षमता बढ़ाने की। मनुष्य की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात कम है और यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात अधिक है। यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़े कि कौन-सी मिल में कितना उत्पादन हो रहा है, कितनी मशीनें ज्यादा उत्पादन कर रही हैं। सारा ध्यान यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़ाने पर है। आदमी भला कितना उत्पादन कर सकता है। इसका परिणाम है कि मजदूर कम होते जा रहे हैं और यन्त्र उसका स्थान ग्रहण कर रहे हैं। ___दूसरा प्रहार है फिर मनुष्य पर, चैतन्य पर, कि जड़ की क्षमता को बढ़ाओ और मनुष्य की क्षमता को कम करो, मनुष्य को कम करो। अर्थ-व्यवस्था की इस अवधारणा ने सबसे अधिक प्रहार किया है-मनुष्य पर और चेतना पर। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा १६ जिस देश के कारखाने अधिक उत्पादन करते हैं, उस देश का आर्थिक साम्राज्य विस्तृत हो जाता है। जापान ने कारों का इतना उत्पादन किया कि संसार पर प्रभुत्व जमा लिया। और भी अनेक छोटे-छोटे राष्ट्रों ने पदार्थों का उत्पादन कर ऐसा जाल फैलाया कि वे सारे संसार पर छा गए। और उनका आर्थिक प्रभुत्व जम गया। कितना ही बड़ा राष्ट्र क्यों न हो, यदि उसमें पदार्थ उत्पादन की क्षमता नहीं है तो उसका आर्थिक साम्राज्य फैल नहीं सकता और आज की दौड़ में वह पिछड़ जाता है, अविकसित रह जाता है। वह विकासशील देशों की सूची में नहीं आता। आर्थिक व्यवस्था में इन दोनों सूत्रों के आधार पर हम समस्या पर विचार करें और यह देखें कि इन दोनों ने किस स्थिति का निर्माण किया है ? इसका उत्तर हमें प्रेक्षा-ध्यान के सन्दर्भ में पाना है, अपने आपको देखने के द्वारा ही इस सूत्र का हस्तगत करना है कि किस स्थिति का निर्माण हआ है ? जव यन्त्रों की, जड़ की क्षमता बढ़ती है, मूल्य बढ़ता है, चेतना की क्षमता कम होती है, मूल्य कम होता है तव शोषण को बल मिलता है। आज की आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक प्रणाली का शब्द है-शोषण और अध्यात्म की भाषा में उसका शब्द है 'क्रूरता'। दोनों शब्द एक ही हैं। शोषण नया शब्द है और आज की अर्थ-व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है, आज की राजनैतिक क्रान्ति के साथ जुड़ा हुआ है। 'क्रूरता' पुराना शब्द है । जैसे-जैसे क्रूरता बढ़ती है शोषण को बल मिलता है। जैसे-जैसे औद्योगिक विकास हुआ है तो साथ-साथ शोषण भी बढ़ा है। आठ घण्टा काम करने वाला मजदूर बेचारा आजीविका निर्वाह करने मात्र का पैसा पाता है। ऑफिस में बैठा हुआ अफसर या मालिक करोड़ों में खेलने लग जाता है। इतना अन्तर क्यों ? इसीलिए कि मनुष्य में क्रूरता की वृत्ति है। यह वृत्ति क्यों पनपती है ? यह पनपती है इन्हीं आर्थिक अवधारणाओं के कारण। इन अवधारणाओं के सन्दर्भ में क्रूरता का पनपना सहज है। क्या शोषण मिटाया जा सकता है ? क्या क्रूरता की वृत्ति बदली जा सकती है ? जिसमें क्रूरता नहीं होती, वह शोषण नहीं कर सकता। कोई भी करुणाशील व्यक्ति शोषण नहीं कर सकता। शोषण वही कर सकता है जिसमें क्रूरता है, दूसरे के प्रति सहानुभूति नहीं है। वह यही सोचता है कि दूसरा मरे तो भले ही मरे, मुझे क्या ? इस क्रूरता को जन्म देने में अर्थ-व्यवस्था का बहुत बड़ा हाथ है। प्रश्न है कि क्या हम प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में इस समस्या पर विचार करें और समाधान पाएँ ? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया में शरीरगत विभिन्न संवेदनों को पकड़ने की बात आती है। श्वास के संवेदन, शरीर के संवेदन, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र सुषुम्ना और प्राण के संवेदन आदि-आदि विभिन्न संवेदन होते हैं । इन्हें पकड़ना छोटी बात नहीं है। मनुष्य में चेतना है । वह जड़ को भी जानता है और चेतन को भी जानता है। वह सबको जानता है, अपने आपको भी जानता है और दूसरों को भी जानता है I चेतना के दो आयाम हैं-ज्ञान और संवेदन। यह संवेदन का जो आयाम है, यह समाज व्यवस्था के लिए आधार भूत सूत्र बनता है। जिस समाज में संवेदनशीलता का धागा नहीं होता, वह नृशंस लोगों का समाज बन जाता है। जिस समाज में यह सूत्र नहीं होता, वह हिंस्र पशुओं का समाज बन जाता है। मनुष्य का इसीलिए विकसित, सहयोगशील समाज बना कि इसमें संवेदना है। इसी के आधार पर आज हजारों-हजारों आदमी साथ में रहते हैं । यदि मनुष्य में कोरी बुद्धि होती, कोरा ज्ञान होता और संवेदना नहीं होती तो वह ज्ञान विध्वंसकारी ही होता । जिस वैज्ञानिक ने अणु-शस्त्रों का निर्माण किया उसने सबसे पहले मानवीय संवेदना का काटकर अलग रख दिया और फिर अस्त्रों का निर्माण किया । यदि उस वैज्ञानिक में मानव जाति के प्रति संवेदना होती तो वह ऐसा जघन्य कार्य कभी नहीं करता । मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है- संवेदनशीलता । हम पहले स्थूल शरीर के, फिर तैजस शरीर-विद्युत् शरीर के संवेदनों को पकड़ते हैं। ये हमारे भावों के संवाहक हैं। फिर हम कर्म शरीर के और अन्त में चैतन्य के संवेदनों को पकड़ते हैं । जब ये पकड़ में आते हैं, तब हमारा चैतन्य इतना विस्तारशील बन जाता है कि फिर हमसे किसी के प्रति क्रूरता का व्यवहार नहीं हो सकता। जिन-जिन में अध्यात्म जागा है, उनमें संवेदनशीलता अवश्य जागी है। उनमें करुणा का प्रवाह फूटा है और वे समता से ओतप्रोत हुए हैं। वह फिर किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता, धोखा नहीं दे सकता, किसी की भूमि या सम्पत्ति नहीं हड़प सकता, अनैतिकता नहीं कर सकता आदि -आदि । प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया इस सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाती है। हम उसके माध्यम से संवेदनशीलता को जगाएँ। वह इतनी व्यापक वन जाए कि पूरा मानव समाज ही नहीं, पूरा प्राणी जगत् उसमें समा जाए। इतना होने पर ही क्रूरता धुल सकती है। अन्यथा बाप बेटे को और बेटा वाप को, सास बहू को और बहू सास को मार सकती है। कोई रोकने वाला नहीं है । जब संवेदना रुक जाती है तब कौन किसको नहीं मार सकता ? सब सबको मार सकते हैं। संवेदना के अभाव में कोई सम्बन्ध टिकता ही नहीं । २० ध्यान से आदमी बदले, यह मूल बात है। इसका तात्पर्य है कि उसमें रही हुई क्रूरता वदले, शोषण की वृत्ति बदले, नयी चेतना का निर्माण हो। हमें वह ध्यान Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा करना है जिससे चेतना का रूपान्तरण हो । सबसे अधिक अनर्थ करने वाली दो वृत्तियाँ हैं- लोभ की वृत्ति और इच्छा की वृत्ति । ये जन्म देती हैं क्रूरता को । संवेदनशीलता से ही यह बदल सकती हैं। इस सन्दर्भ में ध्यान एक जीवन दर्शन की नई प्रणाली है। जीवन की जितनी प्रणालियाँ हैं- आर्थिक प्रणालियाँ और राजनेतिक प्रणालियाँ - इन सबमें दीपों का परिमार्जन करने वाली है ध्यान की प्रणाली । ध्यान का मूल प्रयोजन है - चेतना का रूपान्तरण, वृत्तियों का परिष्कार । पहला परिष्कार है- लोभ का और स्वार्थ का । २१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र जॉन रश्किन ने एक किताब लिखी-अन्टू दि लास्ट (UNTO THE LAST)। उन्होंने इसमें प्राचीन अर्थशास्त्रियों की समालोचना की है। पुराने अर्थशास्त्री मानते थे कि मजदूरों को अधिक वेतन देना गलत है। क्योंकि वे सुसंस्कृत नहीं हैं । यदि उन्हें अधिक वेतन मिलेगा तो वे शराब पीएँगे तथा अन्यान्य व्यसनों में फँसेंगे। जीवन को वे बर्बाद कर देंगे । रश्किन ने एक प्रश्न उपस्थित किया कि उन व्यक्तियों को असंस्कृत रखने का उत्तरदायित्व किन पर है ? यदि समाज का बहुत बड़ा भाग असंस्कृत रहता है तो उसका उत्तरदायी कौन है ? यह बहुत बड़ा प्रश्न है । हमको भी इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए । समाज के दो चित्र सामने आते हैं। एक है पदार्थ- प्रतिबद्ध समाज और दूसरा है पदार्थ मुक्त समाज। जब तक जीवन है, शरीर है, जीवनयात्रा को चलाना है, तब तक पदार्थ नहीं छूट सकता । पदार्थ रहेगा। पदार्थ का होना एक बात है और पदार्थ - प्रतिबद्ध होना दूसरी बात है । पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज वह होता है जहाँ धन साधन नहीं रहता, साध्य बन जाता है। धन साधन है जीवनयापन के लिए, किन्तु जब वह साध्य बन जाता है तो पदार्थ की प्रतिबद्धता आती है और सारे समाज में प्रतिबद्धता होती है। एक व्यक्ति क्रूर है, एक व्यक्ति हिंसक है, एक व्यक्ति सृजनात्मक शक्ति को खो बैठता है, ऐसा क्यों होता है ? इसमें व्यक्ति के अपने दोष या कर्म-संस्कार माने जा सकते हैं, पर केवल व्यक्ति ही इसमें दोषी नहीं है, समाज-व्यवस्था भी दोषी है। समाज की जैसी अवधारणा होती है, उसी के अनुरूप व्यक्ति का रूप बनता है 1 जो पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज होता है, उसका पहला लक्षण होता है-उत्सुकता । पदार्थ के प्रति उत्सुकता निरन्तर बनी रहती है और वह वृद्धिंगत होती रहती है । उत्सुकता असीम बन जाती है। वह उत्सुकता इतनी मात्रा में बढ़ जाती है कि योग की भाषा में कहा जा सकता है कि व्यक्ति का विशुद्धिकेन्द्र गड़बड़ा गया है | शरीरशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि व्यक्ति का थायराइड Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र ग्लाण्ड अस्त-व्यस्त हो गया है। उत्सुकता का पहला काम है-विशुद्धिकेन्द्र को असन्तुलित करना। शरीर में कंठ का भाग बहुत महत्त्वपूर्ण है। यही विशुद्धिकेन्द्र है। इसके साथ मन की चंचलता का बड़ा भाग जुड़ा हुआ है। ज्योतिषशास्त्र में मानसिक अवस्थाओं का अध्ययन चन्द्रमा के आधार पर किया जाता है। विशुद्धिकेन्द्र चन्द्रमा का प्रभाव-क्षेत्र है। इस आधार पर विचारों में उतार-चढ़ाव आता है। अति उत्सुकता असन्तुलन पैदा करती है। और यह असन्तुलन बहुत लम्बी कार्य-कारण की श्रृंखला को जन्म देती है। पदार्थ-प्रतिवद्ध समाज में पदार्थ साध्य बन जाता है और तव प्रत्येक पदार्थ के प्रति उत्सुकता बढ़ती है, असन्तुलन बढ़ता है और मन की चंचलता बढ़ती जाती है। चंचलता बहुत बड़ी समस्या है। जिस समाज-व्यवस्था में चंचलता के बीज अधिक हैं, उस समाज-व्यवस्था में अच्छे परिणाम नहीं आ सकते । जव तव शरीर, मन और वाणी हैं तब तक चंचलता को छोड़ा नहीं जा सकता। किन्तु जब चंचलता उस विन्दु पर पहुँच जाए जहाँ वह प्रमाद का प्रतिनिधित्व करे, आवेश और इच्छा का प्रतिनिधित्व करे, वह चंचलता खतरनाक बन जाती है। आवेश आता है, पर यदि चंचलता नहीं है तो वह अभिव्यक्त नहीं होगा। प्रमाद आता है, पर चंचलता के अभाव में वह अभिव्यक्त नहीं होगा। इच्छा पैदा होती है, पर यदि चंचलता नहीं है तो इच्छा की क्रियान्वित नहीं होगी। सारी प्रवृत्तियाँ चंचलतामय हैं। चंचलता प्रवृत्ति है, प्रवृत्ति ही चंचलता है। मन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता कहें या मन की प्रवृत्ति, वाणी की प्रवृत्ति और शरीर की प्रवृत्ति कहें, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। उत्सुकता के कारण चंचलता अधिक बढ़ती है और चंचलता की अन्तिम परिणति होती है-पागलपन, मानसिक तनाव। मानसिक तनाव के अनुपात से ही पागलपन बढ़ता है। कोई आदमी पचीस प्रतिशत पागल होता है तो कोई पचास प्रतिशत और कोई अस्सी प्रतिशत पागल होता है और कोई शत-प्रतिशत पागल होता है। पागलपन का मूल कारण है चंचलता। पागलपन का अर्थ ही है किसी एक विपय पर न टिक पाना, किसी एक विन्दु पर न टिक पाना। समाज में जो असंस्कृत वर्ग है उसका उत्तरदायित्व किस पर है। समाज की व्यवस्था ही इसके लिए उत्तरदायी है। व्यक्ति अपने लिए, अपने आचरण के लिए उत्तरदायी हो सकता है, पर एक सीमा तक। व्यक्ति का अपना कर्म-संस्कार, आनुवंशिकता आदि वैयक्तिक कारण निमित्त बन सकते हैं, किन्तु समाज-व्यवस्था भी एक निमित्त है। उसकी प्रतिक्रिया होती है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र कुआँ पानी से भरा था। डोर और वाल्टी पड़ी थी। एक व्यक्ति प्यास से आकुल था। वह आया और पानी पिए विना वहीं वैठ गया। व्ह अमीरजादा था। इतने में ही नवाबजादा आया और वह भी पानी पिए वि। बैठ गया। एक शाहजादा आया और वह भी प्यासा ही बैठ गया। चौथी वार एक हरामजादा आया, पानी पिया और चलता बना। उसने कहा-मैं हरामजादा हूँ। स्वयं पीता हूँ, दूसरों को नहीं पिलाता। प्रश्न होता है कि समाज में हरामजादों को किसने पैदा किया ? यदि समाज में अमीरजादा, नवावजादा और शाहजादा नहीं होते तो समाज में कभी हरामजादे पैदा नहीं होते। जो पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज होता है, जहाँ पदार्थ साध्य बन जाता है, वहाँ कार्य-कारण की एक श्रृंखला चल पड़ती है। उसे कभी रोका नहीं जा सकता। वहाँ प्रतिक्रिया होती है। . एक गाँव में एक सिद्धपुरुप आया। सारे गाँव में यह चर्चा हो गई कि जो माँगे वह सिद्धपुरुप देता है। जव यह पता लग जाए तो पदार्थ-प्रतिवद्ध मनुष्य को और क्या चाहिए ? माँग बनी रहती है। वह कभी छूटती नहीं। चाहे राजा हो, शहंशाह हो, अरवपति हो या और कुछ, माँग बनी की बनी रहती है। वे गरीब वने रहते हैं जो इच्छा के दास बने रहते हैं। लोग महात्माजी के पास आने लगे। महात्माजी की शर्त थी कि एक व्यक्ति को एक ही वरदान मिल सकता है। दो नहीं। उस गाँव की एक किसान की पत्नी आई। उसने सोचा-क्या माँगें। यदि माँगूंगी तो सारे घरवाले उसमें हिस्सा बँटाएँगे। सारा धन मेरा नहीं रहेगा। दूसरी मुसीवत यह होगी कि धन होते ही किसान दूसरी पत्नी ले आएगा। फिर मुझे कौन पूछेगा ? मैं तो ऐसा वर माँगूंगी कि पति का प्रेम दुगुना हो जाए। उसने सिद्धपुरुप से कहा--मुझे आप अत्यन्त रूपवती बना दें। सिद्धपुरुष ने कहा-तथास्तु। वह रूपवती स्त्री वन गई। अव वह अप्सरा-सी लगने लगी। वह दौड़ी-दौड़ी अपने खेत की ओर गई। उसका पति वहीं खड़ा था। उसने देखा कि एक रूपवती स्त्री आ रही है। वह साक्षात् देवी-सी लग रही है। वह तत्काल सामने गया और साप्टांग वन्दन करते हुए बोला-आपने मेरे पर अनुग्रह किया। आज मेरा भाग्य खुल गया कि साक्षात् देवी मरे खेत में आ गई। वह वोली-मैं देवी नहीं हूँ। में तो छोकरे की माँ हूँ। यह सुनते ही किसान ने पूछा-यह परिवर्तन कैसे हुआ ? वह वोली--सिद्धपरुप से रूप का वरदान मांगा और में अप्सरा-सी बन गई। किसान ने कहा-रांड, घर में खाने को दाने नहीं हैं, पहनने को पूरे कपड़े नहीं हैं और तूने रूप का वरदान मांगा। धन माँगती तो गरीवी तो दूर . होती। क्या करोगी रूप का ? वह गुस्से में आगवबूला हो गया। वह दौड़ा-दौड़ा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र - सिद्धपुरुष के पास गया और मुझे भी एक वरदान दो । सिद्धपुरुष ने कहा- माँगो | वह किसान बोला- भगवन् आपने जिस स्त्री को रूप का वरदान दिया है, उस स्त्री को गधी बना दें। सिद्धपुरुष ने कहा - तथास्तु । वह रूपवती स्त्री तत्काल गधी बन गई। और खेत में चरने लग गई। किसान दौड़ा-दौड़ा आया और गधी को मारने पीछे दौड़ा। गधी आगे दौड़ने लगी। इतने में ही किसान का पुत्र आ गया। पिता से पूछा कि तुम गधी के पीछे क्यों दौड़ रहे हो ? किसान ने कहा- यह गधी नहीं, तेरी माँ है। उसने सारी रामकहानी कह सुनाई। बेटा असमंजस में पड़ गया। वह भी सिद्धपुरुष के पास गया और वोला- महात्माजी ! आपने मेरी माँ को और पिता को वरदान दिया था। अब आप कृपा कर मुझे भी एक वरदान दें कि हम पहले जैसे थे, वैसे के वैसे बन जाएँ। सिद्धपुरुष ने कहा - तथास्तु । सब कुछ पूर्ववत् हो गया । जहाँ समाज की स्थितियाँ प्रतिक्रियात्मक बनती हैं, पदार्थ प्रतिवद्धता का विकास होता है, पदार्थ सब कुछ बन जाता है, वहाँ पहला वरदान मिलता है हिंसा का, विध्वंस का और दूसरा वरदान मिलता है विध्वंसक शस्त्रास्त्रों के निर्माण का । तीसरे वरदान की परिकल्पना नहीं की जा सकती । व्यक्ति प्रस्तर युग से चला और आज अणुयुग तक पहुँच गया। अब आगे कहाँ पहुँचेगा, कहा नहीं जा सकता । अनेक वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब जब कभी युद्ध होगा, वह प्रस्तरों से लड़ा जाएगा। वहाँ हम जैसे थे वैसे वन जाएँगे। ये सारी प्रतिक्रियाएँ पदार्थ- प्रतिबद्धता के कारण होती हैं । आज दृष्टिकोण बदल गया । चंचलता, आवेश, प्रमाद और इच्छा - इनके निमित्त से समाज का दृष्टिकोण बदल गया। आज यह मानदण्ड बन गया कि अधिक उत्पादन, अधिक क्षमता का विकास और अधिक भोग । उसकी प्रतिक्रिया होती है। उसे कोई टाल नहीं सकता। इसके प्रतिकूल यदि कोई बात कही जाती है तो आदमी सोचता है कि यह विकासवादी युग की वात नहीं है । यह तो वीते युग की वात है, पिछड़ेपन की बात है । I अब हम पदार्थ मुक्त समाज की कल्पना करें। पर प्रश्न होता है कि जव तक शरीर है तब तक पदार्थ मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ? पदार्थ से कोई छूट नहीं सकता, चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी । सव पदार्थ का उपभोग करते हैं। पदार्थ से सर्वथा छुटकारा असम्भव है। इस स्थिति में पदार्थमुक्त समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है ? हम इसे समझें। पदार्थमुक्त समाज में पदार्थ जीवनयापन का साधन मात्र बना रहता है, साध्य नहीं बनता। उसमें साध्य होता है-चारित्र और नैतिकता का विकास, आध्यात्मिकता का विकास। पदार्थ साधन मात्र रहता है। ऐसी स्थिति में पहला परिणाम क्या आता है ? २५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र भगवान् महावीर से पूछा गया-भन्ते ! धर्मनिष्ठा या अध्यात्म निष्ठा का परिणाम क्या होता है ? भगवान ने कहा-धर्मनिष्ठा का परिणाम है-अनुत्सुकता। वहाँ उत्सुकता समाप्त हो जाती है। बन्धन और मुक्ति तथा पदार्थ-प्रतिबद्धता और पदार्थमुक्त में यही अन्तर है कि एक में पदार्थ के प्रति उत्सुकता बनी रहती है और एक में उत्सुकता कम हो जाती है। यहाँ पदार्थ उपयोगिता और आवश्यकता का साधन मात्र बना रहता है। इस स्थिति में प्रतिक्रिया भित्र होती है। जब उत्सुकता समाप्त होती है तो चंचलता कम हो जाती है। उत्सुकता चंचलता को पैदा करती है। उत्सुकता की कमी का अर्थ है चंचलता की कमी। जिस व्यक्ति में उत्सुकता का आवेग कम हो जाता है, उसमें चंचलता की कमी सहज घटित हो जाती है। इस अवस्था में दूसरी स्थितियाँ भी वदल जाती हैं। चंचलता अपने आप में कोई बुरी नहीं है। चंचलता को पैदा करने वाली जो उत्सुकता है, वह दुरी है। चंचलता हमारी पकड़ में नहीं आती। उत्सुकता को हम पकड़ सकते हैं। इसलिए हम कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर की चंचलता को कम करते हैं, मौन के द्वारा दाणी की चंचलता को कम करते हैं तथा श्वास-प्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा आदि के द्वारा मन की चंचलता को कम करते हैं। ___एकाग्रता के अभाव में चंचलता की अधिकता से भारत की क्या स्थिति बनी हे वह स्पष्ट है। अभी-अभी ओलम्पिक खेल सम्पत्र हुए। भारत को कितने पदक मिले ? भारत की अपेक्षा अत्यन्त छोटे-छोटे राष्ट्रों ने स्वर्ण पदक जीते, पर भारत को एक कांस्य पदक भी नहीं मिला। इसके कारण की खोज में क्या भारत की राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कारणभूत नहीं है ! इन सबसे बड़ा कारण है एकाग्रता की कमी। यहाँ के निवासी एक विन्दु पर एकाग्र होकर कार्य करना नहीं जानते। जव तक एकाग्रता की गहरी साधना नहीं होती, तव तक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। चंचलता को मिटाने, कम करने के तीन प्रयोग हैं-कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान। जव चंचलता कम हो जाती है तब आवेश आता भी है, पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जब क्रोध आए और उसकी अभिव्यक्ति न हो तो कुछ ही दिनों में वह अपनी मौत मर जाता है। यह ज्ञानतन्तुओं का एक नियम है। जव शरीर में कोई ज्ञानतन्तु लम्वे समय तक निष्क्रिय रहते हैं तव अपना कार्य विस्मृत कर देते हैं, उनकी निष्क्रियता वहत बढ़ जाती है और वे अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं। इसी प्रकार जब आवेश की तरंग उठती है और चंचलता की कमी के कारण वह वाहर प्रगट नहीं होती, तव वहाँ के ज्ञानतन्तु निष्क्रिय होने लगते हैं और धीरे-धीरे आवेग भी कम होने लगता है। अध्यात्म की भाषा में यही आवेग Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र की असफल अवस्था है। क्रोध को विफल करने का अर्थ है कि उसे अभिव्यक्त होने का अवसर न देना । शरीरशास्त्रीय भाषा में कहा जाता है कि आवेग के रसायन मस्तिष्क के इमोशनल एरिया में उत्पन्न होते हैं और वे अभिव्यक्त होते हैं नाभि के पास, एड्रिनल ग्लाण्ड के पास । यदि एड्रिनल ग्लाण्ड पर नियन्त्रण कर दिया जाए तो आवेग के रसायन नाभि तक जाएँगे पर अभिव्यक्त नहीं होंगे। आवेग के उत्पन्न होने का पोइण्ट और अभिव्यक्त होने का पोइण्ट अलग-अलग है। आवेग का उत्पन्न होना और आवेग का सफल होना -- ये दो बातें हैं, एक नहीं है । चंचलता के कम होने पर आवेग उत्पन्न तो हो सकते हैं, पर प्रगट नहीं हो सकते। जब आवेग प्रगट नहीं होते तब ज्ञानतन्तु, अपना कार्य बन्द कर देते हैं । उस स्थिति में प्रमाद भी कम होने लगता है । इच्छा भी कम हो जाती है और दृष्टिकोण बदल जाता है। जब जीवन के प्रति, दूसरे व्यक्ति के प्रति और समाज के प्रति दृष्टिकोण बदलता है तो संवेदनशीलता का विकास होने पर व्यक्ति दूसरे के प्रति बुरा आचरण नहीं कर सकता, अन्याय नहीं कर सकता और किसी का अतिक्रमण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में ही नैतिकतापूर्ण और चारित्रनिष्ठ समाज रचना की कल्पना की जा सकती है तथा इसी स्थिति में पदार्थ - -युक्त समाज-संरचना का स्वप्न संजोया जा सकता है। प्रेक्षाध्यान पदार्थमुक्ति का प्रयोग है। पदार्थमुक्ति का तात्पर्य है - दृष्टिकोण का परिवर्तन ! जब तक दृष्टिकोण नहीं बदलता, तब तक आदमी बदलने का बहाना करता रहता है, पर बदलता नहीं। उसमें आकांक्षा की तीव्रता बनी रहती है । वह आकांक्षा किसी भी शासन प्रणाली से मिट नहीं सकती। वह अवसर की टोह में रहती है और अवसर मिलते ही प्रगट हो जाती है। यह मौलिक मनोवृत्ति है। कड़ी से कड़ी शासन व्यवस्था में भी वह प्रगट हो जाती है । पत्नी ने पति से कहा- 'आज ही अखबार में पढ़ा कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को साइकिल के बदले बेच डाला। कहीं आप तो ऐसा नहीं करेंगे ?' पति बोला- 'मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि तुमको साइकिल के बदले बेच डालूँ । यदि सौदा करूँगा तो मोटरकार का करूँगा ।' २७ आकांक्षा इतनी तीव्र बनी रहती है कि उसका अन्त ही नहीं आता। इसका मूल कारण है दृष्टिकोण का अपरिवर्तन । दृष्टिकोण का परिवर्तन होना अत्यन्त आवश्यक है और इसके लिए आध्यात्मिक विकास बहुत जरूरी है। आज समाज-व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी यही है कि इसमें पदार्थ-व्यवस्था अर्थात् उत्पादन, वितरण और विनिमय पर बहुत ध्यान दिया गया किन्तु उत्पादक, वितरक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ समाज-व्यवस्था के सूत्र और विनिमायक पर बहुत कम ध्यान दिया गया। इसीलिए इतनी विषमताएँ और अव्यवस्थाएँ उत्पन्न हुई हैं। जब तक व्यक्ति को बदलने की बात प्राप्त नहीं होती तब तक समस्याएँ सुलझती नहीं हैं। जब तक यह चेतन जो कर्ता है, जो करने वाला है, वह नहीं बदलेगा तो प्रणालियों के परिवर्तन से कुछ नहीं बनेगा, स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। एक भाई ने कहा-जब हम दीर्घश्वास प्रेक्षा कर प्रयोग करते हैं तब हमारा काभाव जाग जाता है। मैंने कहा-काभाव जरूरी है। यह बुरा नहीं है। जैन दर्शन मुक्त आत्मा को भी अकर्ता नहीं मानता। वह अपने स्वभाव का कर्ता तो है ही। हम अकर्ता नहीं हैं। जब तक हम शरीर से प्रतिबद्ध हैं तब तक अकर्ता हो नहीं सकते। हमें शरीर में जीना है तो कर्ता भाव छूट नहीं सकता। पर इतना हो सकता है कि हमारा ज्ञाताभाव और कर्ताभाव-दोनों साथ-साथ चलें। हम सचाई को स्वीकार कर चलें कि हम कर्ता हैं। पुनः प्रश्न उठता है कि क्या पदार्थ मुक्त समाज की कल्पना की जा सकती है ? क्या यह सम्भव है ? मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि विश्व में जितनी भी क्रान्तियाँ हुई हैं, चाहे फिर वे क्रान्तियाँ फ्रांस में या रूस में हुई हों या भारतवर्ष में हुई हों, वे क्रान्तियाँ किसी महान् दार्शनिक या साहित्यकार की विचारधारा से हुई हैं। फ्रांसिसी क्रान्ति का जनक था रूसो। मार्क्स की विचारधारा से रूस में क्रान्ति हुई। महावीर, बुद्ध, शंकर आदि महान् धर्मनेताओं के प्रवचनों के आधार पर भारत में क्रान्तियाँ हुईं, परिवर्तन हुए। क्रान्ति किसी न किसी विचारधारा के आधार पर होती है। यह जरूरी नहीं कि आज ही कोई नया विचार उत्पन हो और आज ही कोई क्रान्ति घटित हो जाए। सौ वर्ष बाद भी वह घटित हो सकती है और हजार वर्ष के बाद भी वह हो सकती है। मांसाहार के निषेध में सबसे पहले भगवान् महावीर ने आवाज उठाई। उस समय यह स्वर इतना सशक्त नहीं बना। पर आज यह स्वर अपने आप पूरे विश्व में सशक्त बन गया। चाहे मांसाहार पूर्ण रूप से छूटा या नहीं यह अलग बात है। पर आज मांसाहार-निषेध पर बड़े-बड़े आयोजन होते हैं, सेमिनार होते हैं और वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर यह प्रमाणित किया जाता है कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं बन सकता, क्योंकि मनुष्य के शरीर की जो संरचना है वह मांसाहार के अनुकूल नहीं है। पर इस स्वर ने क्रान्ति का रूप लिया ढाई हजार वर्प के बाद । इसलिए हम सदा अच्छा सोचें, अच्छे विचार उत्पन्न करें, अच्छी कल्पनाएँ करें। इस बात को छोड़ दें कि ये विचार कब फलित होंगे। यह आकाशीय रेकार्ड भण्डार इतना विशाल है कि इसमें सभी विचार संग्रहीत होते हैं और कालान्तर में नई Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र २६ घटना घटित कर देते हैं, नई क्रान्ति ला देते हैं। कभी किसी व्यक्ति में ये विचार प्रवेश करते हैं और तब नई घटना घटित हो जाती है। हम इस पर चिन्तन करें कि पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज में जो प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं, वे मानव-जाति के लिए कल्याणकारी नहीं हैं, सुविधाजनक नहीं हैं। किन्तु पदार्थ मुक्त समाज की जो कल्पना है वह समाज के लिए उत्थानकारी है और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास और चेतना के रूपान्तरण के लिए उपयोगी है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन आचार्य तुलसी ने जीवन विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण त्रिपदी दी । उसके तीन पद हैं (१) चिन्ता नहीं, चिन्तन करो । (२) व्यथा नहीं, व्यवस्था करो । (३) प्रशस्ति नहीं, प्रस्तुति करो । चिन्तन, व्यवस्था और प्रस्तुति - ये विकास के कारण बनते हैं तथा चिन्ता, व्यथा और प्रशस्ति-ये अवरोध के कारण बनते हैं । चिन्तन करना पहली बात है। हम किसी भी बात को स्वीकारें तो पहले चिन्तन करें, केवल अन्धानुकरण न करें । मनुष्य व्यथा की बात पग-पग पर प्रगट करता है, पर व्यवस्था पर ध्यान नहीं देता । महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि शिकायत या व्यथा नहीं व्यवस्था करें। मनुष्य जब तक जिन्दा है, तब तक शिकायत मरेगी नहीं । आदमी के साथ-साथ चलेगी। जहाँ अपूर्णता है वहाँ शिकायत के लिए सदा अवकाश है। आदमी पूर्ण होने का नहीं तो शिकायत कभी बन्द होने को नहीं । पर जिसका ध्यान व्यवस्था की ओर चला जाता है, उसकी शिकायतें कम होती जाती हैं और जो व्यवस्था करना नहीं जानता, वह सदा शिकायत ही करता रहता है। प्रशस्ति की बात बहुत होती है। जो धार्मिक होगा वह धर्म की बहुत प्रशस्ति करेगा, गुणगान करेगा, धर्म को ही सब कुछ बताएगा । अर्थशास्त्री कहेगा कि सारा समाज अर्थ व्यवस्था के आधार पर ही चल रहा है। अर्थ-व्यवस्था नहीं होती तो समाज कभी चल नहीं पाता। जो जिस विषय का व्यक्ति है वह उस विषय की प्रशस्ति करता है । पर सबकी अपनी-अपनी सीमा है। धर्म की एक सीमा है तो अर्थ-व्यवस्था की भी एक सीमा है, सब कुछ धर्म से नहीं होता। धर्म से भूख-प्यास नहीं मिटती। सर्दी लग रही है तो धर्म से सर्दी नहीं मिटेगी। हमें प्रस्तुतकीरण करना चाहिए। किस प्रस्ताव में कौन-सी बात उपयोगी होती है, यह जानना आवश्यक है। प्रकरण, प्रसंग और प्रस्ताव को जानना और फिर प्रस्तुत करना यह Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। विकास के तीन सूत्र हैं-चिन्तन, व्यवस्था और प्रस्तुति ' वर्तमान का युग चिन्तन, व्यवस्था और प्रस्तुति का युग है। इस युग में चिन्तन का बहुत विकास हुआ। आज बुद्धि का विकास हुआ है इसलिए चिन्तनशील लोगों की कमी नहीं है। आज व्यवस्था की भी कमी नहीं है। व्यवस्था के कोर्स कराए जाते हैं। स्थान-स्थान पर प्रशिक्षण केन्द्र चल रहे हैं। व्यवस्था सिखाई जाती है। आदमी प्रस्तुतीकरण में भी निडर हो चला है। इसलिए आर्थिक तथा अन्यान्य विकास हो सका है। पुराने जमाने में कुछेक लोग धनवान होते थे। वर्तमान में अधिक संख्या में लोग धनवान् हैं। धन के स्रोत बढ़े हैं। सम्पदा की व्यवस्था में सुधार हुआ है। आय बढ़ी है। पर इसके साथ प्रतिस्पर्धा का भी विकास हुआ है। पुराने जमाने में प्रतिस्पर्धा नहीं थी, क्योंकि न कोई अर्थ-व्यवस्था जैसी चीज थी और न अर्थशास्त्र का इतना विकास था। आज हजारों अर्थशास्त्री और हजारों अर्थशास्त्र के ग्रन्थ मिलते हैं। प्राचीनकाल में पाँच-दस अर्थशास्त्रियों के नाम तथा पाँच-दस ग्रन्थों के नाम मिलते हैं। आज अर्थशास्त्र के ग्रन्थ तथा अर्थशास्त्रियों-दोनों की संख्या बढ़ गई है। अर्थ-व्यवस्था के नियमों का भी विकास हुआ है। जहाँ एक बात का विकास होता है वहाँ समस्याएँ भी पैदा हो जाती हैं। आज की समस्या है-प्रतिस्पर्धा । प्राचीनकाल में आर्थिक प्रतिस्पर्धा इतनी नहीं थी जितनी आज है। जहाँ आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती है वहाँ साधन-शुद्धि का भाव विलुप्त हो जाता है। यह सबसे बड़ी क्षति आ जाती है। जो समाज-व्यवस्था व्यक्ति को सत्यनिष्ठा की ओर ले जाती है, साधन-शुद्धि की ओर ले जाती है, वह समाज-व्यवस्था मानव के लिए कल्याणकारी है। जो समाज-व्यवस्था साधन-शुद्धि के विचार को समाप्त करती है, सत्यनिष्ठा को समाप्त करती है, उस समाज व्यवस्था का अन्तिम परिणाम दुःखद और अहितकर होता है। इस आर्थिक प्रतिस्पर्धा ने साधन-शुद्धि के विवेक को समाप्त कर डाला। इस प्रतिस्पर्धा ने 'येनकेन प्रकारेण धनं स्यात' की वृत्ति को विकसित किया और उसका परिणाम है अनैतिकता और अप्रमाणिकता का बोलबाला। दो हजार वर्ष या दो सौ वर्ष पुराने आदमी की और आज के आदमी की तुलना की जाय तो सबसे बड़ा अन्तर यह लगेगा कि प्राचीनकाल के आदमी में जो सत्यनिष्ठा थी वह आज के आदमी में नहीं है। पहले आदमी घबड़ाता था कि उसके हाथ से कोई बुरा काम न हो जाए। झूठ न बोलना पड़े। आज यह निष्ठा समाप्त हो गई। आज वह आदमी अधिक कुशल और व्यावहारिक माना जाता है जो झूठ बोल सकता है, बात को छिपा सकता है। सत्य बोलने वाला कायर समझा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र जाता है। इस सत्यनिष्ठा की कमी ने आस्था को आन्दोलित कर दिया। आदमी की आस्था कहीं जम नहीं पा रही है। सत्यनिष्ठा की कमी के कारण मानसिक तनाव बढ़ गया है। आज का दृष्टिकोण है- 'धनं शरणं गच्छामि।' धर्म के जो चार शरण माने जाते हैं-'अरहते सरणं गच्छामि', 'धम्म सरणं गच्छामि' आदि-ये तो केवल वाचिक मात्र रह गए और 'व्यापार शरण गच्छामि', 'धनं शरण गच्छामि'-ये शरणभूत बन गए। आदमी सामाजिक प्राणी है। एक-दूसरे को देखकर प्रतिक्रियाएँ होती हैं। एक आदमी को जब दस लाख रुपए खर्च करते देखता है तो वह सोचता है कि मैं भी धनी होता तो कितना अच्छा होता। मेरा भाई व्यापारी है और आज धनकुबेर है। मैं नौकरी में रहा और आज उसका मुँहताज बन रहा हूँ। राजस्थानी लोक साहित्य की एक लघु कथा है, जो प्रदर्शन पर सटीक आक्षेप प्रस्तुत करती है एक सेठानी ने चूड़ा पहना। वह चन्दरबाई का चूड़ा था। गाँव की सैकड़ों महिलाएँ उसे देखने आईं। सबने उस चूड़े की बनावट, रूप-रंग की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक गरीब चमारिन भी देखने आई। उसके मन में प्रतिक्रिया हुई। उसने सोचा, कितनी स्त्रियाँ आती हैं, पूछती हैं और वाह-वाह करती हैं। वह तत्काल घर आई, पति से बोली, मुझे भी चन्दरबाई का चूड़ा लाकर दो। पति बोला-घर में तो खाने को अनाज भी नहीं है और तू चूड़े की बात करती है। महिला ने हठ पकड़ा अन्ततः आदमी ने बनिए से रुपए उधार लिए और महिला को चूड़ा पहना दिया। वह गाँव के बाहर एक झोपड़ी में रहती थी। वहाँ कोई उसके चूड़े को देखने नहीं आया। चूड़ा पहनने का मजा किरकिरा हो गया। कोई प्रदर्शन करे और यदि दूसरा उसे देखने नहीं आए तो प्रदर्शन अपनी मौत मर जाता है। प्रदर्शन को मूल्य तब मिलता है जब लोग देखने आते हैं। प्रदर्शनकर्ता में अहंकार होता है और प्रदर्शन देखने वालों में उत्सुकता। दोनों का योग होता है तब कुछ होता है। उस चमारिन में अपना चूड़ा दिखाने की भावना प्रबल हुई और उसने लोगों को एकत्रित करने का एक उपाय, ढूँढ़ा। उसने एक दिन अपनी झोपड़ी में आग लगा दी। लोगों ने आग की बात सुनी। वे दौड़े आए। वह चमारिन हाथ को ऊँचा किए जलती हुई झोंपड़ी के बाहर खड़ी थी। कुछ महिलाओं ने देख लिया और पूछा-अरे ! यह चन्दरबरदाई का चूड़ा कब पहन लिया। वह बोली- 'अरे ! पहले ही पूछ लेती तो यह झोंपड़ी तो नहीं जलती। अब पूछ रही हो ?' यह प्रदर्शन की वृत्ति विचित्र होती है। फिर हम उस बिन्दु पर आते हैं कि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन समस्या भौतिक और कारण मानसिक। यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है चिन्तन का कि समस्या है भौतिक और कारण है मानसिक। किसी ने गोली चलाई और आदमी मर गया। अब इस घटना पर विचार करें। आदमी में आवेश नहीं होता तो गोली नहीं चलती। बन्दूक नहीं होती, गोली नहीं होती तो गोली नहीं चलती। इसका विश्लेषण करते-करते हम इस चिन्तन पर पहँचते हैं कि यदि बारूद का आविष्कार नहीं होता तो इतना अनर्थ नहीं होता। इस आविष्कार की जननी कौन ? उत्तर मिलता है बुद्धि । तो फिर दोषी कौन ? दोषी है वह बुद्धि जिसने संहारक अस्त्र का आविष्कार किया। समस्या भौतिक जगत् में शुरू हुई और अटकी बुद्धि पर। जो कि मानव का आन्तरिक तत्त्व है। मनुष्य में प्रदर्शन की भावना है, वह बुद्धि के साथ जुड़ी हुई है। यह मानसिक समस्या है। वस्तु का प्रदर्शन बाहरी बात है। किन्तु प्रदर्शन की मनोवृत्ति आन्तरिक समस्या है। आज भौतिक समस्याओं पर बहुत ध्यान केन्द्रित किया जाता है। पर समस्याओं को पैदा करने वाली जो मनोवृत्ति है, उसकी उपेक्षा की जाती है। आन्तरिक समस्या पर ध्यान नहीं दिया जाता तब तक मनुष्य शान्ति से नहीं जी सकता और न ही समस्याओं का समाधान ही होता है। समस्याएँ आती रहती हैं, मिलती रहती हैं। एक लड़के ने पिता से पूछा-पिताजी ! आपका जन्म कहाँ हुआ ? मद्रास में। मम्मी का जन्म हुआ ? कलकत्ता में। और मेरा जन्म कहाँ हुआ ? बम्बई में। तो हम तीनों मिल कैसे गए ? बहत बड़ी अपेक्षा है कि हम आर्थिक समस्या के साथ मानवीय समस्या का भी योग करें। ऐसा करने पर ही समाधान ठीक निकल सकता है। यदि दोनों का योग नहीं होगा तो केवल समाज-व्यवस्था और राज्य-व्यवस्था पर ही ध्यान जाएगा और आन्तरिक समस्या उपेक्षित रह जाएगी। तब परिणाम स्वस्थ नहीं निकलेगा। आर्थिक विकास के लिए आर्थिक प्रतिस्पर्धा का सूत्र बन गया। विकास के लिए स्पर्धा आवश्यक भी है। विकास और स्पर्धा-दोनों साथ-साथ चलते हैं। यदि प्रतिस्पर्धा और विकास मनुष्य को केन्द्र में रखकर होता है तो कोई अनिष्ट परिणाम नहीं आता। किन्तु जहाँ केन्द्र में पदार्थ आकर बैठ जाता है और उसको भोगने वाला मनुष्य केन्द्र से हटकर परिधि में चला जाता है, वहाँ सारी समस्याएँ पैदा होती हैं। आज मनुष्य कहीं और किसी केन्द्र मे नहीं है। सर्वत्र पदार्थ ही केन्द्र में बैठा है। चैतन्य केन्द्र में नहीं है। जड़ है केन्द्र में। बेचारा मनुष्य और चैतन्य परिधि में चले गए हैं, ढकेल दिए गए हैं। इसका कारण है कि हमने दहमत को Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ समाज-व्यवस्था के सूत्र महत्त्व दे दिया। आज प्रजातन्त्र का जमाना है। उसमें बहुमत मान्य है। इसका कुछ तो मूल्य है, इसलिए चल रहा है। प्रजातन्त्र का विचार यूनान के दार्शनिकों ने दिया। एकान्ततः यह बुरा भी नहीं है तो बहुमत वाली बात एकान्ततः अच्छी भी नहीं है। जहाँ सत्य का प्रश्न है वहाँ बहुमत वाली बात भ्रामक हो जाती है। जहाँ दुःख और दुर्व्यवस्था को मिटाने का प्रश्न है वहाँ बहुमत की वात सफल भी हो सकती है किन्तु सत्यशोध में वह सफल नहीं हो सकती। गहराई में उतरने वाला एक व्यक्ति सत्य को अधिक प्रगट कर सकता है और ६६वें आदमी झूठ हो सकते हैं। बहुमत वहाँ काम नहीं दे सकता। महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, मुहम्मद, ईसा-सब अकेले थे। एक-एक व्यक्ति थे। एक-एक ने सत्य की घोषणाएँ की, शोध किया और उनके द्वारा बताए गए सत्य के आधार पर लाखों-करोड़ों व्यक्ति अपना जीवन चला रहे हैं। बताने वाला अकेला था, बहमत नहीं था। महावीर, बुद्ध आदि ने जो भी सत्य दिया वह वहुमत के आधार पर नहीं दिया। उस समय का बहुमत था कि जाति से आदमी ऊँचा होता है, जाति से ही नीचा होता है। महावीर ने कहा-जाति से आदमी ऊँचा-नीचा नहीं होता। वह ऊँचा-नीचा होता अपने कर्म से। बहुमत मानता था कि युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में चला जाता है_ 'जिते च प्राप्यते लक्ष्मीः, मृते चापि सुरांगना। क्षणभंगुरको देहः, का चिन्ता मरणे रणे॥' __इसके विपरीत महावीर ने कहा-युद्ध करना और युद्ध में मरना महान् हिंसा है। यह असत्कर्म है, नरक ले जाने वाला कर्म है। उस समय बहुमत था पदार्थासक्ति का। कृष्ण ने कहा-अनासक्त बनो। अनासक्त होना ही परमार्थ है। अनासक्ति की बात क्या बहमत की बात थी ? नहीं। अकेले कृष्ण ने इसका घोप किया। बहुमत पदार्थ की ओर दौड़ता है। परमार्थ या सत्य की ओर जाने का बहुमत नहीं होता। कुछेक व्यक्ति ही सचाई तक पहुँचते हैं ओर सत्य का प्रतिपादन करते हैं। वहुमत ऐसा नहीं होता। अर्थ-व्यवस्था में भी बहुमत की बात आ गई। वहुमत क्या चाहता है ? यह वास्तविकता नहीं है। यदि वास्तविकता पर ध्यान होता तो समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था दूसरे ही प्रकार की होती । गाँधी ने बहुत ठीक कहा-मैं बहुमत को नास्तिकता मानता हूँ। यह कट हो सकती है, पर है सत्य । जहाँ सत्य का प्रश्न है वहाँ बहुमतवाद व्यर्थ है। वहाँ उसकी वात होगी जो सत्य के निकट पहुँच गया। इसीलिए कहा गया--'महाजनो येन गतः स पन्था' । महान का अर्थ है-सत्यनिष्ठ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन ३५ व्यक्ति, महापुरुष। वह जिस रास्ते से गया है, वही मार्ग है। उसका चुनाव करो। हजार आदमी उसके विपरीत मार्ग पर चल सकते हैं, पर वह मार्ग नहीं बन सकता। मार्ग वही होता है, जिस पर सत्यनिष्ठ आदमी चल पड़ता है। आज अर्थ-व्यवस्था के तीन घटक माने जाते हैं-प्रतिस्पर्धा, प्रदर्शन और विकास । यह बहुमत मानता है, पर यह सचाई नहीं है। प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन की वात एक सीमा तक मान्य हो सकती है। क्योंकि आदमी समाज में जीता है। वह सामाजिक व्यक्ति है, वीतराग नहीं है। पर प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में हम इसके साथ विकास के अर्थ का परिष्कार, प्रतिस्पर्धा का परिष्कार और प्रदर्शन की मनोवृत्ति का परिष्कार-ये बातें जोड़ सकते हैं। तीनों के साथ परिष्कार की बात को जोड़ दें। प्रदर्शन को दर्शन बना दें। विकास के केन्द्र में चैतन्य हो और पदार्थ परिधि में रहे। यह विकास का परिष्कार हो जाएगा। साधनशुद्धि के विवेक के साथ प्रतिस्पर्धा होती है तो वह प्रतिस्पर्धा का परिष्कार है। प्रतिस्पर्धा के साथ साधनशुद्धि का विवेक, विकास के साथ केन्द्र में मनुष्य या चैतन्य की स्थापना और परिधि में पदार्थ तथा प्रदर्शन में दर्शन का योग यह है-परिवार की बात। प्रेक्षाध्यान का प्रयोजन है-वृत्तियों का परिष्कार। जब तक वृत्तियाँ नहीं सुधरती तब तक व्यवस्थाएँ नहीं सुधर सकतीं। पहले वृत्तियों का परिष्कार होना चाहिए, फिर व्यवस्थाएँ सुधर जाएँगी। क्योंकि जो परिष्कार करने वाला है, परिष्कर्ता है, उसके भीतर में है वृत्तियाँ और बाहर में है व्यवस्था । व्यवस्था आदमी के लिए है। यह सारा बाह्य वातावरण है। बाह्य परिस्थिति है। व्यवस्था बाह्य है और जो व्यवस्था करता है वह भी बाहरी साधनों से करता है। उसके भीतर में हैं वृत्तियाँ। ये वृत्तियाँ यदि परिष्कृत हो जाती हैं तो व्यवस्था भी परिष्कृत हो जाती है। वृत्तियाँ अपरिष्कृत रहें और व्यवस्था परिष्कृत हो जाए, यह सम्भव नहीं है। लोगों की शिकायत है कि जो सत्ता में आ रहे हैं वे अच्छे लोग नहीं हैं। सत्ता पर आने वाले इसी समाज से तो आते हैं जिस समाज में वृत्तियों का परिष्कार नहीं है। तो अपरिष्कृत वृत्तियों को लेकर जो भी आते हैं उनसे खतरा ही खतरा है। चाहे वे फिर शिक्षा के क्षेत्र में जाएँ, रक्षा के क्षेत्र में जाएँ या धर्म के क्षेत्र में जाएँ। आज धर्म को उन लोगों से बड़ा खतरा है जिन्होंने वृत्तियों का परिष्कार तो किया नहीं और धर्म की पीठ पर आकर बैठ गए। उन लोगों से सत्ता को भी खतरा है, जिन लोगों की वृत्तियाँ अपरिष्कृत हैं। मूल प्रश्न है वृत्तियों का परिष्कार। जैसे-जैसे वृत्तियों का परिष्कार होगा व्यवस्थाओं में अपने आप परिष्कार आएगा। व्यवस्थाओं को दोष देना व्यर्थ है। दोष देना चाहिए वृत्तियों को। वृत्तियाँ परिष्कृत होंगी तो Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र चिन्तन स्वस्थ होगा और चिन्तन स्वस्थ होगा तो व्यवस्था में परिष्कार आएगा। प्रश्न आता है कि एक ओर पदार्थ का विकास और उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है और दूसरी ओर अर्थशास्त्र और समाज-कल्याण के सम्बन्ध में परिवार नियोजन की बात कही जा रही है। क्या परिवार नियोजन की बात समाज के लिए कल्याणकारी है ? क्या यह आपकी चर्चा में फिट बैठ सकती है ? आवश्यकता बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओ, उपभोग करो और परिवार नियोजन भी करो-ये विरोधी बातें हैं। इसका तात्पर्य है कि चैतन्य को कम करो। उपभोक्ता को कम करो, पर उपभोग्य को बढ़ाओ। इस सम्बन्ध में एक बात छूट जाती है। पदार्थ का उत्पादन बढ़ाओ और आवश्यकता बढ़ाओ-यह एक बात हई। अब इसके साथ यदि 'इकोलॉजी' की एक बात और जुड़ जाती है कि पदार्थों का उपभोग कम करो-तो पूरी बात बन जाती है। 'इकोलॉजी' का सिद्धान्त है-'लिमिटेशन'-यानी उपभोग्य वस्तु की सीमा है, इसलिए उसे कम काम में लो। पदार्थ का उत्पादन बढ़ाओ पर स्वयं भोग मत करो। समस्या वहाँ उलझती है जहाँ सिद्धान्त बनता है कि पदार्थ को बढ़ाओ और उपभोग की भी वृद्धि करो। पदार्थों की वृद्धि से कोई हानि नहीं है। बुराई आती है, उपभोग में। इसे हमें स्पष्ट समझ लेना चाहिए। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा भगवान् महावीर ने प्रवृत्तियों के चार प्रकार बतलाए हैं १. आपात सुन्दर, परिणाम असुन्दर । २. आपात असुन्दर, परिणाम सुन्दर । ३. आपात सुन्दर, परिणाम सुन्दर । ४. आपात असुन्दर, परिणाम असुन्दर । कुछेक प्रवृत्तियाँ ऐसी होती हैं जिनका प्रारम्भ प्रिय और इष्ट होता है । पर उनका परिणाम अच्छा नहीं होता, प्रिय नहीं होता। कुछेक प्रवृत्तियों का प्रारम्भ असुन्दर होता है, अच्छा नहीं होता, पर उनका परिणाम अच्छा होता है, सरस होता है । कुछेक प्रवृत्तियों का प्रारम्भ प्रिय होता है और परिणाम भी प्रिय होता है कुछेक प्रवृत्तियों का न प्रारम्भ अच्छा होता है और न परिणाम कल्याणकारी होता है। ये चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं और इनके चार परिणाम हैं। I हम इनमें से चुनाव करें। जिनका प्रारम्भ भी इप्ट नहीं है और परिणाम भी इष्ट नहीं होता, व प्रवृत्तियाँ सर्वथा हेय होती हैं। जिनका प्रारम्भ भी अच्छा होता है और परिणाम भी अच्छा होता है, वे प्रवृत्तियाँ सर्वथा उपादेय होती हैं। दो विकल्प शेष रहते हैं । जिस प्रवृत्ति का प्रारम्भ सुन्दर होता है, पर परिणाम विरस होता है, वह भी करणीय नहीं होती। पर सामाजिक व्यक्ति उसे छोड़ नहीं सकता । इसे सर्वथा हेय नहीं कहा जा सकता। जो प्रवृत्ति प्रारम्भ में नीरस होती है, पर जिसका परिणाम सरस होता है, वह भी आचरणीय होती है। नीम खाने में कडुआ लगता है पर उसका परिणाम अच्छा होता है । हरड, वेहरड, आँवला, त्रिफला आदि स्वादिष्ट नहीं होते, पर परिणाम काल में वे लाभदायी होते हैं। चीनी खाने में मीठी होती है, अच्छी लगती है, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। इससे दाँत और आँत खराब होती है, अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं, तो आपात प्रिय होना एक बात है और परिणाम - प्रिय होना दूसरी बात है । जो समाज व्यवस्था प्रियता और आकर्षण के आधार पर चलती है वह प्रारम्भ में प्रिय लगती है, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं होता अन्ततः वह एक Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र खतरनाक मोड़ लेती है। जो समाज-व्यवस्था मनुष्य में इन्द्रिय लोलुपता बढ़ाती है, उसे अति आसक्त बनाती है, वह निश्चित ही खतरे में डालती है। उस स्थिति में व्यक्ति के सामने खतरनाक परिस्थितियाँ आती हैं और वह उनसे पराजित हो जाता है। ___ अब हम वार्तमानिक समाज-व्यवस्था पर विचार करें और देखें कि उसका आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण क्या है ? अर्थ का संग्रह करना सामाजिक सन्दर्भ में बुरा नहीं माना जा सकता पर आर्थिक विकास कैसे हो, यह माननीय विषय है। आज आर्थिक विकास का पहलू है कि नई-नई चीजें तैयार करना, उनका विज्ञापन करना, उनको पेटेण्ट बनाना और जनता का ध्यान आकर्षित करना। उन वस्तुओं को पेटेण्ट बनाने के पीछे दृष्टि यह रहती है कि अन्यान्य कम्पनियाँ उन वस्तुओं को तैयार न कर सकें, जिससे कि अर्थ का विनियोग एक ही स्थान पर हो। वे व्यक्ति वस्तुओं को पेटेण्ट बनाकर उनके मूल फार्मूलों को दुर्लभ बना देते हैं। फिर भाव तेज कर जनता को लूटते हैं। इसमें उनकी सारी दृष्टि आर्थिक रहती है। मानवीय दृष्टि का लोप हो जाता है। कम्पनी चाहती है कि प्रतिवर्ष आय बढ़े। फिर उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। विज्ञापन से आदमी आकर्षित होता है। उस आकर्षण के कारण वस्तु की प्राप्ति आवश्यकता बन जाती है। उसके बिना रहा नहीं जा सकता। उसे खरीदना ही पड़ता है। फिर मूल्य कितना ही क्यों न हो ? यह चक्र चलता है। इसका परिणाम कुछेक लोगों के लिए सुविधाजनक होता है, क्योंकि इससे बहुत पूँजी उनके हाथ लग जाती है, वे सम्पन्न हो जाते हैं। और दूसरे विपन्न अवस्था में ढकेल दिए जाते हैं। इस वस्तु-प्रतिबद्धता से आदतें बिगड़ती हैं, स्वास्थ्य बिगड़ता है और अनेक हानियाँ, जाने-अनजाने, उठानी पड़ती हैं। ___ एक प्रश्न और आता है कि आज का समाज जितनी वस्तुओं का उपभोग कर रहा है, क्या वे सारी आवश्यक हैं। आवश्यक और अनावश्यक का विवेक होना जरूरी है। उन्हीं पदार्थों का उपभोग होना चाहिए जो आवश्यक हों। अनावश्यक पदार्थ का उपभोग नहीं होना चाहिए। आज विज्ञापन और आकर्षण के इस युग में आवश्यक और अनावश्यक का विवेक समाप्त हो गया। जितनी अनावश्यक चीजों का इस्तेमाल होता है उतनी आवश्यक चीजों का इस्तेमाल नहीं होता। आवश्यक चीज गौण भी हो सकती है पर अनावश्यक चीज जरूरी बन जाती है। साम्यवादी देशों में प्रसाधन की सामग्री पर रोक है। प्रसाधन की सामग्री जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक नहीं होती। वे चाहते हैं कि जनता को प्राथमिक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा ३६ आवश्यकता की चीजें सुलभ होनी चाहिए। इस विचार के आधार पर अनावश्यक चीजें अपने आप छूट जाती हैं। जिस राष्ट्र में इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता, वहाँ करोड़ों, लाखों लोगों को प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती, या महँगी हो जाती हैं। और कुछेक व्यक्तियों को प्रसाधन की सामग्री इतनी प्रचुर मात्रा में मिलती है कि उनका सारा पैसा उसी में खर्च हो जाता है। इस स्थिति में समाज के सामने समस्या खड़ी हो जाती है। लगता है कि समाज जानबूझकर आँख-मिचौनी कर रहा है। गरीव राष्ट्र यदि प्रसाधन की सामग्री तथा साज-सज्जा की सामग्री जुटाने में व्यस्त रहता है तो भला लोगों को रोटी और कपड़ा कैसे सुलभ हो सकता है ? जनता इन प्राथमिक आवश्यकता की चीजों के लिए तड़पती रहती है और राष्ट्र कृत्रिम सुन्दरता के व्यामोह में फँसकर अनेक बुराइयों का घर बन जाता है। वह जान-बूझकर ही ऐसा करता है। एक अन्धा चौराहे पर भीख माँग रहा था। एक व्यक्ति ने उसके पात्र में अटन्नी डाली। अन्धा तत्काल बोला-अरे भाई ! यह नकली अटन्नी क्यों डाली ? वह व्यक्ति वोला-तुम तो अन्धे हो। कैसे पता लगा कि सिक्का नकली है ? वह वाला-मैं अन्धा नहीं हूँ। जो अन्धा प्रतिदिन यहाँ बैठता था वह आज सिनेमा देखने चला गया है। मैं उसके स्थान पर बैठा हूँ। जान-बूझकर आँखें मूंदी जा रही हैं। पहला भी आँखें मूंदकर बैठा था, दूसरा और तीसरा भी आँखें मूंदकर बैटा है। इस चक्र का कहीं अन्त नहीं है। इस समस्या का समाधान कैसे हो ? भगवान् महावीर ने हिंसा के विषय में विवेक देते हुए कहा--हिंसा के दो प्रकार हैं-अर्थहिंसा और अनर्थहिंसा। सामाजिक प्राणी अपने जीवन-यापन के लिए अर्थहिंसा करता है। वह इस प्रयोजन की हिंसा से बच नहीं सकता। क्योंकि उसे जीवन चलाना है। जीवन-यापन के लिए उसे खेती भी करनी पड़ती है, व्यापार और उद्योग भी करना पड़ता है, रसोई भी पकानी पड़ती है। वह इन सब प्रवृत्तियों से बच नहीं सकता। परन्तु वह अनर्थहिंसा से अवश्य बचे। अनर्थहिंसा जीवन-यापन के लिए आवश्यक नहीं होती। मनुष्य इससे वच सकता है। यह सुन्दर दृष्टिकोण है, सीमाकरण है। इसमें उच्छृखलता को कोई स्थान नहीं रहता और हिंसा का सीमाकरण हो जाता है। इसी प्रकार आवश्यक पदार्थों का उपभोग और अनावश्यक पदार्थों का त्याग-यह विवेक वहुत आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि आवश्यक क्या है और अनावश्यक क्या है ? यदि समाज में यह विवेक जाग्रत हो जाए कि अनावश्यक पदार्थों का उपभोग न हो, तो गरीवी की मात्रा में अन्तर आ सकता Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र हैं। तथा अनावश्यक पदार्थों की उत्पादक कम्पनियाँ और वितरित करने वाली दुकाने स्वतः बन्द हो जाएँगी। और तब केवल आवश्यकता का भान होगा और उस पर ही ध्यान केन्द्रित होगा। ऐसे बहुत सारे लोग हैं, पी वार हैं जिन्हें जीवन की अनिवार्य बातें-मकान, कपड़ा, भोजन और पढ़ाई प्राप्त नहीं है पर शराब, सिगरेट, गर्म और शीतल पेय-इनमें सारा पैसा खर्च हो जाता है। उनकी गरीबी कभी मिटती नहीं। जब तक समाज में यह चेतना जाग्रत नहीं की जाएगी कि प्राथमिकता आवश्यक चीजों को दी जाए और फिर पैसा बचे तो कुछेक अनावश्यक मानी जाने वाली वस्तुओं पर खर्च हो। जिस समाज में इन्द्रियलोलुपता पर कोई अंकुश नहीं होगा, वह समाज उत्तरोत्तर विनाश की ओर बढ़ेगा।। इन्द्रिय-संयम केवल संन्यासी और तपस्वी के लिए ही जरूरी नहीं है। एक सीमा तक यह पूरे समाज के लिए जरूरी है। यह शासक के लिए भी जरूरी है और शासित के लिए भी जरूरी है। जो व्यक्ति या परिवार इन्द्रिय-संयम का अभ्यास नहीं करता, उस परिवार में समस्याएँ पैदा होती हैं, लड़ाई-झगड़े होते हैं और इसी के कारण जाति, समाज और राष्ट्र में विप्लव होता है। इस दृष्टि से एक सीमा तक इन्द्रियों पर रोक लगाना, आसक्ति पर अंकुश लगाना बहुत आवश्यक है। अनासक्ति का सिद्धान्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका व्यावहारिक रूप बन सकता है अनावश्यक वस्तुओं के वर्जन से। किस व्यक्ति के मन में कितनी आसक्ति है उसकी पहचान नहीं की जा सकती। हर व्यक्ति अपने आपको अनासक्त मान सकता है। अनासक्ति की पहचान व्यवहार से की जा सकती है। जो व्यक्ति अनावश्यक वस्तुओं का उपभोग करता है वह आसक्त है और जो अनावश्यक वस्तुओं का उपभोग नहीं करता, उसके जीवन में अनासक्ति का सिद्धान्त उतरा है। आज आर्थिक विकास का आधार है-पदार्थ का उत्पादन, आर्थिक वस्तुओं का विज्ञापन और वितरण तथा मनुष्यों में अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षण एवं भूख पैदा करना। ये सारी बातें जीवन में अनेक समस्याएँ पैदा कर देती हैं। . आज उद्योग के क्षेत्र में एक नई समस्या आ रही है। और वह है जीन की समस्या। आज जीन के विकास के साथ-साथ एक नई टेक्निक का विकास हो रहा है। जीन इंजीनियरिंग की पूरी जानकारी मनुष्य ने हस्तगत कर ली है। अब इसके आधार पर नई चीजों का निर्माण कर कम्पनियाँ उन्हें पेटेण्ट कर लेंगी और उससे अपार धनराशि प्राप्त कर धनकुबेर बन जाएँगी। आर्थिक लाभ बहुत होगा पर लोगों के लिए समस्या हो जाएगी। आज अनेक वैज्ञानिक जीन के विकास के साथ-साथ जीन के प्रत्यारोपण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा की प्रक्रिया को जानकर भयभीत हो रहे हैं। वे जानते हैं कि इससे मनुष्य समाज अनेक मुसीबतों में फँस जाएगा। इन सब बातों से ऐसा लगता है कि मनुष्य का दृष्टिकोण केवल आर्थिक बन गया है। केद आर्थिक और आर्थिक । मानवीय दृष्टिकोण का मानो सर्वथा ही लोप हो गया है। मानव पर्दे के पीछे चला गया है। उस पर पूरा आवरण जैसा आ गया हैं। यह आवरण आध्यात्मिकता से ही दूर हो सकता है। आदमी चाहे कितना ही बड़ा वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या समाजशास्त्री हो जाए, यह पर्दा अन्तर्मुखता के बिना नहीं हटेगा । 1 एक साधक दीर्घकाल से साधना कर रहा था। उसे सिद्धि प्राप्त हो गई। शिष्यों को यह ज्ञात हुआ। उन्होंने पूछा- गुरुदेव ! आपकी साधना सिद्ध हो गई है । यह हमने सुना । आपको क्या प्राप्ति हुई ? गुरु ने कहा-प्राप्ति कुछ भी नहीं हुई। यह सुनकर शिष्य अवाक् रह गए। कुछ नहीं मिला तो फिर इतने वर्ष साधना क्यों की? शिष्य ने कहा- साधना से क्या हुआ ? साधक ने कहा- यह प्रश्न मौलिक है । साधना में मिलता कुछ भी नहीं है । उसमें होना होता है। मिलना और होना - ये दो बातें हैं । मिलना छोटी बात है । महत्त्वपूर्ण बात है - होना । होना हमारा अस्तित्व है। अस्तित्व की बात मौलिक है। मिलना गौण बात है। आज मिला, कल खो दिया । मिलने के साथ आनन्द और हर्ष होता है। खोने के साथ शोक होता है । हर्ष और शोक का एक युगल है। मिलने की बात सोचने का अर्थ है - खोने की बात सोचना। मिलने के सुख के साथ दुःख भी होता है ।। 1 महत्त्वपूर्ण प्रश्न था - क्या हुआ ? गुरु ने कहा- साधना से जो होना था वह हो गया । पर्दा हट गया। आवरण टूट गया। साक्षात्कार हो गया। जब तक आवरण नहीं हटता तब तक मोह छाया रहता है। आदमी में कितना ही बौद्धिक विकास हो जाए, आदमी कितना ही पण्डित और विद्वान् हो जाए, वह विद्या की कितनी ही शाखाओं में पारंगत क्यों न हो जाए, जब तक पर्दा नहीं हटता तब तक सत्य का साक्षात्कार नहीं होता । सत्य को खोजने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वह सामने है। पर दिखाई नहीं देता मूढ़ता के कारण। इन्द्रियों का असंयम, लोलुपता का अतिरेक, अनन्त आकांक्षा- इन सबके कारण आदमी सत्य को नहीं पकड़ पा रहा है। वह असन्तोष और तनाव से ग्रस्त होता जा रहा है 1 आज इस औद्योगिक युग की सबसे बड़ी देन है- असन्तोष । आदमी कहीं भी सन्तुष्ट नहीं है, मन में चैन नहीं है। पुराने जमाने में आदमी अपनी प्राप्त वस्तुओं से सन्तुष्ट था । वह इतना तनावग्रस्त नहीं था जितना आज का सभ्य आदमी है। आज का आदमी गोलियाँ खाकर नींद लेता है। नींद जीवन की ४१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ समाज-व्यवस्था के सूत्र अनिवार्य आवश्यकता है। पर नींद की गोलियाँ खाकर नींद ली जाए, यह आवश्यकता नहीं है। आदमी का असन्तोष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। उसके पास पैसा सीमित है। पर उसकी आकांक्षा असीमित है। उसके पास इतना पैसा नहीं है कि वह जो चाहे सो खरीद ले। यही असन्तोप का कारण है। आदमी मानता है कि घड़ी आवश्यक है। पर क्यों ? घड़ी तब आवश्यक हो सकती है जब कि आदमी में नियमितता है। आज समय की पाबन्दी कहाँ है ? फिर घड़ी को आवश्यक कैसे माना जा सकता है ? इस आकांक्षाबहुल युग में सन्ताप की बात ही प्राप्त नहीं होती। सभी असन्तोप का जीवन जी रहे हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं है। इन सारे सन्दर्भो में हम यदि सामाजिक समस्या और सामाजिक स्थिति तथा आर्थिक व्यवस्था का विश्लेपण करें तो ज्ञात होगा कि अध्यात्म के सूत्र को अपनाए बिना आदमी सुखी नहीं हो सकता। आर्थिक विकास के सूत्रों ने आदमी के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। प्रश्न होता है कि असन्तोष कैसे मिटे ? कायोत्सर्ग का मूल्य इसलिए है कि उससे तनाव मिटता है, पर उससे असन्तोष नहीं मिटता। आदमी पुनः तनाव से भर जाता है। इसलिए कायोत्सर्ग के साथ ही साथ पदार्थों के उपभोग पर नियन्त्रण करने से ही असन्तोष मिट सकता है। तनाव से छुटकारा पाने के लिए असन्तोष से छुटकारा पाना होगा। असन्तोष मिटे, सन्तोष आए। जो प्राप्त है उसमें सन्तोष करना सीखें। यह कहा जा सकता है कि सन्तोष पिछड़ेपन का द्योतक है। इससे आर्थिक विपन्नता आती है। एक सीमा तक हम इसे स्वीकार भी कर लें तो भी यह प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य केवल आर्थिक विकास के लिए ही है ? मनुष्य शान्ति से जीवन जीने के लिए है। यदि जीवन में शान्ति नहीं आई, केवल अर्थ का संचय हुआ तो उसका अर्थ ही क्या होगा ? केवल अर्थ के संचय से तनाव बढ़ेगा, अनेक बीमारियाँ होंगी और चिन्ता की चिता में निरन्तर झुलसता जाएगा ऐसी स्थिति में उसका अर्थ-संचय किस काम आएगा। बीमारियों के कारण न वह कुछ खा-पी सकेगा और न उसका उपयोग ही कर पाएगा। मूल बात है कि असन्तोष मिटे। जब असन्तोष मिटता है तब शारीरिक और मानसिक-दोनों स्वास्थ्य प्राप्त होते हैं और आदमी शान्ति से जीता है। इसलिए कायोत्सर्ग के साथ आवश्यक वस्तुओं के उपभोग पर भी नियन्त्रण आए। दोनों के योग से ही असन्तोष समाप्त हो सकता है और जीवन आनन्दमय बन सकता है। इसी प्रकार जब इन्द्रिय-संयम विकसित होता है तब इच्छाएँ कम होती हैं और सन्तोप स्वतः आता है। इससे अनासक्ति का विकास भी होता है। आदमी अनेक स्तरों पर जीता है। वह केवल शरीर के स्तर पर ही नहीं जीता, वह Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा मानसिक स्तर पर भी जीता है। इन सब स्तरों पर समाहित जीवन जीकर ही व्यक्ति सुखी हो सकता है। ___ हम एकांगी-दृष्टि से न सोचें। हम प्रत्येक बात को अनेकान्तदृष्टि से सोचें। हम मानसिक परिवर्तन की चेष्टा करें तो साथ ही साथ भौतिक स्तर पर भी संयम करना सीखें और विवेक की चेतना को जगाएँ। हम यह विवेक करना सीखें कि कितना काम में लेना है और कितना नहीं। नींद जीवन की आवश्यकता है, पर यह विवेक होना चाहिए कि नींद कितनी आवश्यक है। यदि आवश्यकता का ज्ञान नहीं होगा तो नींद भी खतरा पैदा कर देगी। वह स्वास्थ्य को बिगाड़ देगी। अधिक नींद अकालमृत्यु को निमन्त्रण है। अधिक नींद से आयु कम होती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि नींद में श्वास की संख्या बढ़ जाती है। अधिक श्वास आयु को घटाता है। अधिक जागने वाला लम्बा जीवन जीता है और अधिक सोने वाला थोड़ा जीवन जीता है। नींद में श्वास छोटा होता है। जाग्रत आदमी एक मिनट में १५-१८ श्वास लेता है तो वही नींद में २५-३० श्वास लेता है। नींद में खर्राटे भरने वाला ४०-५० श्वास लेने लग जाता है। जब श्वास छोटा होता है तब जीवनीशक्ति ज्यादा खर्च होती है। इससे आयुष्य कम होता है। नींद आवश्यक है, अधिक नींद अनावश्यक है। यह विवेक बहुत जरूरी है। सभी प्रवृत्तियों में विवेक जरूरी है। भोजन आवश्यक है, पानी और दूध भी आवश्यक है। पर उनकी भी एक सीमा है। सीमातिरेक होने पर वे सब हानिकारक सिद्ध होते हैं। ज्यादा मात्रा में भोजन करना, पानी पीना, दूध पीना या नींद लेना ये सब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। मात्रा में ये सब चीजें स्वास्थ्यप्रद होती हैं। प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ आवश्यक और अनावश्यक का विवेक जुड़ा हुआ है। हमारी विवेक चेतना जागे। यह होने पर ही ध्यान, कायोत्सर्ग, शरीर प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा के प्रयोग सार्थक होंगे, अन्यथा क्षणिक लाभ ही होगा। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व हमारे अस्तित्व के लिए किसी भी सन्दर्भ की जरूरत नहीं है। यह शाश्वत है, त्रैकालिक है, स्वतन्त्र है। उसके होने में किसी की अपेक्षा नहीं हैं। केवल होना, केवल है और कुछ नहीं चाहिए। उसके होने में न देश की अपेक्षा है, न काल की अपेक्षा है और न परिस्थिति की अपेक्षा है। वह देशातीत, कालातीत और परिस्थिति से अतीत है। ___दूसरा पहलू है-व्यक्तित्व। यह देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष होता है। यह सन्दर्भ से जुड़ा हुआ होता है। मनुष्य का व्यक्तित्व है और उसका एक सम्दर्भ है समाज। समाज के सन्दर्भ में उसका व्यक्तित्व बनता है सामाजिक । अर्थ के सन्दर्भ में उसका व्यक्तित्व बनता है आर्थिक, राजनीति के सन्दर्भ में राजनैतिक और अध्यात्म के सन्दर्भ में आध्यात्मिक बनता है। उसके व्यक्तित्व के चार आयाम हो गए १. सामाजिक व्यक्तित्व २. राजनैतिक व्यक्तित्व ३. आर्थिक व्यक्तित्व और ४. आध्यात्मिक व्यक्तित्व व्यक्तित्व का यह वर्गीकरण बहुत स्पष्ट है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में जीता है, इसलिए सामाजिक होना स्वाभाविक है। समाज के सन्दर्भ को छोड़कर कोई भी व्यक्ति अकेला जी नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति हिमालय की कन्दरा में बैठ जाए तो भी वह समाज के साथ ही जीता है। जो कुछ आ रहा है वह समाज से आ रहा है। इसलिए सामाजिक व्यक्तित्व एक सहज बात है। सामाजिक व्यक्तित्व के साथ एक समस्या जुड़ी हुई है और वह है-स्वार्थ। स्वार्थ सामाजिक व्यक्तित्व है। उसके साथ सत्ता भी जुड़ी हुई है। यद्यपि समाज का अर्थ है स्वार्थ का विस्तार, स्वार्थ का विलीनीकरण। आदमी अकेला नहीं है। वह समाज के अनेक लोगों के साथ जी रहा है। वह समाज में जी रहा है और व्यक्ति की सीमा को जानकर जी रहा है। इसलिए सामाजिकता और Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ४५ वैयक्तिकता को सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता। समाज की अपेक्षा है स्वार्थ का विस्तार और व्यक्ति की वैयक्तिकता की सीमा है-स्वार्थ का सम्पोषण और संवर्धन । इन दोनों में विरोध है इसलिए सामाजिक व्यक्तित्व भी संघर्ष से मुक्त नहीं है। एक ओर स्वार्थ-त्याग की अपेक्षा है तो दूसरी ओर स्वार्थ-सम्पोषण की बाध्यता है। यह है सामाजिक व्यक्तित्व का विरोधाभास । सामाजिक जीवन में इससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। _दूसरा है-आर्थिक व्यक्तित्व । व्यक्ति अपने जीवन की सारी आवश्यकताएँ अर्थ के माध्यम से पूरी करता है। रोटी और पानी से लेकर जीवन की सारी आवश्यकताएँ अर्थ के माध्यम से पूरी होती हैं, इसलिए अर्थ को छोड़ा नहीं जा सकता। अर्थ एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ है। आर्थिक व्यक्तित्व की भी कुछेक मर्यादाएँ हैं। अर्थ-व्यवस्था में यह मान्य सूत्र है कि कुछेक व्यक्तियों को या एक व्यक्ति को अनधिकृत अर्थ का संग्रह नहीं करना चाहिए। यह मर्यादा आज की नहीं, पुरानी है। हजारों-हजारों वर्ष पहले की मर्यादा है। यह कोई साम्यवाद की उपज नहीं है। स्मृति-ग्रन्थों में कहा गया है 'यावद् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योभिमन्येत, स स्तेनो वधमहंत ॥' इसका तात्पर्य है कि पेट भरने के लिए जितना धन आवश्यक होता है, उस पर व्यक्ति का अधिकार है, वह उसका स्वत्व है। जो अधिक को अपना मानता है, अपना स्वत्व या सम्पत्ति मानता है, उस पर वैयक्तिक अधिकार मानता है, वह चोर है। वह वध के योग्य है। यह हजारों वर्ष पहले की मर्यादा है, नई नहीं है। इसका फलित है कि व्यक्ति के पास अधिक सम्पत्ति नहीं होनी चाहिए। व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होनी चाहिए। यह सीमा बहुत छोटी लगती है। इस पर आश्चर्य भी होता है। आज की साम्यवादी व्यवस्था में भी सम्पत्ति का इतना अल्पीकरण नहीं है। यद्यपि साम्यवादी व्यवस्था में अगली पीढ़ी को सम्पत्ति का अधिकार नहीं मिलता, फिर भी उसमें सम्पत्ति की सीमा इससे कुछ अधिक है। पर स्मृतिकार ने यहाँ तक लिख दिया कि पेट भरने के लिए जितना चाहिए, उससे ज्यादा रखना चोरी है। ___ अर्थ के विपय में समय-समय पर अनेक मर्यादाएँ वनी हैं, आज भी बन रही हैं। यह नहीं कि जिस व्यक्ति में व्यावसायिक बुद्धि है, वह जितना चाहे उतना । एकत्रित करे और जितना चाहे उतना भोग करे। आर्थिक व्यक्तित्व भी विरोधाभासों से भरा पड़ा है। इस क्षेत्र में भी वैपम्य की बहुलता है। इतना वैषम्य कि एक ओर ढेर है तो दूसरी ओर गढ़ा है। जव गढ़ा होता है तभी ढेर बनता है। जब ढेर होता Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र है तब गढ़े का होना अनिवार्यता है। इस प्रकार आर्थिक व्यक्तित्व भी विरोधाभासों से मुक्त नहीं है। आज आदमी के विचार में विरोधाभास है, कार्य में विरोधाभास है और वह श्वास भी विरोधाभास की ले रहा है। इसलिए उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में विरोधाभास है। एक बीमार डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने उसका परीक्षण किया और गोलियाँ दीं। रोगी ने पूछा-कैसे लूँ गोलियों को ? डॉक्टर बोला-दो गोलियाँ सोने के बाद ले लेना और दो गोलियाँ उठने से पहले ले लेना। कितना विरोधाभास। सोने के बाद दो गोलियाँ कैसे लेगा और उठने से पहले दो गोलियाँ कैसे लेगा ? जब समाज व्यवस्था में विरोधाभास है, अर्थ-व्यवस्था में विरोधाभास है तब फिर चिन्तन में, विचार में, और वाणी में विरोधाभास कैसे नहीं होगा ? पूरी व्यवस्था में ही विरोधाभास का बोलबाला है। तीसरा सन्दर्भ है-राजनीति का। राजनैतिक व्यक्ति राजनीति को छोड़कर जी नहीं सकता। क्योंकि जीवन पर राजनीति का सबसे ज्यादा नियन्त्रण है। और यह इसलिए कि अर्थ क्रा और समाज का नियमन भी उसके हाथ में है। इसमें भी विरोधाभास है। यहाँ सत्ता और अधिकार का संघर्ष है, कुसी का संघर्ष है। इस संघर्ष को समझाने के लिए व्यंग्य लिखा गया एक जहाज जा रहा था। समुद्र में तुफान आया। जहाज डगमगाने लगा। जानकार व्यक्तियों ने कहा कि यह तूफान नहीं है। नीचे कोई विशाल मगरमच्छ है, जिसके कारण पानी कुलबुला रहा है और यही तूफान का रूप धारण कर रहा है। सोचा-क्या मगरमच्छ को मार डाला जाए। मगरमच्छ दिखाई दिया। उसका मुँह खुला था। उसमें जहाज से अनेक वस्तुएँ डाली गईं। एक कुर्सी भी डाल दी गई। अब आदमियों को डालना प्रारम्भ किया, जिससे कि एक-दो-चार की वलि से शेष बच जाएँ। दो अधिकारी भी यात्रा कर रहे थे। उनको मगरमच्छ के मुँह में डाल दिया गया। मगरमच्छ शान्त हुआ। मल्लाहों ने उसे पकड़ा और जहाज में लाद दिया। उसके पेट को चीरा तो देखा कि दोनों अधिकारी कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं। कुर्सी एक और अधिकारी दो थे। दोनों कुर्सी पर अपना-अपना अधिकार बता रहे थे। लोगों ने देखा कि मौत के मुंह में भी लड़ाई जारी है। सत्ता और कुर्सी का प्रलोभन सबसे बड़ा होता है। उसके लिए संघर्ष होना स्वाभाविक है। चौथा सन्दर्भ है-आध्यात्मिकता का। यह तीनों व्यक्तित्वों का समीकरण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ४७ है। इसमें स्वार्थ और विषमता का संयम घटित होता है। इसमें विषमता के स्थान पर समता प्रतिष्ठित होती है और स्वार्थ के स्थान पर त्याग आ जाता है। मैत्री का विकास होता है। पोषणशास्त्र का नियम है कि सन्तुलित भोजन के बिना स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। कोई व्यक्ति केवल अन्न ही खाए, केवल दूध ही पीए, केवल घी ही खाए तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। क्योंकि इनसे एक-एक तत्त्व की ही पूर्ति होती है। स्वास्थ्य के लिए अनेक तत्त्वों की आवश्यकता रहती है। केवल श्वेतसार या कार्बोहाइड्रेट से काम नहीं चलता। सन्तुलित भोजन वह होता है जिसमें शरीर के लिए आवश्यक सभी तत्त्व मिलते हों। शरीर की पुष्टि के लिए श्वेतसार भी चाहिए, क्षार और लवण भी चाहिए, चिकनाई और विटामिन्स भी चाहिए। ये सब होते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है। इसी प्रकार सामाजिक प्राणी के लिए सामाजिकता, आर्थिकता, राजनैतिकता और आध्यात्मिकता-इन सबकी आवश्यकता रहती है। इन सबके सन्दर्भ में ही जीवन सन्तुलित रहता है। इनसे ही जीवन की सारी प्रक्रिया में सन्तुलन बना रहता है। एक की भी कमी जीवन में कमी ला देती है। यदि सामाजिक प्राणी केवल आध्यात्मिक जीवन जीने का प्रयत्न करेगा तो उसका जीवन असन्तुलित हो जाएगा। यदि वह सोचे कि मुझे समाज से क्या लेना-देना है तो उसकी भूल होगी। उसका सन्तुलन गड़बड़ा जाएगा। प्राचीन काल में अर्थव्यवस्था सामुदायिक थी और आज वह वैयक्तिक है। आदिकाल में लोग मिल-जुलकर धन्धा करते थे, मिलकर आजीविका चलाते थे। वे धन्धे ही ऐसे थे। जैसे खेती अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता। एक कवि ने कहा है-ध्यान एकाकी करे। अध्ययन में दो साथ रहें। गायन में तीन रहें। यात्रा में चार और खेती में पाँच साथ रहें। तो प्राचीनकाल में खेती आदि के कुछ ऐसे कार्य थे, जिनमें अनेक लोग साथ-साथ काम करते थे। आज अकेला आदमी बड़े धन्धे पर स्वामित्व रखता है और इतना कमा लेता है कि उसे समाज की अपेक्षा नहीं रहती। आज आर्थिक क्षेत्र में वैयक्तिकता आ गई। वे वातें तो समाजवाद की करते हैं, पर व्यक्तिगत सम्पत्ति पर उनका बड़ा अधिकार है। यह आज की समस्या है। इसलिए आज नया चिन्तन उभर रहा है कि सामदायिक नैतिकता के स्थान पर वैयक्तिक नैतिकता की बहुत जरूरत है। जो आर्थिक सम्पन्नता के कारण समाज की अपेक्षा नहीं रखते उनके लिए वैयक्तिक नैतिकता आवश्यक है। आज आर्थिक सम्पन्नता के कारण आदमी समाज से कटा हुआ है, परिवार से कटा हुआ है। अर्थ की यह विपरीत प्रकृति है। जब आदमी सुखी होता है तव सबसे कटता चला जाता है। जब वह दुःखी होता है तो सबसे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र जुड़ता चला जाता है। दुःखी आदमी को दूसरा कोई न कोई चाहिए, जिससे कि वह अपना दुःखड़ा सुना सके, कम कर सके। आदमी दुःख को बाँटना चाहता है और सुख को अकेले ही बटोरना चाहता है । धन आदमी को अन्धा बना डालता है। धनी व्यक्ति अपने पुराने मित्रों को भी नहीं पहचान पाता। वह केवल धनी या धन को पहचानता है और किसी को भी नहीं । ४८ ..एक गाँव में दो मित्र रहते थे। दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी । एक मित्र गाँव को छोड़कर शहर में चला गया । भाग्य ने साथ दिया और उसने अपार धन कमा लिया। गाँव वाला वैसा का वैसा रह गया। कुछ काल बीता। गाँव वाले मित्र के मन में मित्र से मिलने की इच्छा जागी। वह चला। शहर में पहुँचा और पूछता- पूछता मित्र की कोठी पर गया। प्रहरी ने सूचना दी, एक व्यक्ति गाँव से आया है और वह अपने आपको आपका परम मित्र बता रहा है। वह आपसे मिलने के लिए बड़ा उत्सुक है। धनी मित्र ने कहा- अभी नहीं । दो-तीन बार ऐसा ही हुआ। दो घण्टा बीत गया। चौथी बार वह गरीब मित्र के सामने आया । धनी मित्र ने उसे देखा अनदेखा कर डाला। गरीब मित्र ने अपना परिचय दिया । धनी बोला-कौन हो तुम ? मैं नहीं जानता । तुम गलत स्थान पर आ गए हो । गरीब मित्र धनी मित्र की बातें सुनकर अवाक् रह गया। उसने सोचा- कितनी घनिष्ठ मित्रता थी । और आज यह मुझे मित्र कहने में भी सकुचा रहा है। वह बोला- मित्र ! मैं तुमसे केवल मिलने आया था, माँगने नहीं । मैंने सुना था कि मेरा मित्र अन्धा हो गया है, इसलिए में देखने आया था कि वास्तव में वह अन्धा हो गया है या नहीं । यहाँ आने पर मुझे विश्वास हो गया है कि मेरा मित्र बिलकुल अन्धा हो गया है। अब मैं जा रहा हूँ । इस अन्धेपन का कोई इलाज नहीं है 1 संस्कृत कवि ने एक श्लोक में कहा है 'नैव पश्यति जन्मान्धो, कामान्धो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्त, अर्थी दोषान् न पश्यति ॥' चार प्रकार के अन्धे होते हैं-जन्मान्ध, कामान्ध, मदोन्मत्त और स्वार्थी । जन्मान्ध व्यक्ति कभी देखता नहीं । उसकी विवशता है। जन्म से अन्धा है । इसी प्रकार जब व्यक्ति काम से अन्धा होता है, उस समय उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता । यह दूसरी अन्धता है। तीसरी अन्धता है मदोन्मत्तता । मदोन्मत्त व्यक्ति की आँखें ऊँची चढ़ी रहती हैं। वह कुछ भी नहीं देख पाता। व्यक्ति चाहे जाति के मद से उन्मत्त हो, सम्पत्ति के मद से उन्मत्त हो, विद्या अहंकार के मद से उन्मत्त हो, वह उन्मत्त व्यक्ति नहीं देख पाता। चौथी अन्धता है-स्वार्थपरायणता । स्वार्थी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ४६ आदमी दोषों को नहीं देख पाता। जिसमें स्वार्थ प्रबल हो जाता है, वह अपने स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देख पाता। समाज की प्रकृति है-स्वार्थ का सीमाकरण । इसी के आधार पर समाज का निर्माण होता है। जहाँ स्वार्थ का सीमाकरण नहीं होता वहाँ वास्तव में समाज वनता ही नहीं। और यदि बनता है तो उसमें अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं। जब आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास होता है तब दूसरे सारे व्यक्तित्व पवित्र वन जाते हैं। केवल आर्थिक व्यक्तित्व, केवल सामाजिक व्यक्तित्व या राजनैतिक व्यक्तित्व से समाज ठीक चल नहीं सकता। तीनों जीवन के अभिन्न अंग हैं। पर जब चौथे व्यक्तित्व-आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास होता है तब तीनों सन्तुलित रहते हैं। आज सबसे बड़ी समस्या यही है कि एक व्यक्तित्व पर ज्यादा भार लाद दिया जाता है और शेष व्यक्तित्वों की उपेक्षा की जाती है। आज तीनों व्यक्तित्वों पर बहुत भार लाद दिया गया है। इतना भार कि वे बेचारे सहन ही नहीं कर पा रहे हैं। चौथा व्यक्तित्व उपेक्षित पड़ा है। यह अनुभव ही नहीं हो पा रहा है कि उसकी भी कोई आवश्यकता है। जब तब आध्यात्मिक व्यक्तित्व की बात नहीं जुड़ती तब तक तीनों व्यक्तित्व सदोप बन जाते हैं, तीनों की मर्यादाएँ लड़खड़ा जाती हैं। कुछ ऐसा ही हो रहा है। प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग न सामाजिक है, न आर्थिक है और न राजनैतिक। यह आध्यात्मिक प्रयोग है। आदमी तीन व्यक्तित्वों में, आयामों में जी रहा है। यदि चौथा आयाम खुल जाए तो कितना कल्याण हो सकता है ? जैसे विज्ञान के चौथे आयाम-देश-कालातीत आयाम से सारी अवधारणाओं में परिवर्तन हो गया, वैसे ही इस चौथे आयाम-आध्यात्मिक आयाम से व्यक्तित्व का पूरा निर्माण हो सकता है, तीनों व्यक्तित्व परिष्कृत हो सकते हैं और जीवन की नई दिशा उद्घाटित हो सकती है। प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग भीतर जाने का प्रयोग है, अध्यात्म का प्रयोग है। जब व्यक्ति अपने भीतर देखना शुरू करता है तब देखने का एक नया आयाम खुलता है। हम प्रकाश को देखते हैं, सूरज और चाँद को देखते हैं। दीए और बिजली को देखते हैं। ये सब बाहर के प्रकाश हैं। हमने भीतर के प्रकाश को नहीं देखा। जब हम ध्यान का प्रयोग कर भीतर की गहराइयों में उतरते हैं तब ऐसा अनुभव होता है कि प्रकाश बाहर ही नहीं है, भीतर भी प्रकाश का अजस्र स्रोत है। इन्द्रधनुष को देखा है, सतरंगी दुनिया को देखा है। जब हम लेश्या ध्यान का प्रयोग करते हैं तो लगता है कि सारे रंग भीतर भी हैं, इन्द्रधनुष भी है और सतरंगी दुनिया भी है। लेश्या-ध्यान के साधक ने कहा-ध्यान किया और तीनों रंग उभर आए। हरा, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० समाज-व्यवस्था के सूत्र नीला और अरुण-तीनों रंग आ गए, ये रंग आकाश से नहीं, भीतर से आते हैं। जब अभ्यास गहरा होता है तब-तब ऐसे चमकीले रंग दिखाई देते हैं जो वाहरी दुनिया में है ही नहीं। इसी प्रकार भीतर की सुगन्ध जब उभरती है तव बाहर की सारी सुगन्धे फीकी पड़ जाती हैं। नासाग्र पर ध्यान करते हुए जब अपनी श्वास की गंध का अनुभव होता है तब ऐसा लगता है कि ऐसी गंध सामने कभी नहीं आई। जैसे-जैसे भीतर का अनुभव जागता है, वैसे-वैसे बाहर का आकर्षण कम होता जाता है। सामान्यतः सत्ता का आकर्षण, धन का आकर्षण, परिवार का आकर्षण नहीं छूटता, किन्तु जब भीतर का आयाम खुलता है तब परिवर्तन सहज सुलभ हो जाता है। विना उपदेश या प्रयत्न के परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है, दिशा बदल जाती है। आकर्षण बदलते ही दिशा बदल जाती है। हम एक गंतव्य की ओर चलते हैं तब जहाँ से चलते हैं, वह शनैः शनैः दूर होता जाता है और गंतव्य निकट आता जाता है। जोधपुर से हम जयपुर की ओर चलते हैं। दस-बीस किलोमीटर चलते हैं तो जोधपुर पीछे होता जाता है, दूर होता जाता है और जयपुर निकट आता जाता है। यह दिशा-परिवर्तन के कारण होता है। जिसकी ओर अभिमुखता होती है वह निकट आ जाता है और जिसकी ओर पीठ होती है वह दूर होता जाता है। यह शाश्वत क्रम है। मुनि का एक विशेषण है-'संसार स्यूँ अपूठा, मोक्ष स्यूँ सामा'-अर्थात् मुनि संसार की ओर पीठ कर चलते हैं और उनकी अभिमुखता होती है मोक्ष की ओर। उनके लिए मोक्ष निकट होता जाता है और संसार दूर होता जाता है। सबसे बड़ी बात है आकर्षण का बदल जाना। जब तक हम बाहर ही बाहर देखते रहेंगे, भीतर देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे तब तक समाज में, अर्थ-व्यवस्था में और राजनीति में पलने वाले विरोधाभास समाप्त नहीं होंगे। उन विरोधाभासों में सामंजस्य स्थापित करने का एक मात्र उपाय है आध्यात्मिक विकास करना। किन्तु आज का आदमी इसे उपेक्षित कर रहा है। ___ मैंने चार प्रकार की अन्धता की बात कही। पाँचवीं अन्धता है-'पश्यत्रपि न पश्यति'-देखता हुआ भी नहीं देख पाता। यह योग-साधना की उत्कृष्ट उपलब्धि मानी जाती है। पर सामान्य पुरुषों के लिए यह अन्धता है। वे केवल बाहर देखते हैं और भीतर देखने के लिए वे अन्धे हैं। उनके पास भीतर देखने की आँख नहीं है। त्राटक दो प्रकार के होते हैं। एक त्राटक बाहर किया जाता है और दूसरा त्राटक भीतर किया जाता है। जब आदमी अपनी आँखों पर त्राटक करता है तब वह आँखों के भीतर देखना शुरू करता है, चाक्षुष केन्द्र में ध्यान का प्रयोग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ५१ करता है, वह देखता हुआ भी नहीं देखता। यह उपलब्धि है, साधना है। किन्तु जो मदोन्मत्त है, जो केवल वाह्य को देखता है, भीतर का स्पर्श नहीं करता, वह भी देखता हुआ नहीं देखता । यह उपलब्धि नहीं, अन्धता है। यह एक समस्या है। जब तक इसका समाधान सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर नहीं किया जाएगा तब तक समस्याएँ उलझती रहेंगी। जब तक यह मूल बात समझ में नहीं आएगी, परिवर्तन नहीं होगा। जब आन्तरिक चेतना जाग जाती है। तव सारी व्यवस्थाएँ ठीक चलती हैं। यह न मानें कि आन्तरिक चेतना के जागरण से कंवल आन्तरिक लाभ ही होता है। ऐसा नहीं है। आन्तरिक शक्ति के सहारे सारी बाह्य प्रवृत्तियाँ भी सुचारु रूप से चलती हैं। यह आधारभूत नियम है। आज पूरा समाज इसे गाण करता जा रहा है और केवल फूल और पत्तों को सींचकर वगीचे को हरा-भरा रखना चाहता है । यह असम्भव है। मैं बाह्य प्रवृत्तियों को सर्वथा छोड़ने की बात नहीं करता । मेरा कहना है कि उसके साथ इस मूलभूत तथ्य को भी जोड़ दें। इसमें व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण निहित है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधाभासी जीवन प्रणाली वर्तमान का समाज औद्योगिक विकास का समाज है। पदार्थों का विकास हुआ है तो साथ ही साथ विषाक्तता और प्रदूषण का भी विकास हुआ है। आज जल भी दूषित है तो वायुमण्डल भी दूषित है। इस विकास के दु' में क्या कोई ध्यान की संगति है ? इस प्रश्न का तात्पर्य है कि ध्यान के लिए विशुद्ध वातावरण की आवश्यकता होती है। आज के इन औद्योगिक नगरों में शुद्ध वायुमण्डल की कल्पना ही बेकार है। नगर ही क्यों, पूरे वायुमण्डल में अणुधूली फैली हुई है। इस स्थिति में शुद्ध वायुमण्डल की कल्पना व्यर्थ है। आज सारी चीजें अशुद्ध हैं। ऐसी स्थिति में ध्यान, आसन और प्राणायाम करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता। क्योंकि प्राणायाम में अधिक से अधिक प्राणवायु ली जाती है। पर आज प्राणवायु अधिक जाती है या कार्बन-यह कहना कठिन है। . इस युग में पदार्थों की संख्या बढ़ी है। सुविधा की साधन-सामग्री में विकास हुआ है। विद्यालय और अस्पताल बढ़े हैं। तो साथ ही साथ अज्ञान और बीमारियों का भी विकास हुआ है। आज मच्छर भी दवा प्रतिरोधी बन गए हैं। जो दवाइयाँ मच्छरों का.सफाया कर डालती थीं, वे दवाइयाँ आज निरर्थक हो गई हैं। मच्छरों की नई सन्तति ने उनको बेकार कर डाला है। यह संसार विरोधाभासों का संसार है। इस संसार में एक बात कोई रहती नहीं। विरोधी बात ही यहाँ टिक पाती है। अनेकान्त सिद्धान्त के अनुसार विरोधी युगल ही वास्तविक है। विरोधी नहीं है तो एक का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसीलिए यह विरोधाभासों का जीवन, विरोधी जीवन प्रणाली चल रही है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यह जगत् ही स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रश्न होता है कि क्या इसमें सामंजस्य का कोई सूत्र खोजा जा सकता है। इसका उत्तर होगा, अवश्य खोजा जा सकता है। हमें विरोधों के बीच रहना है, जीना है। विरोध होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोरा रोग हो और दवा न हो, यह कभी नहीं होगा। केवल दवा हो और रोग न हो, यह भी कभी नहीं होगा। दोनों साथ-साथ चलेंगे। प्यास हो और पानी न हो, यह नहीं हो सकता। पानी हो और प्यास न हो, यह भी कभी नहीं हो सकता। प्यास भी है, पानी भी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधाभासी जीवन प्रणाली है। दोनों साथ-साथ चलेंगे। हमारे मूल्यों का सिद्धान्त विरोधों से ही निकलता है। वर्तमान में दर्शन की एक नई शाखा विकसित हुई है। प्राचीन काल में भी मूल्यों का सिद्धान्त था, आज वह बहुत विकसित हो गया है। पश्चिमी दर्शनो में मूल्यों के सिद्धान्त की काफी चर्चा है। प्रश्न होता है कि मूल्य किसे माना जाए ? इसकी अनेक परिभाषाएँ हुई हैं। जिससे इच्छा की पूर्ति हो उसे मूल्य माना जाए। इस परिभाषा के अनुसार पशुओं में भी अनेक मूल्य विकसित हुए हैं। वे भी अपनी इच्छा पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करते हैं। और उनकी इच्छा पूरी हो जाती है। भूख और प्यास की इच्छा होती है, काम की इच्छा होती है। इच्छा की पूर्ति और विलास की पूर्ति के आधार पर मूल्य के सिद्धान्त को स्थापित नहीं किया जा सकता। यह कोई मूल्य की परिभाषा नहीं बनती। मूल्य की एक परिभाषा यह की गई है कि जो उपयोगी है, वह मूल्य है। यह भी यथार्थ परिभाषा नहीं है। क्योंकि किसी के लिए कुछ उपयोगी होता है और किसी के कुछ। सबके लिए एक ही बात उपयोगी नहीं बनती। उपयोगिता का कोई निश्चय नहीं होता। अतः यह परिभाषा भी ठीक नहीं बनती। एक परिभाषा आर्थिक की गई है कि मूल्य वह होता है जिससे विकास हो सके। यह महत्त्वपूर्ण परिभाषा है। जिससे आत्मा का विकास होता है वह मूल्य है। हम विरोधों के बीच, विरोधाभासी जीवन प्रणाली के बीच का प्रयोग इसलिए करते हैं कि उसका मूल्य है। स्वतन्त्र मूल्य है। उससे विकास होता है, जीवन का और आत्मा का। तो क्या इन विरोधों और प्रदूषणों के बीच विकास की सम्भावना की जा सकती है ? निश्चित ही की जा सकती है। यहाँ हमें एक बात का अंकन करना है कि हम जो जी रहे हैं, क्या अन्न, पानी और प्राणवायु के आधार पर जी रहे हैं ? बहुत सूक्ष्मता से ध्यान दें। क्या हम अन्न के आधार पर जी रहे हैं ? क्या हम पानी के आधार पर जी रहे हैं ? क्या हम श्वास के आधार पर जी रहे हैं ? यदि इनके आधार पर जी रहे हैं तो क्या मरते समय अन्न नहीं मिला ? पानी नहीं मिला ? श्वास नहीं आया ? दवा नहीं मिली ? हम देखते हैं कि आदमी के प्राण-पखेरू उड़ रहे हैं और उसके चारों और आक्सीजन की नलियाँ लगी हुई हैं। ग्लूकोज दिया जा रहा है। दवाइयाँ पिलाई जा रही हैं और फिर भी आदमी मर जाता है। यदि भोजन, पानी, दवा, ऑक्सीजन, ग्लूकोज ही आदमी को जिला पाता तो आदमी कभी नहीं मरता। फिर प्रश्न यही है कि हम किस आधार पर जीते हैं ? हम जी रहे हैं अपनी प्राण-शक्ति के आधार पर। हमारा जीवन हे प्राण। प्राण है तो भोजन-पानी भी काम देता है। श्वास और दवा भी काम देती है। यदि प्राण नहीं है तो सब व्यर्थ हैं। ये सारी वाह्य वस्तुएँ प्राण को ही सहारा देने वाली हैं। मूलतः जिलाने वाली नहीं हैं। हमारा जीवन अन्न, पानी, श्वास या दवा नहीं है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र हेमारा जीवन है प्राण । हमारी जीवनी-शक्ति ही हमारा जीवन है। यह प्रथम है और शेष सारे द्वयम् हैं। प्राण है तो जीवन है। प्राण नहीं है तो जीवन नहीं है। फिर चाहे कितना ही अन्न-पानी मिले, दवा-ऑक्सीजन मिले, जीवन नहीं होता। जब यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है तब आदमी का ध्यान प्राण-शक्ति पर केन्द्रित हो जाता है। अन्यथा उसका ध्यान अच्छे अन्न, अच्छे पानी और अच्छी दवाइयाँ आदि-आदि में ही अटका रह जाता है। वह अपनी सारी शक्ति इनकी प्राप्ति में ही नियोजित कर देता है। और तब मूल बेचारा उपेक्षित ही रह जाता है। मूल है प्राण। उसकी उपेक्षा होने के कारण अन्यान्य साधन भी बेकार हो रहे हैं। ध्यान का प्रयोग प्राण-शक्ति को विकसित करने का प्रयोग है, प्राण-शक्ति को रोकने का प्रयोग है। ध्यान के द्वारा प्राणशक्ति का सम्यक् नियोजन किया जा सकता है, सही कामों में उसे लगाया जा सकता है और विवेक की चेतना जगाई जा सकती है। जब यह विवेक की चेतना जागती है तब प्राणशक्ति का अपव्यय रुक जाता है। आदमी नहीं जानता कि उसकी प्राण-शक्ति का कितना अपव्यय होता है। मन में बुरा विकल्प आता है, प्राण-शक्ति का वहुत क्षरण होता है। इन्द्रिय के असंयम से, अधिक बोलने से, अनिष्ट चिन्तन करने से, शरीर की चंचलता से, अत्यधिक कल्पना से प्राण-शक्ति का अत्यधिक व्यय होता है। ध्यान करने का अर्थ है-प्राण-शक्ति का संयम करना, प्राण-शक्ति का क्षरण करने वाली प्रवृत्तियों का संयम करना। ध्यान का प्रयोजन है-मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति में सन्तुलन स्थापित करना। आज का आदमी केवल प्रवृत्ति की बात सोचता है कि आज कितना श्रम किया ? कितना हुआ ? क्या हुआ ? वह निवृत्ति की बात नहीं सोचता। वह नहीं जानता कि प्रवृत्ति और निवृत्ति का जोड़ा है, श्रम और विश्राम का जोड़ा है। दोनों विरोधी हैं, पर इन विरोधाभासों से हटकर हम जीवन नहीं जी सकते। हमारी पूरी जीवन प्रणाली विरोधाभासों पर टिकी हुई है। श्रम के बिना जीवन नहीं चलता तो विश्राम के बिना भी जीवन नहीं चलता। हम मान लेते हैं कि हृदय धड़कता है इसलिए हम जी रहे हैं। चौबीस घण्टों में हृदय केवल आठ घण्टा धड़कता है और सोलह घण्टा विश्राम करता है। श्रम और विश्राम-दोनों चलते हैं। बल्कि आठ घण्टा श्रम और सोलह घण्टा विश्राम चलता है। मन चौबीस घण्टा स्मृति, चिन्तन या कल्पना में फंसा रहता है। ऐसी स्थिति में प्राण-शक्ति का अपव्यय कैसे नहीं होगा ? यदि हम मन को आठ घण्टा श्रम में लगाए रखें और सोलह धण्टा विश्राम दें, स्मृति, चिन्तन या कल्पना से मुक्त रखें तो हमारे लिए ध्यान करना कोई आवश्यक नहीं होगा। __ प्रदूषण के इस युग में जो व्यक्ति अपने रक्त को शुद्ध रखता है वह Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधाभासी जीवन प्रणाली शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का जीवन जी सकता है। भोजन से रक्त बनता है। आसन और व्यायाम से रक्त का अभिसरण होता है। श्वास से रक्त का शोधन होता है। तीनों बातें जुड़ी हुई हैं-रक्त का निर्माण, रक्त का अभिसरण और रक्त का शोधन । कहा जाता है-ब्रीथिंग इज प्यूरीफिकेशन-श्वास रक्त का शोधन कर उसे सभी दोषों से मुक्त करता है। जब श्वास दीर्घ नहीं होता है तो प्राणवायु पूरी भीतर नहीं जाती और यदि श्वास दीर्घ नहीं छोड़ते हैं तो पूरा कार्बन बाहर नहीं आता। रक्त की पूरी शुद्धि नहीं होती। जब रक्त शुद्ध होता है तो मन की प्रवृत्ति अपने आप कम होने लग जाती है। जब रक्त दूषित होता है तो मन में बुरे विचार आते हैं और मन का चक्का कभी बन्द नहीं होता। मानसिक प्रवृत्ति को कम करना उसकी निवृत्ति करना है। इसी प्रकार वाणी और काया की प्रवृत्ति को कम करना उसकी निवृत्ति करना है। प्रवृत्ति और निवृत्ति का सन्तुलन-यह है ध्यान का रहस्य। जिस व्यक्ति ने ध्यान करना नहीं सीखा, उसने सही ढंग से जीना नहीं सीखा। अच्छा जीवन वह होता है जहाँ प्राणशक्ति स्वस्थ होती है। ध्यान, आसन और प्राणायाम के बिना प्राणशक्ति स्वस्थ नहीं रह सकती। एक प्रश्न आता है कि प्रेक्षाध्यान के प्रयोगकाल में आसन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग, खाद्य संयम, आचाम्ल आदि तपस्याएँ कराई जाती हैं। इन सबका प्रयोजन क्या है ? इतने सारे क्यों ? केवल ध्यान और कायोत्सर्ग ही कराया जाता तो ठीक नहीं था क्या ?. हमारी प्रकृति विरोधाभासी है। एक से काम नहीं चलता, अनेक चाहिए। जैसे भोजन के साथ अनेक चीजों का होना अनिवार्य है, वैसे ही ध्यान के साथ भी अनेक चीजें चाहिए। एक से काम पूरा नहीं होता। ध्यान से पूर्व शोधन अपेक्षित होता है। जव तक शोधन की प्रक्रिया नहीं होती, तब तक ध्यान ठीक प्रकार से नहीं होता। तपस्याएँ शोधन के लिए कराई जाती हैं। मलों का निष्कासन आवश्यक होता है। उनके जमाव से अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। अतः उनकी शुद्धि के लिए अनेक साधन अपनाए जाते हैं। अपानवायु की शुद्धि पर विशेष ध्यान दिया जाता है। और इसके लिए भोजन की शुद्धि अपेक्षित होती है। स्वस्थ जीवन, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा शान्तिमय जीवन का पहला सूत्र है-अपान की शुद्धि। जिसका अपानवायु दूषित है उसके प्राणवायु में भी विकृति आने लगेगी। दूषित अपानवायु के कारण व्यक्ति कभी शान्त जीवन नहीं जी सकता। यद्यपि डॉक्टर इस तथ्य को नहीं मानते पर यह यथार्थ है। इस प्रदूषण को मिटाए बिना स्वास्थ्य की कल्पना नहीं की जा सकती। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र - हमारे शरीर में नाना प्रकार के विष जमा होते हैं । आ का मेडिकल साइंस और आयुर्वेद विज्ञान- दोनों इसमें सहमत हैं। हमारी धमनियों और शिराओं में, चूने जैसा एक विष जमा होता है। उसके जमा होने का नाम ही है बुढ़ापा, आलस्य । वह जैसे-जैसे जमा होता है, वैसे-वैसे रक्त के अभिसरण में अवरोध पैदा होता है । जब रक्त का सही संचार नहीं होता तब शरीर का अवयव रोगग्रस्त हो जाता है। आलस्य, प्रमाद, दर्द, अनुत्साह, बेचैनी - ये सब जमे हुए विष के कारण होते हैं। आसन और व्यायाम के कारण इस विष का निराकरण किया जाता है । आसन, व्यायाम आदि क्रियाओं से विष चू-चूकर मूत्र से, मल से, पसीने से बाहर निकल जाता है और तब रक्त का संचरण सहज हो जाता है। ५६ शरीर की स्थूलता या भारीपन को मिटाने के लिए प्राणायाम अचूक साधन है । 'प्राणायामात् लाघवं ' - प्राणायाम से हल्कापन आता है। अकड़न - जकड़न सब मिट जाती है। जो व्यक्ति केवल रेचन या भस्त्रिका का प्रयोग करता है वह अनुभव कर सकता है कि उसका शरीर कितना हल्का हो जाता है । इन सारी दृष्टियों से यह आवश्यक है कि ध्यान के प्रयोग के साथ-साथ अन्यान्य प्रयोग भी चले । इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है । प्राप्त प्रणाली की समग्रता बहुविध विकास के लिए बहुत आवश्यक है I 'ध्यानात् प्रत्यक्षमात्मनि' - ध्यान से सचाइयों का साक्षात्कार होता है। भीतर में जो कुछ हो रहा है, उसका पता चल जाना ध्यान का परिणाम है। एक है साक्षात्कार और एक है उस स्थिति में चले जाना जहाँ विचारों का प्रवाह बन्द हो जाए । यह है एकाग्रता । लम्बी एकाग्रता का नाम है समाधि और समाधि का परिणाम है- अनासक्ति का विकास । ध्यान के ये विभिन्न प्रयोग समग्रता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा का भी योग है। अनुप्रेक्षा है विकल्पात्मक, विचारात्मक । अनित्य अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा, अशरण अनुप्रेक्षा आदि-आदि अनुप्रेक्षाएँ बहुत मूल्यवान् हैं। इनके अनुशीलन से आदतं वदलती हैं। यदि बुरे स्वभाव को बदलना है और नये स्वभाव का निर्माण करना है, तो हमें एक विकल्प चुनना होगा । विकल्प वह होगा जो बुरे विकल्प को तोड़ सके ओर उसके स्थान पर अच्छे विकल्प को अभिरूढ़ कर सके। अच्छा विकल्प बुरे विकल्प को नष्ट कर देता है । प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा- दोनों के योग से एक समग्र प्रक्रिया बनती है। इस प्रक्रिया में विकल्प को भी स्थान है और निर्विकल्प को भी स्थान है। विचार और निर्विचार दोनों के लिए स्थान है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों स्वीकृत हैं। आसन, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधाभासी जीवन प्रणाली . ५७ प्राणायाम, व्यायाम आदि प्रवृत्ति है और ध्यान, कायोत्सर्ग आदि निवृत्ति है । यह है समग्र प्रयोग। प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग समग्र जीवन दर्शन है। इसमें आहार का विवेक, वाणी का विवेक, आसन का विवेक, प्रवृत्ति और निवृत्ति का विवेक है। इसके द्वारा जीवन की समग्र प्रवृत्तियों में आलोक की रश्मि उपलब्ध होती है। उससे पूरा जीवन आलोकित होता है। इसके अनुशीलन से ही शक्तिमय, आनन्दमय, चैतन्यमय और आलोकमय जीवन जीया जा सकता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना सामाजिक सम्बन्धों में तब तक परिष्कार सम्भव नहीं है जब तक सम्बन्धातीत चेतना न जाग जाए। एकान्तवादी होना या एकांगी होना हमें बहुत पसन्द है। अनेकान्त में हमारा विश्वास बहुत कम है। सर्वांगीण दृष्टि से देखना और पक्षमुक्त होकर देखना हमने सीखा ही नहीं। सत्य तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है-अनेकान्त । अनेकान्त का अर्थ है-पक्षातीत चेतना। वह किसी एक के प्रति नहीं झुकती। उससे (अनेकान्त से) तटस्थ रहकर सारे पक्षों को एक साथ समन्वित कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है। _ मनुष्य सम्बन्ध की अच्छाई के विषय में जानते हैं। बुराई को ओझल कर देते हैं। वे सम्बन्ध की बुराई के विषय में जानते हैं, अच्छाई को ओझल कर देते हैं। सम्बन्धों की अपनी अच्छाइयाँ हैं, उपयोगिता है तो उनकी खामियाँ और कमजोरियाँ भी हैं। दोनों बातें स्पष्ट और ज्ञात रहनी चाहिए। __ हमारा सबसे पहला सम्बन्ध रहता है-शरीर के साथ। 'शरीर मेरा है'. इसको कोई अस्वीकार नहीं करेगा। यदि इसे कोई अस्वीकार करता है तो वह बोलेगा कैसे ? खाएगा-पीएगा कैसे ? यह स्वीकार करना कि 'शरीर मेरा नहीं है', और फिर उससे सतत काम लेते रहना कौन-सी सचाई है। जो कहता है 'शरीर मेरा नहीं है' और सब कुछ शरीर से करता जाता है लोग उसे निरा मूर्ख ही मानेंगे। 'शरीर मेरा है'-यह बहुत स्पष्ट है। और 'शरीर मेरा नहीं है'-यह मात्र एक पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकृत है। जब व्यक्ति अनुप्रेक्षा और भेद-विज्ञान का प्रयोग करता है तब 'शरीर मेरा नहीं है'-इसे आलम्बन बनाता है। पर सामान्यतः शरीर के साथ हमारा जो सम्बन्ध है, उसे अस्वीकार नहीं कर सकते। शरीर मेरा है'-इसे मानना ही होगा। यह एक पक्षीय स्वीकृति उलझन में डाल देता है। हमने शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ लिया। अब शरीर जो नाच नचाता है वैसे ही नाचना पड़ता है। शरीर को 'मेरे' से कैसे अलग किया जाए ? बड़ी समस्या पैदा हो जाती है। सम्बन्धों की सारी समस्याएँ इसीलिए पैदा होती हैं कि हम दूसरे पक्षों को नहीं जानते । सम्बन्धातीत चेतना को नहीं जानते। एक सूत्र है-जिसके साथ हमारा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना सम्बन्ध है, उसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं भी है। अनेकान्त का सूत्र है-अस्ति और नास्ति, है भी और नहीं भी है। यदि हम केवल अस्ति को-है भी को ही स्वीकारेंगे तो उलझन पैदा हो जाएगी। साथ-साथ हमें यह भी स्वीकारना होगा कि नास्ति-नहीं भी है। शरीर मेरा है' और 'शरीर मेरा नहीं भी है। क्योंकि यह पचास वर्ष पहले बना ही नहीं था और पचास वर्ष बाद छूट जाने वाला है। इस स्थिति में वह मेरा कैसे रहा ? इस पहलू पर जब हम सोचते हैं तो आँखों के सामने दो सचाइयाँ तैरने लग जाती हैं। 'शरीर मेरा है'-यह भी सच है और शरीर मेरा नहीं है'-यह भी सच है। इन दोनों कोणों को एक साथ स्वीकारना ही अनेकान्त है, पारमार्थिक सत्य है और अध्यात्म की साधना है। मैं अनेकान्त और अध्यात्म की साधना को अलग नहीं मानता। आध्यात्मिक साधना से जिस दर्शन का विकास होता है, वह है अनेकान्त। आध्यात्मिक साधना के बिना अनेकान्त जीवन में फलित नहीं हो सकता। फिर तो व्यक्ति आग्रही बन जाएगा, एक ही बात को पकड़कर बैठ जाएगा। इस दुनिया में दो खेमे हैं। एक खेमा है भौतिकवाद का और दूसरा खेमा है अध्यात्मवाद का। भौतिकवाद का आग्रह है कि इस दुनिया में जो कुछ सार है, वह पदार्थ ही है। अध्यात्मवाद का आग्रह है कि जगत् में जो कुछ सार है, वह आत्मा ही है। दोनों एकांगी दृष्टिकोण हैं। कोई कितना ही अध्यात्मवादी हो, भौतिकता के बिना उसका काम नहीं चलेगा, पदार्थ के बिना उसका काम नहीं चलेगा। पदार्थ को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। आत्मा का एकान्त आग्रह भी जटिलता पैदा करता है। आज ही नहीं, प्राचीन काल में भी एक आग्रह पनपा था कि धर्म से सब कुछ हो जाता है। प्राचीन आचार्यों ने यहाँ तक लिख डाला प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः, किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्मकल्पद्रुमस्य ।। -धर्म कल्पवृक्ष है। उसके एक नहीं, अनेक फल हैं। विस्तृत साम्राज्य, मनोज्ञ स्त्री, अच्छे लड़के, सुस्वर, सुन्दर रूप, रसपूर्ण कविता बनाने की कला, चातुरी, मधुस्वर, आरोग्य, गुणों की समृद्धि, सज्जनता और सुबुद्धि कितना गिनाऊँ, ये सारी धर्म की परिणतियाँ हैं। एक ओर धर्म सिखाता है कि त्याग करो और दूसरी ओर साम्राज्य की प्राप्ति और भोग धर्म का फल है। एक ओर धर्म कहता है कि अनासक्त रहो, ब्रह्मचारी बनो और दूसरी ओर सुन्दर स्त्री का मिलना धर्म का फल है। कितना विरोधाभास ! Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६० समाज-व्यवस्था के सूत्र लड़का हो जाए तो धर्म का फल और लड़की हो जाए तो पाप का फल। कितनी विडम्बना ! पता ही नहीं चलता कि ये भ्रान्ति भरी लोक-मान्यताएँ कैसे चल पड़ती हैं। धार्मिक लोग किस प्रकार प्रवाह में बह जाते हैं ! धार्मिक लोग भी यह मान लेते हैं कि संसार में जो अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, वे सब धर्म के कारण ही होती हैं। बेचारा धर्म कहीं का नहीं रहा। क्या पदार्थ की उपलब्धि ही धर्म की परिणति है ? स्त्री की प्राप्ति भी धर्म से होती है और ब्रह्मचारी बनना भी धर्म से होता है। स्त्री-प्राप्ति और स्त्री-त्याग-दोनों धर्म से होते हैं। इससे अधिक और क्या बुद्धि-साध्य हो सकता है। ये सारी अत्युक्तियाँ हैं। धर्म से वही होगा, जो उससे हो सकता है। धर्म की प्रकृति है-त्याग और संयम । आचार्य भिक्षु ने धर्म की परिभाषा की-त्याग धर्म है और भोग अधर्म है। परिभाषा हो गई। कहीं जटिलता नहीं है। जीवन से जितना-जितना त्याग उतना-उतना धर्म और जितना-जितना भोग उतना-उतना अधर्म। गीता में अनासक्त-योग और निष्काम-कर्म का सुन्दर उपदेश है। किन्तु लोग उसका भी दुरुपयोग करते हैं। मैंने एक भाई से पूछा-अरे ! ऐसा काम तुम करते हो ? वह बोला-बिलकुल अनासक्त भाव से कर रहा हूँ। मेरा इसके साथ कोई लगाव नहीं है। यह है अनासक्त-योग का दुरुपयोग। वह नहीं जानता कि अनासक्त चेतना कब-कैसे जागती है ? गीता में अनासक्ति के जागरण के अनेक प्रयोग हैं। कोई उन प्रयोगों से गुजरता नहीं और सीधा अनासक्त बन जाता है। वह अपनी तीव्र आसक्ति की आड़ में अनासक्ति का उपयोग करता है। वह है धर्म की विडम्बना। धर्म की धारणा के बारे में परिष्कार की आवश्यकता है। धर्म से सब कुछ नहीं मिलता। धर्म से पदार्थ का योग नहीं होता। किन्तु पदार्थ का त्याग और पदार्थ का वियोग घटित होता है। जब धर्म और अध्यात्म की चेतना जागती है तब आदमी पदार्थ की भाषा में नहीं सोचता। वह परिग्रह और संग्रह की भाषा में नहीं सोचता। वह अपरिग्रह और अपदार्थ की भाषा में सोचेगा, त्याग की भाषा में सोचेगा। बहुत सारे लोग मरते दम तक पदार्थ की भाषा में ही सोचते हैं। __एक सेठ संन्यासी के पास गया। सेठ चालाक था। उसने अपनी होशियारी प्रदर्शित करने के लिए संन्यासी से कहा-महात्मन् ! आप तो जगह-जगह घूमते हैं। मेरे पास एक छड़ी है। आप उसे ले जाएँ और ऐसे व्यक्ति को दें जो महामूर्ख हो। संन्यासी ने छड़ी ले ली। पाँच-छह वर्ष बीत गए। एक दिन संन्यासी छड़ी लिए उसी सेठ के घर पहुँचा। उसने देखा कि सेठ मृत्युशय्या पर पड़ा है और कुछ ही समय का मेहमान है। फिर भी वह अपने लड़के से पूछ रहा है-बेटे ! उसके उधार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना ६१ के रुपये आए या नहीं ? अभी तेजी - मन्दी कैसे है ? तुमने माल बेचा या नहीं ? उसका ब्याज मत चुकाना ? सेठ इन्हीं बातों में उलझा जा रहा था । संन्यासी ने देखा । वह सेठ की शय्या पर पहुँचा। सेठ ने पहचानते हुए पूछा- महात्मन् ! आपने छड़ी दी नहीं । क्या कोई महामूर्ख नहीं मिला ? संन्यासी बोला- यह छड़ी अब मैं तुमको दे रहा हूँ, क्योंकि तुमसे बढ़कर मुझे कोई महामूर्ख नहीं मिला । सेठ बोला- मैं मूर्ख कैसे ? संन्यासी ने कहा- मरने जा रहे हो, मृत्युशय्या पर पड़े हो, न इष्ट का स्मरण कर रहे हो और न परमात्मा का भजन कर रहे हो । गोरखधन्धे में उलझ रहे हो। तुमसे बढ़कर मूर्ख इस दुनिया में कोई हो नहीं सकता। यह लो छड़ी। पदार्थ सम्बन्धी चेतना इतनी प्रगाढ़ बन गई है कि वह अन्तिम समय तक भी नहीं छूटती । मरते दम तक औषधि लेने की तमन्ना, जीवित रहने की तमन्ना बनी रहती है। वह जिजीविषा उसे सब कुछ करने को बाध्य करती है । जो व्यक्ति मरना सीख लेता है वह सम्बन्धातीत चेतना में चला जाता है। भगवान् महावीर ने जीने की कला बताई या नहीं, उन्होंने मरने की बहुत सुन्दर कला बतलाई है। जो व्यक्ति मृत्यु के प्रति सावधान होता है, अच्छी मौत से मरना चाहता है, वह अपने आप सुन्दर जीवन जीता है। जो मृत्यु की चिन्ता नहीं करता, जो पण्डितमरण या समाधिमरण की कामना नहीं करता उसका जीवन कभी शान्तिपूर्ण, समाधिपूर्ण नहीं हो सकता। जीवन और मरण- दोनों परस्पर गुँथे हुए हैं। इनको अलग-अलग काटकर हम देख नहीं सकते, व्याख्या नहीं कर सकते । हमारे जीवन का ऐसा कौन-सा क्षण है जो जीवन का क्षण है और मौत का क्षण नहीं है। आदमी जब से जन्मा तब से मरना प्रारम्भ कर दिया । इसे पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाता है - 'आवीचिमरण' । एक होता है- मारणान्तिक मरण । यह अन्तिम मृत्यु है । आवीचिमरण क्षण-क्षण में होने वाला मरण है । जीवन और मृत्यु का क्षण अलग नहीं है । चढ़ने और उतरने की सीढ़ियाँ दो नहीं होतीं। जिन सीढ़ियों से चढ़ा जाता है उन्हीं सीढ़ियों से उतरा जाता है। जिन सीढ़ियों से उतरा जाता है उन्हीं सीढ़ियों से चढ़ा जाता है। केवल आरोहण और अवरोहण का अन्तर है । जीवन और मरण में भी कोई अन्तर नहीं है। जीवन का एक सम्बन्ध है । इसके विषय में हमारी मूर्च्छा है। हम केवल सम्बन्ध को ही जानते हैं, विसम्बन्ध को नहीं जानते । शरीर, जीवन और पदार्थ के साथ सम्बन्ध हम जानते हैं । मेरी माँ, मेरे पिता - यह सम्बन्ध तो है ही । यदि इतना ही मानकर बैठ जाते हैं और सम्बन्धातीत चेतना को गौण कर देते हैं तो समस्या पैदा हो जाती है। यदि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र सम्बन्धातीत चेतना भी साथ-साथ विकसित हो कि 'यह मेरी माँ है' और 'मेरी माँ नहीं है', 'ये मेरे पिता हैं' और 'मेरे पिता नहीं हैं' तो समस्याएँ कम होंगी । सम्बन्ध की चेतना और सम्बन्धातीत चेतना- दोनों साथ-साथ चलनी चाहिए। तभी आदमी सुख और शान्ति से जी सकता है। जब केवल सम्बन्ध की चेतना ही रहती है तब पिता पुत्र को और पुत्र पिता को, भाई भाई को तथा पति पत्नी को और पत्नी पति को कष्ट देने में नहीं हिचकती। यहाँ तक कि एक-दूसरे को हत्या करने तथा दण्डित करने में भी हिचकिचाहट नहीं होता। पिता पुत्र को मार डालता है और पुत्र पिता को मार डालता है। भाई भाई की हत्या कर देता है । यह सब घटित होता है - सम्वन्धातीत चेतना को न जानने के कारण। इसलिए दोनों दृष्टियाँ स्पष्ट रहें कि मेरा पिता है और मेरा पिता नहीं है । यह अनेकान्तदृष्टि या सापेक्षदृष्टि रहती है और कोई अनुचित व्यवहार एक-दूसरे के प्रति हो जाता है तो कष्टदायी नहीं होता । वह व्यक्ति बौखलाता नहीं, क्योंकि वह जानता है कि इस दुनिया में ऐसा होना आश्चर्य नहीं है। यदि ऐसा व्यवहार न हो तो आश्चर्य हो सकता है । बात समाप्त हो जाती है। जब तक सम्बन्धातीत चेतना का विकास नहीं होता तब तक एक छोटी-सी बात पर भी भयंकर आवेश आ जाता है और आदमी बुरे से बुरा कार्य कर लेता है । ६२ आप अध्यात्म को व्यर्थ न समझें। यह अध्यात्म की चेतना जीवन की सफलता की चेतना है। इससे बोध मिलता है और सारे व्यवहार अच्छे बन जाते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं होता वह व्यक्ति सफल व्यवहार करने वाला भी नहीं होता, व्यवहार के क्षेत्र में भी वह पिछड़ जाता है । अध्यात्म बड़े से बड़ा बोधदाता है । बोध मिलने पर समाधान मिल जाता है। । सूत्र बम्बई के एक भाई ने आचार्य तुलसी से गुरु-दीक्षा ली। गुरु-दीक्षा का एक हैं- "मैं किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या नहीं करूँगा।” कुछ वर्ष बीते । ऐसी परिस्थिति आई कि वह व्यक्ति आत्म हत्या करने का निश्चय कर समुद्र पर चला गया। वह समुद्र में छलाँग लगाने वाला ही था कि गुरु-दीक्षा की स्मृति हो आई । 'मैं आत्महत्या नहीं करूँगा' - यह सूत्र उसके मस्तिष्क में चक्कर लगाने लगा । वह तत्काल वहाँ से लौटा। आवेश शान्त हो गया । परिस्थिति ने मोड़ लिया। वह मरने से बच गया। दो-तीन बार उसके सामने आत्महत्या की परिस्थिति आई और गुरु-दीक्षा ने उसे बचा लिया। उस सूत्र ने उसके लिए स्थिरीकरण का . काम किया। धर्मसंघ में 'स्थविर' की व्यवस्था होती है। स्थविर का काम होता है। संयम में अस्थिर होने वाले को पुनः स्थिर करना, पुनः संयममार्ग में आरूढ़ कर देना । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना ६३ एक कहानी है। सभी खरगोश एकत्रित हुए। उन्होंने सोचा - सभी लोग हमको सताते हैं । हम इधर से उधर और उधर से इधर भागते-फिरते हैं । यह भी कोई जीवन ? इससे तो अच्छा है कि हम पास वाले तालाव में जाएँ और डूबकर मर जाएँ। हमारा जीवन व्यर्थ है । वे सब तालाब के पास पहुँचे। उनके पदचाप सुनकर तालाब के किनारे बैठे हुए मेढक पानी में कूद गए। अब सभी खरगोश जल समाधि लेने की तैयारी करने लगे। उसी समय एक बूढ़े खरगोश ने कहा- देखो ! हमने पूरी बात नहीं सोची। हमने यही माना है कि हम सबसे छोटे प्राणी हैं और इसीलिए हमें जीने का अधिकार नहीं है। पर देखो, ये मेढक हमसे कितने छोटे हैं। ये भी जी रहे हैं। हम क्यों मरें ? आत्महत्या क्यों करें ? सबका निर्णय बदल गया, सभी दौड़ते-उछलते चले गए । खरगोशों को स्थविर मिल गया। बोधपाठ देने वाला, स्थिर करने वाला मिल गया और वे सब पूर्ववत् स्थिर हो गए। अध्यात्म स्थिरता लाने वाला महत्त्वपूर्ण बोधपाठ है । अध्यात्म का सूत्र है - सम्बन्धातीत चेतना का जागरण। अनगार का अर्थ है - वह व्यक्ति जो घर छोड़ चुका है अर्थात् साधु। इसका एक विशेषण है - संजोगा विप्पमुक्क- जो सभी संयोगों से मुक्त हो जाता है, सम्बन्धातीत चेतना जाग जाती है, वह होता है अनगार । संयोगमुक्ति का अर्थ है-सम्बन्धातीत चेतना का विकास। जब तक यह चेतना नहीं जागती तब तक संयोगों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, कोई अनगार नहीं बन सकता, घर का त्याग नहीं कर सकता । एक प्रश्न होता है कि इस युग में तृष्णा का बहुत विकास हुआ है। इसका उपचार क्या है ? तृष्णा की वृद्धि में आनुवंशिकता का बहुत बड़ा हाथ है। यह संस्कार विरासत से प्राप्त है। उसका प्रतिकार कैसे हो - यह चिन्तन का विषय बनता है । प्रतिकार का सूत्र है - सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना का समन्वय । दोनों का जागरण साथ-साथ हो । यदि केवल सम्बन्धों की चेतना ही जाग्रत होती है तो जीवन में धोखा और छलावा ही प्राप्त होता है । इसीलिए व्यक्ति को जितनी जरूरत होती है सामाजिकता और सामाजिक सम्बन्धों की, उतनी ही जरूरत है आध्यात्मिकता की, धार्मिक चेतना की और सम्वन्धातीत चेतना की । परन्तु आदमी एक पक्ष को गौण कर देता है और दूसरे पक्ष में आकंठ डूब जाता है। आदमी मानता है कि अभी धर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह जीवन.... के लिए अनिवार्य भी नहीं है। यह तो अवकाश में करने के लिए है। ऐसा सोचकर वह सामाजिक सम्बन्धों को, स्वार्थपूर्ण सम्बन्धों को प्राथमिकता देता है । इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए। धर्म बूढ़ों या निकम्मों का कर्म नहीं है । यह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र जीवन की अनिवार्यता है । यह मानसिक शान्ति और सफलता का सूत्र है। आदमी विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों के ताप से जल रहा है। उसे शान्ति की आवश्यकता है। उसकी प्राप्ति के लिए सम्बन्धातीत चेतना का अनुभव करना होगा। सम्बन्ध और सम्बन्धातीत या संयोगातीत चेतना-दोनों का सन्तुलित विकास होना चाहिए । सम्बन्ध केवलपदार्थ या परिवार के साथ ही नहीं होता; वह अपने भीतर के साथ भी होता है। आदमी का परिग्रह के साथ सम्बन्ध होता है । परिग्रह दो प्रकार का है - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का होता है । और आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ- ये सारे आभ्यन्तर परिग्रह हैं । इनके साथ आदमी सम्वन्ध बनाए बैठा है। इनके साथ इतना गहरा सम्बन्ध हो गया है कि वह अन्यान्य परिग्रहों को छोड़ सकता है पर इनको नहीं । इनके साथ गहरा सम्बन्ध है । यही सम्बन्ध फूट-फूटकर बाहर आता है। जब तक आन्तरिक सम्बन्ध - आन्तरिक परिग्रह और बाहर का सम्बन्ध - बाहर का परिग्रह-इन दोनों के विषय में सम्बन्धातीत चेतना का परिष्कार नहीं होता तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आदमी और सारी चिन्ताओं को छोड़कर सबसे पहले अपना समाधान खोजे। इसके लिए यही करना होगा कि भीतर के सम्वन्ध कम किए जाएँ, बाहर के सम्बन्ध भी कम किए जाएँ और सम्बन्ध से परे की चेतना को विकसित किया जाए। जहाँ 'मेरा है' - यह चेतना है तो 'मेरा नहीं है' - वास्तविक चेतना है। इन दोनों का समन्वय किया जाए तो बहुत बड़ा समाधान मिल सकता है इससे । समस्याएँ सुलझेंगी, मानसिक उलझनें कम होंगी. व्यवहार कुशल और मृदु बनेगा, कलह कम होंगे और 'न्यायालय शरणं गच्छामि' की बात छूट जाएगी । ६४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक चेतना और धर्म मछली पानी में जीती है। पानी के बिना उसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। व्यक्ति समाज में जीता है। समाज के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। भाषा, सभ्यता, संस्कृति आदि जितने भी विशिष्ट गुण हैं, वे समाज में पनपते हैं। यदि किसी व्यक्ति को समाज से सर्वथा अलग रखा जाए तो वह या तो रामू भेड़िया बनेगा या केवल मिट्टी का लोधा। वह और कुछ बन ही नहीं सकता। हमारे दो रूप हैं। एक है व्यक्ति का रूप और दूसरा है समाज का रूप। व्यक्ति का व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता, वह समाज के साथ रहता है। पर उसका जो समाज का रूप है, वह उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। आज एक प्रकार से व्यक्ति की अपेक्षा समाज का रूप ज्यादा है, इसलिए सामाजिक चेतना का प्रश्न बहुत मूल्यवान् है। जब तक सामाजिक चेतना नहीं जागती, व्यक्ति का भी मूल्य नहीं होता। इसलिए सामाजिक चेतना का जागरण बहुत अपेक्षित होता है। सामाजिक चेतना क्या है, इस पर हमें विमर्श करना है। जब आदमी 'स्व' से हटकर 'पर' तक चलता है, तब वह सामाजिक बन जाता है। सामाजिक चेतना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-परस्परता। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-'परस्परोपग्रहो जीवानाम'-जीवों का लक्षण है-एक-दूसरे को सहारा देना, आलम्बन देना। समाज बनता है परस्परावलम्बन के आधार पर, पारस्परिक सहयोग के आधार पर। पौराणिक कहानी है। असुरों ने एक बार इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि आप देवों का पक्ष लेते हैं। इन्द्र ने कहा-ऐसा तो नहीं है, इसका निर्णय करने के लिए इन्द्र ने देवों और दानवों को भोज के लिए निमन्त्रण दिया। दोनों बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। इन्द्र ने कहा-भोज एक शर्त के साथ होगा। दो-दो व्यक्ति आमने-सामने बैठेंगे। दोनों के हाथ खपत्रियों से बँधे हुए रहेंगे। ऐसी अवस्था में भोजन करना होगा। पहले दानवों का नम्बर आया। सबके हाथ बाँध दिए गए और उन्हें भोजन करने के लिए कहा गया। वे वैसे ही बैठे रहे। नियमित समय पर बिना भोजन किए उठ गए। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र देवों की बारी आई। उनके भी हाथ बाँध दिए गए। कुछ देर तक वे असमंजस में बैठे रहे। फिर एक उपाय सूझा। बँधे हुए हाथ अपने मुँह की ओर तो नहीं मुड़ते, पर सामने वाले के मुँह तक तो पहुँचते ही हैं। देव एक-दूसरे को कवल देने लगे। पूरा भोजन कर नियमित समय पर उठ गए। इन्द्र ने दानवों से कहा-बताओ ! पक्षपात किसने किया ? जिसमें परस्परता होती है, जो दूसरों को खिलाना जानता है, वह देव होता है। जिसमें परस्परता नहीं होती, वह दानव होता है। देव और दानव में अन्तर ही क्या ? जो स्वार्थी होता है, जो स्वयं खाना जानता है पर खिलाना नहीं जानता, वह दानव होता है। जो स्वयं खाना जानता है और दूसरों को तिलाना भी जानता है, वह देव होता है। महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य ने लिखा है-जो स्वयं खाना जानता है और दूसरों को खिलाना भी जानता है वह व्यक्ति राजनीति में सफल हो सकता है। जो स्वयं खाना जानता है, वह कभी सफल नहीं होता। __ समाज की दिव्यता का लक्षण है-पारस्परिकता। धर्म की चेतना जागे बिना समाज की चेतना भी पूरी नहीं जागती। समाज के लिए तीन बातें अपेक्षित हैं-(१) स्वार्थ मुक्ति, (२) परस्परता, और (३) अहिंसा। समाज बनता है अहिंसा के आधार पर। अहिंसा की चेतना जागे बिना समाज का निर्माण नहीं होता है। यदि हिंसा की चेतना वालों का समाज बनता है तो हिंसक पशुओं का ही समाज बनेगा। पर आज तक बना नहीं। मछलियों का समाज बन जाता, पर बना नहीं। जहाँ बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, वहाँ समाज नहीं बन सकता। समाज के लिए पहली शर्त है-अहिंसा। जिस दिन मनुष्य ने अहिंसा को समझा, उसी दिन से उसका समाज बनना शुरू हुआ। अहिंसा के बिना समाज बन नहीं सकता। समाज की नींव में अहिंसा बराबर काम करती है। अहिंसा की चेतना जितनी विकसित होती है। उतनी ही सामाजिक चेतना विकसित होती है। जहाँ-जहाँ अहिंसा की चेतना कम होती है, वहाँ-वहाँ सामाजिक चेतना का भी हास हो जाता है। वह मूर्छित हो जाती है। भारतीय इतिहास से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब-जब अहिंसा की बात भुला दी गई, तब-तव समस्याएँ और कठिनाइयाँ उभरी हैं, रक्त-क्रान्तियाँ हुई हैं। आज भी भ्रष्टाचार करने वाले, अनैतिकता करने वाले, दूसरों को ठगने वाल, क्रूर व्यवहार करने वाले अहिंसा की उपेक्षा करते हैं। उसका परिणाम यह होता है कि समाज में विच्छंखलता पनपती है, रक्त-क्रान्ति की सम्भावना बढ़ जाती है। ऐसा हुआ है आर ऐसा होगा। और होता रहेगा। जब आदमी क्रूर बन जाता है, दूसरों की निरन्तर उपेक्षा करता जाता है तव समस्याएँ पैदा होती हैं। आज के तथाकथित धार्मिक समाज में भी करुणा सूख-सी गई है, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक चेतना और धर्म क्रूरता और निर्दयता बढ़ी है। उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-खाने की वस्तुओं में मिलावट। जिसमें थोड़ी-सी भी सामाजिक या अहिंसा की चेतना हो तो क्या वह खाने की वस्तुओं में मिलावट कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता। क्या वह दवाइयों में मिलावट कर सकता है ? कभी नहीं। क्या वह तेल में जहरीला पदार्थ मिला सकता है, जिससे कि हजारों आदमी रोगग्रस्त बन जाएँ ? कभी सम्भव नहीं। सामजिक चेतना और धर्म की चेतना-दोनों का गहरा सम्बन्ध है। जब इनको भुला दिया जाता है तब समस्या पैदा होती है। सामाजिक चेतना के जागरण का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अहिंसा और करुणा का विकास। इस बिन्दु पर दोनों का सम्बन्ध जुड़ जाता है। आदमी इतना स्वार्थी होता है, इतना छलावा और प्रवंचना करने वाला होता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। समाज के विकास का एक सूत्र है-संवेदनशीलता। यही धर्म का सूत्र है। संवेदनशीलता का अर्थ है-स्वयं वैसा अनुभव करना। जैसा व्यवहार तुम अपने साथ नहीं चाहते, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ मत करो। जिस व्यवहार से तुम्हें प्रियता या अप्रियता की अनुभूति होती है, वैसे व्यवहार से दूसरे को प्रियता और अप्रियता का अनुभव होता है। इसलिए जैसा तुम्हारा प्रियता या अप्रियता का संवेदन है, वैसा ही तुम समाज के साथ अनुभव करो। यह संवेदनशीलता धर्म का सूत्र है, सामाजिक चेतना का सूत्र है। जो व्यक्ति समाज के प्रति जितना संवेदनशील होता है, उतना ही वह समाज को लाभ पहुंचाता है। जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं रहती और व्यक्ति के मन में यह भावना काम करती है कि 'मैं पीया, मेरा बैला पीया, फिर चाहे कुआँ ढह पड़े-वहाँ सामाजिक चेतना नहीं जागती। समाज का अर्थ केवल एकत्रित हो जाना नहीं है। समाज एकसूत्रता से जुड़ा हुआ है। एकसूत्रता का मूल आधार है-संवेदनशीलता। जिस समाज के सदस्य एक-दूसरे की पीड़ा का अनुभव करते हैं, कठिनाइयों का अनुभव करते हैं, वहीं वास्तव में समाज बनता है। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी चिन्ता करता है, वहाँ समाज कैसे बनेगा ? वह तो केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र है। शरीर में एकसूत्रता होती है प्राण की। प्राण होता है तो शरीर के सभी अवयव साथ मिलकर काम करते हैं, सबका ठीक संचालन होता है। प्राण के निकल जाने पर केवल अस्थियों का ढाँचा मात्र रह जाता है। संवेदनशीलता के अभाव में समाज भी कोरा अस्थियों का ढाँचा मात्र रह जाता है। वह स्वस्थ चेतनावान् समाज नहीं बनता। सामाजिक चेतना के जागरण के लिए संवेदनशीलता को जगाना बहुत जरूरी है। हमारी संवेदनशीलता जागे। हम पराई समस्या या पीड़ा को अपने में देखें। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की समाज-व्यवस्था महावीर धर्म के तीर्थंकर थे। वे राज्य के शास्ता नहीं थे। उन्होंने धर्म का प्रतिपादन किया-एक मुनि के लिए भी और एक गृहस्थ के लिए भी। समाज और घर का त्याग करने वाला मुनि भी उनका अनुयायी बना और गृहस्थ के लिए भी एक आचार-संहिता बनाई, पूर्ण आध्यात्मिक और आन्तरिक। अध्यात्म के क्षेत्र में इतनी महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित संहिता अभी तक देखने में नहीं आई। उस आचार-संहिता में कुछ विलक्षणता है और उसके आधार पर समाज की समग्र व्यवस्था बनती है। यह नहीं कहा जा सकता कि अध्यात्म के आधार पर समाज की व्यवस्था चल सकती है। समाज व्यवस्था के पीछे शासन होता है, दण्ड का भय होता है और दण्ड की शक्ति होती है। महावीर के पास न कोई शासन था, न राज्य सत्ता का सहारा था और न दण्ड की शक्ति। समाज की व्यवस्था करना उनका विषय भी नहीं था। समाज स्थायी मूल्यों के आधार पर चलता है। कोई भी समाज केवल सामाजिक मूल्यों के आधार पर अपने मूल्य को बनाए नहीं रख सकता। भगवान महावीर ने ऐसे स्थायी मूल्यों का प्रतिपादन किया जो समाज के लिए आधारभूत बन जाते हैं। वे आधारभूत तत्त्व सात हैं १. अभय, २. अनाक्रमण, ३. विश्वास या आश्वासन, ४. सामंजस्यपूर्ण विकास, ५. परिग्रह की सम्यक् व्यवस्था, ६. समानता, ७. विसर्जन। भगवान महावीर ने १२ व्रतों का प्रतिपादन किया। अध्यात्म समाज-व्यवस्था का स्थायी तत्त्व है, त्रैकालिक सत्य है। चाहे कोई भी व्यवस्था हो-प्रजातान्त्रिक प्रणाली, साम्यवादी प्रणाली या अन्य कोई भी प्रणाली, ये सात तत्त्व प्रत्येक शिष्ट समाज के लिए अनिवार्य हैं। - जहाँ अभय और अनाक्रमण की बात नहीं होती वहाँ समाज चल नहीं सकता। सबसे पहली शर्त है अभय। जितने हिंसक जानवर हैं उनका समाज नहीं बना। बन भी नहीं सकता क्योंकि वे एक-दूसरे से भय खाते हैं। मनुष्य का समाज तभी बना जब उनमें पहले अभय का विकास हुआ। अभय के लिए अनाक्रमण Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की समाज-व्यवस्था जरूरी है । अनाक्रमण होगा तभी अभय का विकास होगा । समाज व्यवस्था का मूल तन्त्र है -अहिंसा । अहिंसा का अर्थ है - अभय का विकास और अनाक्रमण का विकास । यह जंगल का कानून है कि एक शेर दूसरे प्राणियों को खा जाता है। एक बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह समुद्र का कानून है। जहाँ भय होता है वहाँ समाज नहीं बनता । समाज बने और चले, समाज व्यवस्था स्थाई रहे, उसके लिए दो अनिवार्य शर्तें हैं-अभय और अनाक्रमण । इन दोनों का समुच्चय है अहिंसा । जो राष्ट्र परस्पर युद्ध करते हैं वे ही राष्ट्र युद्ध के बाद परस्पर अनाक्रमण सन्धियाँ करते हैं । युद्ध के बिना भी अनाक्रमण की सन्धियाँ होती हैं। एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करेगा, किसी का अपहरण नहीं करेगा, ये सन्धियाँ होती हैं, इसलिए कि समाज शान्ति के साथ रह सके । शान्ति समाज का आधार है । शान्ति का आधार है अनाक्रमण और अभय की भावना का विकास। गृहस्थ की आचार-संहिता का पहला सूत्र महावीर ने दिया अहिंसा । यह समाज व्यवस्था का • सबसे मजबूत आधार माना जाता है। I दूसरी बात है विश्वास । परस्पर विश्वास होता है तभी समाज बनता है । विश्वास के बिना समाज नहीं बनता। हजारों-हजारों घर एक-दूसरे से सटे हुए हैं। ऐसी दीवार बनी हुई है कि एक-दूसरे को लाँघकर आया-जाया जा सकता है परस्पर विश्वास रहता है और उसी के आधार पर काम चलता है, दुकानें चलती हैं, कारोबार चलता है। विश्वास के लिए दो बातें जरूरी हैं- सत्यनिष्ठा और सामाजिकता - सत्य और अचौर्य । जहाँ चोरी होती है वहाँ विश्वास नहीं होता 1 जहाँ झूठ बोला जाता है वहाँ विश्वास नहीं होता। जब कोई किसी को नौकर रखता है सबसे पहले देखता है कि यह चोरी तो नहीं करता, झूठ तो नहीं बोलता । ये दो बातें पहले देखता है । जहाँ ये दो बातें होती हैं तो कोई किसी को नौकर रखता भी नहीं है । ६६ एक बार तीन आदमी एक साथ यमराज के घर पहुँचे। उस दिन यमराज का जन्म-दिन मनाया जा रहा था । यमराज ने कहा- 'भाई ! आज तुम आए हो और आज मेरा जन्म दिन है। तुम क्या चाहते हो ?' एक ने कहा- 'मैं रत्नों का व्यापारी हूँ, जौहरी हूँ और बहुत सारे रत्न खरीदे हैं। दुकान ऐसे ही पड़ी है। मन है कि फिर चला जाऊँ और अपनी दुकान में जाकर बैठूं और कुछ और रत्नों की व्यवस्था करूँ। और कुछ नहीं चाहता।' दूसरे से पूछा - 'तुम क्या चाहते हो ?' वह भी बड़ा व्यापारी था। उधार काफी बाकी था। उसने कहा- 'मैं तो मर गया और यहाँ आ गया। मन है कि वापस जाऊँ और जितना बाकी है उसकी उगाही करूँ और रुपया Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० समाज-व्यवस्था के सूत्र दुकान में जमा कर दूं। पूरी दुकान को रुपयों से भरा देखना चाहता हूँ और कुछ नहीं चाहता।' तीसरे से पूछा- 'तुम क्या चाहते हो ?' तीसरा चोर था। उसने कहा- 'हुजूर ! मैं तो और कछ नहीं चाहता। इन दोनों का सही-सही पता बता दीजिएगा।' चोर का नाम सुनते ही दोनों घबरा गए और बोले-'अव हम वहाँ जाकर भी क्या करेंगे ?' समाज में विश्वास चाहिए। समाज का एक आधार बनता है विश्वास । विश्वास के बिना समाज चल नहीं सकता। अचौर्य आर सत्य-ये दोनों अणुव्रत विश्वास उत्पन्न करने वाले हैं। ब्रह्मचर्य विश्वास पैदा करता है। किसी महिला का आपरेशन हो रहा था। महिला ने डॉक्टर से कहा-'डॉक्टर ! नर्स को भी यहाँ बुला लो।' डॉक्टर ने कहा- 'क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है।' महिला बोली- 'मुझे तो विश्वास है, पर मरे पति को मुझ पर विश्वास नहीं है, इसीलिए नर्स को बुला लो।' ब्रह्मचर्य भी बहुत विश्वास पैदा करने वाला है। जिसके इन्द्रिय-संयम होता है उसका समाज में विश्वास होता है यह नहीं होता तो कोई उसका भरोसा नहीं करता। ये तीन ब्रह्मचर्य, सत्यनिष्ठा और अचौर्य-ये समाज के लिए आधारभूत बनते हैं अपनी विश्वसनीयता के कारण। एक और महत्त्वपूर्ण बात हे परिग्रह की सम्यग् व्यवस्था। जहाँ समाज में परिग्रह का सन्तुलन होता है, वहत ऊँचाई और नीचाई होती है, वहाँ व्यवस्था गड़वड़ा जाती है। यह कोई साम्यवाद का सूत्र नहीं है। परिग्रह का उत्पादन और वितरण का सन्तुलन करना यह बहुत प्राचीन व्यवस्था रही है। एक आदमी इतना अपने अधिकार में ले लेना चाहता है जितना नहीं लेना चाहिए, जिससे समाज में क्रूरता फैल जाए ! यह चिन्तन हजारों-हजारों वर्ष पुराना रहा है। यह श्रावक की आचार-संहिता का पाँचवाँ व्रत है-इच्छा का परिमाण, इच्छा का संयम करना, उसे सीमित करना, जो व्यक्ति अपनी इच्छा पर अपना नियन्त्रण नहीं करता वह समाज के लिए खतरनाक बन जाता है। हमारी इस पृथ्वी पर ४-५ अरब आदमी रहते हैं। उसमें ५ अरव आदमियों का पेट भरने की क्षमता तो है पर एक आदमी की इच्छा को भरने की क्षमता उसमें नहीं है। कितना बड़ा आश्चर्य है ! जो अरबों व्यक्तियों का पेट भर सकती है किन्तु एक व्यक्ति का पेट नहीं भर सकती। उस स्थिति में यह सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि इच्छा का संयम न करना, उसे नियन्त्रित करना, उसका परिमाण करना। ये पाँच अणुव्रत समाज के लिए आधारभूत बनते हैं। जिस समाज में ये स्थायी नहीं होते वह समाज विकासशील समाज नहीं हो सकता। भगवान् महावीर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की समाज-व्यवस्था ७१ ने आचार-संहिता में सामयिक मूल्यों की चर्चा नहीं की। सामयिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं, बदलते रहते हैं। उन्हें स्थायित्व नहीं दिया जा सकता। जहाँ परिवर्तनशील व्यवस्था को शाश्वत का रूप दिया जाता है वहाँ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान नहीं होता। सामयिक व्यवस्थाओं के आधार पर कभी भी शाश्वत का निर्णय नहीं किया जा सकता और शाश्वत नियम के आधार पर सामयिक व्यवस्थाओं को नहीं तोला जा सकता। व्रत की आचार-संहिता में दो व्रत और अधिक मूल्यवान् हैं। एक है-'भोग-उपभोग की सीमा' और दूसरा है-'अनर्थदण्ड की सीमा' । आज की सबसे बड़ी समस्या है अनर्थदण्ड । वर्तमान युग में अनावश्यक हिंसा बहुत हो रही है, अनावश्यक संग्रह बहुत हो रहा है, अनावश्यक उत्पादन बहुत हो रहा है, अनावश्यक विक्रय बहुत हो रहा है। बहुत बड़ी समस्या है अनावश्यक उत्पादन और अनावश्यक भोग । पेट भरने को रोटी नहीं, इतनी गरीबी, दूसरी ओर प्रसाधन की सामग्री का प्रयोग। क्या फ्रिज के बिना काम नहीं चल सकता ? क्या लिपिस्टिक के बिना काम नहीं चल सकता ? क्या प्रसाधन की सामग्री के बिना काम नहीं चल सकता ? क्या साज-सज्जा के बिना काम नहीं चल सकता ? एक भाई ने बताया कि मकान तो बन गया है अब उसे फर्निस्ड करना है। उसमें १२ लाख रुपये लगेंगे। केवल साज-सज्जा के लिए १० लाख रुपये ! जहाँ हजारों-हजारों लोगों को झोंपड़ी भी प्राप्त नहीं होती वहाँ केवल साज-सज्जा के नाम पर करोड़ों रुपये चाहिए। यह अनावश्यक हिंसा, अनावश्यक संग्रह विग्रह पैदा करता है समाज में। इस अनावश्यक व्यय से समाज की व्यवस्था चरमरा जाती है। हिंसा, अपराध, चोरी, डकैती, आक्रमण, उपद्रवियों का तांता जो वना हुआ है, उसके पीछे समाज की अव्यवस्था भी एक बहुत बड़ा कारण है। व्यक्तिगत भोग की लालसा इतनी बढ़ गई, व्यक्तिगत भोग इतना बढ़ गया कि व्यक्ति अकंला खाना चाहता है, अकेला भोगना चाहता है और जहाँ अकेले खाने, अकेले भोगने की बात होगी वहाँ समाज में प्रतिक्रिया हुए बिना रह नहीं सकती। ___ महामान्य चाणक्य ने कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिखा है कि जो राजा, जो शासक और जो बड़ा व्यापारी या बड़ा आदमी अकेला रोटी खाना जानता है वहाँ विद्रोह होगा, हत्याएँ होंगी। खाता भी है, और दूसरों को खिलाता है, वहाँ कभी विद्रोह नहीं होगा। राजनीति का एक बड़ा सूत्र है-स्वयं खाना और दूसरों को खिलाना। समाज में जो स्वार्थवादी मनोवृत्ति बन गई, स्वयं भोग करना, अपने आपको एशो-आराम में रखना, एक-एक विवाह मण्डप में १०-१० लाख रुपये मात्र Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ समाज-व्यवस्था के सूत्र सजावट में खर्च कर देना, फिर चाहे पड़ोसी को दो जून रोटी भी खाने को न मिले, वहाँ समाज-व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और वहाँ निश्चित हिं.।। होती है, निश्चित प्रतिक्रिया होती है, क्रान्तियाँ होती हैं। भगवान् महावीर ने सूत्र दिया-व्यक्तिगत भोग की सीमा करो। महावीर के जो श्रावक बने, चाहे आनन्द था, चाहे दूसरा था, तीसरा था सबके भोग की सीमा का व्रत था। आनन्द इतना बड़ा व्यवसायी, इतनी सम्पदा फिर भी नियम इतना कठोर कि एक तौलिए से ज्यादा अपने लिए दूसरा तौलिया काम में नहीं लूंगा। हर बात की सीमा। अपने भोग की सीमा। जहाँ कठोर नियन्त्रण होता है वहाँ समाज की व्यवस्था. अच्छी चलती है। हिन्दुस्तान के इतिहास में सबसे पहला व्यक्ति था चन्द्रगुप्त, जिसने इतने बड़े साम्राज्य का विस्तार किया। किस आधार पर किया ? चाणक्य पूरे साम्राज्य का निर्माता और चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का संचालक था। वह शक्तिशाली व्यक्ति था। वह कैसे रहता था, आपको पता है ? मुद्राराक्षस में एक चित्र खींचा है। वह एक झोपड़ी में रहता था। उसके कोई विशाल कोठी नहीं थी। झोंपड़ी में क्या था ? दो चार उपले, कुछ सुविधाएँ। एक बार यूनान का राजदूत आया, वातचीत करने लगा, तब दीया जल रहा था। बात पूरी हो गई तो दीया बुझा दिया और अपना काम शुरू किया तो दूसरा दीया जला लिया। दूत ने पूछा-'महामान्य ! यह कैसे ? एक दीया बुझाया और दूसरा दीया जलाया। चाणक्य ने कहा-'इतनी देर में राज्य का काम कर रहा था। अतः राज्य के तेल से दीया जल रहा था, अब तो अपना काम कर रहा हूँ। अतः अपना दीया जला रहा हूँ।' जहाँ व्यक्तिगत भोग का संयम नहीं होगा, भोग की सीमा नहीं होती वहाँ स्वस्थ समाज व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता। जहाँ असीम भोग नहीं होता वहाँ अनावश्यक हिंसा भी नहीं होती। आदमी कितनी अनर्थ हिंसा करता है। आज वातावरण ही ऐसा बन गया कि कहना भी अच्छा नहीं और कहे विना रहा भी नहीं जाता। कहना अच्छा नहीं लगता, इसलिए कि सारा समाज कर रहा है। बड़ी विचित्र बात है। एक वैज्ञानिक किसी बीमारी पर प्रयोग करता है तो ७०-७० हजार मेढक मार डालता है। एक आदमी को स्वस्थ रखने के लिए कितने मेंढक, कितने चूहे और कितने बन्दर मारे जाते हैं ? कितना करुण दृश्य है, कितनी करुण कहानी है ? ऐसा लगता है कि अनर्थ-हिंसा के बारे में कोई चिन्तन रहा ही नहीं। मेढक मरते हैं, चूहे मरते हैं, बन्दर मरते हैं और गाएँ मरती हैं तो क्या आदमी को मारने की वृत्ति नहीं जागेगी ? कहते हैं कि Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की समाज-व्यवस्था ७३ आतंकवादियों ने इतने आदमियों को मार डाला। अमुक जगह लड़ाई हो गई। क्रान्ति हुई और रक्तपात हो गया। शरीर में सारा संस्कार तो रक्तपात का ही जा रहा है तो फिर आदमी आदमी को क्यों नहीं मारेगा ? अनर्थ-हिंसा होगी तो फिर हिंसा का इतना विस्तार होगा कि आदमी को आदमी मारे बिना रह नहीं सकता। भगवान् महावीर ने सूत्र दिया-अनर्थ-हिंसा मत करो। उतनी हिंसा आदमी किए बिना नहीं रह सकता जो जीवन चलाने के लिए अनिवार्य होती है। पर यह मान लिया कि आदमी के लिए जो किया जाए, वह सब किया जा सकता है। भगवान् महावीर ने एक स्थाई मूल्य दिया था 'अनर्थदण्ड विरति'-अनावश्यक हिंसा का परित्याग, अनावश्यक भोग का परित्याग। उसमें बड़े कारखाने का स्वामित्व और बड़े हिंसक व्यापारों का वर्जन अपने आप आ गया। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था यह समाज-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण सूत्र था। जिसका पुनरोच्चारण महात्मा गाँधी ने भी किया था। इसका मूल आधार भगवान् महावीर की समाज-व्यवस्था में प्राप्त है। अल्प आरम्भ, अल्प हिंसा और अल्प परिग्रह, इसका मतलब है विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था। महावीर ने एक और महत्त्वपूर्ण बात कही, वह है, शस्त्रों पर नियन्त्रण। यह निःशस्त्रीकरण का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। महावीर की आध्यात्मिक समाज-व्यवस्था में चलने वाला व्यक्ति न तो शस्त्रों का निर्माण ही करेगा और न शस्त्रों का संयोजन ही करेगा। यह निःशस्त्रीकरण की बात संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण के बाद की बात नहीं है, दूसरे महायुद्ध के बाद की बात नहीं है, २५०२ वर्ष पहले की बात है।। इन व्रतों के बाद साधना का एक व्रत दिया, वह है समानता की साधना का व्रत। इस व्यवस्था में चलने वाले व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन समता की साधना करनी जरूरी है। अन्तिम बात है-विसर्जन। इसका अर्थ है-अतिथि संविभाग करना, अपने स्वामित्व को छोड़ना। अब प्रश्न रहा कि क्या ऐसा कोई समाज बना ? उत्तर होगा-नहीं बना। व्यक्ति तो सैकड़ों बने और हजारों बने, पर समाज नहीं बना। क्यों नहीं बना ? यह समाज की प्रकृति के अनुकूल बात नहीं है। समाज बनता है नियन्त्रण के साथ। इतना मानस प्रबुद्ध नहीं कि मनुष्य अध्यात्म को स्वीकार कर ले। बौद्धिक विकास तो है। बुद्धि हमेशा नियन्त्रण को मान लेती है पर ऐच्छिक नियन्त्रण या आत्मानुशासन को नहीं मानती। यह बुद्धि की अपनी दुर्बलता है। इसलिए समाज तो नहीं बन सकता। इस व्यवस्था ने समाज की अन्तर आत्मा को अवश्य प्रभावित किया है। २५०० वर्ष का ही इतिहास देखें। समाज व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व ये ही माने गए हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद 'अनुत्तरं साम्यमुपैती योगी'-योगी अनुत्तर साम्य को पाता है। साम्य का प्रयोग बहुत प्राचीन काल से चलता आ रहा है। जैनों की भाषा में अहिंसा और समता एक है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में जो सम रहे, वही अहिंसा की आराधना कर सकता है। राग-द्वेष आवेगात्मक वृत्तियाँ हैं। इनसे परे रहने का जो भाव है, मध्यस्थता है, वही साम्य है। गीता में 'समत्व' का योग कहा गया है। साम्यवाद आज के दलित-मानस का प्रिय शब्द है। कुछ लोग साम्यवाद से घबराते भी हैं। दिल्ली में आचार्यश्री से एक व्यक्ति ने पूछा- 'क्या भारतवर्ष में साम्यवाद आएगा ?' आचार्यश्री ने कहा-'आप बुलाएँगे तो आएगा, नहीं तो नहीं।' उत्तर सीधा है। कार्य को समझने के लिए कारण को समझना चाहिए। साम्यवाद का कारण है-पूँजीवाद। दो-सौ वर्ष पहले पूँजीवाद इस अर्थ में रूढ़ नहीं था, जिस अर्थ में आज है। १७६१ में भाप का आविष्कार हुआ। उसके साथ-साथ पूँजीवाद आया। इससे पहले यातायात के साधन अल्प वेग वाले थे। संग्रह के साधन सुलभ नहीं थे। सहजभाव से विकेन्द्रित स्थिति थी। वाष्प-युग ने यन्त्र-युग का रूप लिया। वर्तमान युग यन्त्र-युग है। इस युग में यातायात के साधन वेगवान् बने और बनते जा रहे हैं। विश्व सिमट गया। यन्त्रों द्वारा कार्य होने लगा। कार्य करने की क्षमता मनुष्यों से हटकर. मशीनों में आ गई। पूँजी का संग्रह सुलभ हो गया। व्यक्ति-व्यक्ति के पास जो सम्पत्ति थी, वह कुछ ही व्यक्तियों के पास चली गई। सहज ही दो वर्ग बन गए-पूंजीपति और मजदूर। पहले बड़े नगर कम थे, गाँव अधिक। मिलों ने गाँवों को खाली किया। नगरों की आवादी बढ़ गई। हजारों मजदूर एक साथ काम करने लगे। इस परिस्थिति से उन्हें मिलने, संगठित होने और वर्ग बनाने का अवसर मिला । वर्ग-संघर्प का बीज जड़ पकड़ गया। पूँजीवाद का परिणाम है-वेकारी या उत्पादन की कृत्रिम आवश्यकता। मनुष्य का काम यन्त्र करने लगे तब हजारों का जीवन साधन एक व्यक्ति के पास Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद ७५ आ गया। एक धनी और हजारों बेकार हो गए। संघर्ष की जड़ मजबूत हो गई। वही आगे जाकर साम्यवाद के रूप में फलित हुई। पुराने पूंजीपतियों की धारणा यह थी कि यह परम्परा इसी प्रकार चलती रहेगी। पूँजीपति और मजदूर उसी प्रकार बने रहेंगे। मार्क्स ने इस दृष्टिकोण से भित्र विचार प्रस्तुत किया। वह द्वन्द्वात्मक भौतिकता कहलाता है। उसके अनुसार यह विश्व परिवर्तनशील है। मूलावस्था में विरोधी तत्त्व समवेत रहते हैं। जिस समय जिसकी प्रवलता होती है, उस समय वह व्यक्त हो जाता है। एक के बाद दूसरी अवस्था आती है, दूसरी के वाद तीसरी। दूसरी अवस्था पहली का विपरिणाम और तीसरी विपरिणाम का विपरिणाम होती है। यह क्रम चलता रहता है। पहले पूंजीवाद आया, बेकारी बढ़ी, शोपण हुआ। शोपण सं क्षोभ उत्पन्न हुआ-पूँजीवाद का ढाँचा लड़खड़ाने लगा। प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद को जन्म मिला। आर्थिक दृष्टि से साम्यवाद का स्वरूप उत्पादन और वितरण में समाया हुआ है। इन पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो, यही है साम्यवाद का आर्थिक दृष्टिकोण। कुछ पुराने दार्शनिकों ने कहा है-सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो। किन्तु सम्पत्ति का वितरण कैसे किया जाए, यह उन्होंने नहीं बतलाया। इसलिए आज के चिन्तक उसे दार्शनिक साम्यवाद कहते हैं। मार्क्स ने सम्पत्ति के वितरण की व्यवस्थित पद्धति बतलाई। इसलिए उसका साम्यवाद. वैज्ञानिक साम्यवाद कहलाता है। उसने एक सीमा तक सम्पत्ति के वैयक्तिक-प्रभुत्व को राष्ट्रीय प्रभुत्व के रूप में बदल दिया। ___अणुव्रत का अभियान वैयक्तिकता से राष्ट्रीयता की ओर नहीं है। वह असंग्रह की ओर है। यह आर्थिक समस्या का समाधान नहीं है, किन्तु अर्थ के प्रति होने वाले आकर्पण को तोड़ने की प्रक्रिया है। लोग कहते हैं, अपरिग्रह का उपदेश हजारों वर्षों से चल रहा है, पर स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। तर्क सही है। वैज्ञानिक साम्यवाद के द्वारा समाज की अर्थ-व्यवस्था में जो परिवर्तन आया है, वह अपरिग्रह के उपदेश से नहीं आ सका है। इसका कारण दोनों का भूमिका-भेद है। साम्यवाद का उद्देश्य है-समाज के अर्थतन्त्र का परिवर्तन और अपरिग्रह का उद्देश्य है-व्यक्ति की आत्मा का परिशोधन या पदार्थ-संग्रह की मूर्छा का उन्मूलन। इनकी प्रक्रिया भी एक नहीं है। साम्यवादी अर्थ-व्यवस्था, राज्य-शक्ति के द्वारा होती है और आत्मा का परिशोधन व्यक्ति के हृदय परिवर्तन से होता है। अर्थ-व्यवस्था सामाजिक हो सकती है, पर आत्मा का शोधन वैयक्तिक ही होता है। संक्षेप में कहा जाए तो परिग्रह भोग-त्याग का प्रेरक है और साम्यवाद भोग की Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ समाज-व्यवस्था के सूत्र सन्तुलित व्यवस्था का प्रेरक है। अपरिग्रह की एक लम्बी परम्परा है, जिसे मान्य कर लाखों-करोड़ों व्यक्ति आकिंचन्य का व्रत ले चुके हैं और उसका धागा आज टूटा नहीं है। साम्यवाद ने पूर्ण असंग्रह की ओर किसी को प्रेरित किया हो, ऐसा नहीं लगता। __ अर्थ-व्यवस्था के परिष्कार में साम्यवाद या उसके पाश्र्यों को छूती हुई दूसरी जनतन्त्र-प्रणालियाँ सफल न हुई हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु इसके द्वारा मानव की आवेगात्मक वृत्तियाँ परिष्कृत हुई हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। वृत्तियों का परिष्कार पदार्थ-संग्रह को अनिष्टकर मानने पर ही हो सकता है। अध्यात्मवाद इसी दिशा का नाम है। __ संग्रह का मूल भोगवृत्ति में है। समाज की जितनी व्यवस्थाएँ हैं, वे मात्रा-भेद से भोग-वृत्ति के परिष्कार हैं। अर्थ-तन्त्र उसका साधन है। अध्यात्मवाद का मूल त्याग में है। संग्रहमात्र पाप है, भले फिर वह वैयक्तिक हो या सामाजिक। जितना परिग्रह उतना बन्धन, जितना बन्धन उतना मोह, उतनी मिथ्या धारणाएँ, यह एक क्रम है, जो मनुष्य में भटकने की तर्क-बुद्धि पैदा करता है। अर्थ-तन्त्र की परिक्रमा करने वाले सारे वाद भौतिक-विकास को वैज्ञानिक और आत्मिक-विकास को अवैज्ञानिक मानकर चल रहे हैं। परिष्कृत अर्थ-व्यवस्था ने भी संघर्ष की दिशा बदली हो, ऐसा नहीं लगता। विकास को मापा जाता है पदार्थ से, शस्त्र से, सेना से। सामाजिक प्राणियों के लिए सामाजिक-विकास अपेक्षित नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। यह भी सच है, परिग्रह से समाज का भौतिक-विकास नहीं होता। वह आत्मा के विकास का पथ है। सामाजिक जीवन के लिए भौतिक-पक्ष और उसकी समृद्धि के लिए परिग्रह आवश्यक माना जाता रहा है। परिग्रह इच्छा है, पदार्थ नहीं। इच्छा जुड़ती है, वह परिग्रह बन जाता है। इच्छा का नियन्त्रण किया जा सकता है, पदार्थ का नहीं। सामाजिक प्राणियों के लिए अपरिग्रह का अर्थ है-इच्छा परिमाण । जीवन-यापन के दो विकल्प हैं-महा-आरम्भ और महा-परिग्रह तथा अल्प-आरम्भ और अल्प-परिग्रह । आज की भाषा में बड़ा उद्योग और अपार संग्रह तथा छोटा उद्योग और सीमित संग्रह, उद्योग के केन्द्रीकरण से अर्थतन्त्र विकृत होता है। यह व्यावहारिक दोष है। उसका आध्यात्मिक दोष है-भोगवृद्धि। भोग के लिए प्रचुर परिग्रह चाहिए और उसके लिए बड़ा उद्योग। यह क्रम जीवन के दोनों (भौतिक और आध्यात्मिक) पक्षों को जटिल बनाने वाला है। उद्योग के विकेन्द्रीकरण या अल्पीकरण का आधार अल्पभोग है। अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा भोग-त्याग का संयम है। इसीलिए यह आध्यात्मिक है। भारत का मानस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद ७७ चिरकाल से आध्यात्मिक रहा है। भारतीय लोग जो शान्तिप्रिय हैं, इसका कारण उनकी आध्यात्मिक परम्परा है। आर्थिक साम्य सुख-सुविधा के साधन प्रस्तुत कर सकता है। आध्यात्मिक साम्य शान्ति या मानसिक सन्तुलन का साधन है। पहले धारणाएँ बदलती हैं, फिर व्यवस्था। परिस्थितियों का परिवर्तन हुए बिना मनुष्यों का परिवर्तन नहीं होता। परिस्थितियाँ नैतिकता के अनुकूल होती हैं, मनुष्य नैतिक बनता है। वे उसके प्रतिकूल होती हैं, मनुष्य अनेतिक बनता है, यह बहुतों की धारणा है। यह परिस्थितिवाद है। भौतिकवाद का उत्कर्ष इसी धारणा से हुआ है। अणुव्रत-आन्दोलन परिस्थितिवाद का प्रचार नहीं करता। वह आध्यात्मिक है, परिस्थितियों की अनुकूलता से उसका कोई विरोध नहीं है। किन्तु उनकी अनुकूलता में ही मनुष्य नैतिक रह सकता है-इस धारणा से विरोध है। मनुष्य परिस्थितियों की उपज नहीं है। उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। भोग-वृत्ति से वह दुर्बल बनता है, कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है, मनुष्य परिस्थिति से दब जाता है। आध्यात्मिकता का प्रवेश-द्वार है-त्याग। त्याग से आत्मा का बल बढ़ता है। आत्म-बल का मतलब है-भौतिक आकर्पण का अभाव । पदार्थ का आकर्षण मनुष्य में दैन्य भरता है। पदार्थ का आकर्षण टूटता है, आत्मबल का सहज उदय हो जाता है। आत्मोदय की धारणा में परिस्थिति गौण बन जाती है। ___ यह सच है, परिस्थिति की प्रतिकूलता जनसाधारण के लिए एक प्रश्न है। किन्तु मनुष्य को परिस्थिति का दास बनाकर उसे नहीं सुलझाया जा सकता। परिस्थिति के रूपान्तर से मनुष्य की वृत्ति का रूपान्तर हो जाता है। वह कोई नैतिक विकास नहीं है। साम्यवादी अर्थ-तन्त्र में एक प्रकार की अनैतिकता मिट जाती है, पर क्या अनैतिकता के सभी प्रकार मिट जाते हैं ? क्या उस व्यवस्था में अपराध और अपराधी नहीं होते ? क्या राजनैतिक स्पर्धा नहीं होती ? एकतन्त्र एक परिस्थिति पैदा करता है, जनतन्त्र दूसरी । पूँजीवाद एक परिस्थिति पैदा करता है, साम्यवाद दूसरी। इनमें नैतिकता के एक रूप का विकास होता है तो उसके दूसरे रूप का विनाश भी होता है। अनैतिकता का एक रूप मिटता है तो दूसरा रूप उभरता भी है। यह परिस्थितिवाद की देन है। उसे मुख्य मानकर चला जाए तो वह रुकेगी नहीं। आध्यात्मिकता परिस्थिति-निरपेक्ष है। मनुष्य आत्मा है। उसकी क्षमता असीम है। वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी नैतिक रह सकता है। अणुव्रत-आन्दोलन का ध्येय है-इस श्रद्धा को जगाना। नैतिकता-विकास का प्रश्न सामाजिक प्रश्न है। आध्यात्मिकता यद्यपि वैयक्तिक होती है, किन्तु आध्यात्मिकताहीन व्यक्ति स्वतन्त्र भाव से नैतिक नहीं हो सकता। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ समाज-व्यवस्था के सूत्र इसलिए समाज के सम्पर्क में वह नैतिकता बन जाती है। नैतिकता के बिना व्यक्ति पवित्र नहीं रहता, इतना ही नहीं, किन्तु सामूहिक व्यवस्था भी नहीं टिक पाती। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति प्रामाणिक न रहे, ईमानदार न रहे, तब सन्देह बढ़ता है। सन्देह से भय और भय से क्रूरता बढ़ती है। मनोविज्ञान के अनुसार भय के दो परिणाम होते हैं-पलायन और आक्रमण । अधिकांश लड़ाइयाँ, अभियोग, आक्रमण और युद्ध भय के कारण होते हैं। यदि मनुष्य नैतिक रहे तो सहज ही विश्वास का वातावरण पैदा हो जाए। वर्तमान की विभीषिका और शस्त्र-निर्माण की स्पर्धा इसलिए तो है कि एक राष्ट्र दूसरे के प्रति सन्दिग्ध है, भयभीत है और क्रूरता अनायास बढ़ रही है। नैतिक-विकास के बिना इस प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। व्यापार में प्रामाणिकता रहे, मिलावट न हो, कम तौल-माप न हो-ये नैतिकता की बहुत छोटी बातें हैं। नैतिकता का मूल यह है कि अपने स्वत्व को व्यापक बनाने की वृत्ति न हो, दूसरों के अधिकारों को हड़पने की चेष्टा न हो। मूल बलहीन हो रहा है। इसलिए बहुत छोटी बातें भयंकर बन रही हैं। यदि उनका मूल दृढ़ होता तो इन छोटी-छोटी बातों को व्रत का रूप देने की आवश्यकता नहीं होती। व्रत संयम है। संयम का स्वरूप विभक्त नहीं होता। व्रत एक ही है। वह है अहिंसा। वैयक्तिक साधना में अहिंसा का अभित्र रूप ही प्राप्त था। उसका सामूहिक आचरण हुआ तब उसकी अनेक शाखाएँ निकलीं। व्रतों का विकास हुआ। सत्य अहिंसा का नैतिक पहलू है। अपरिग्रह उसका आर्थिक पहलू है। अचौर्य और ब्रह्मचर्य उसके सामाजिक पहलू हैं। यथार्थ पर पर्दा डालने के लिए हिंसा का प्रयोग होता है, तब वह असत्य कहलाती है। पदार्थ-संग्रह के लिए उसका प्रयोग होता है तब वह परिग्रह कहलाती है। वासना का रूप ले वह अब्रह्मचर्य बन जाती है। चोरी का प्रश्न विकट है। युग रहा तर्कवाद का। लोग सारे मसलों को तर्क से हल करना चाहते हैं। कहा जाता है-युग बदल गया, समाज की परिस्थितियाँ बदल गईं। बदली हुई समाज-व्यवस्था में अहिंसा आदि व्रतों का कोई उपयोग नहीं रहा। वे आज अवैज्ञानिक हो गए हैं। पुराने जमाने में एक व्यक्ति को चाहे जितना धन संग्रह करने का अधिकार था। इसलिए उसकी धनराशि का लेना चोरी माना गया। वर्तमान समाज-व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के अधिकार निरंकुश नहीं हैं। आज मान लिया गया है कि धन का आवश्यक संग्रह किसी के पास नहीं होना चाहिए। यदि कोई करे तो उसका धन लूट लेना चाहिए। यह चोरी नहीं है। चोरी है-अनावश्यक संग्रह करना। हो सकता है-सामाजिक व्यवस्था और उसकी मान्यता के परिवर्तन के साथ चोरी की परिभाषा थोड़ी जटिल या Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद विवादास्पद हो जाए । पर उसका कोई अर्थ ही न रहे, यह तो तब तक सम्भव नहीं, जब तक स्व व्यक्तित्व जैसा अधिकार मनुष्य को मिला रहेगा और मनुष्य में अतृप्ति का भाव बना रहेगा । चोरी परिग्रह का ही एक रूप है। आकांक्षा ही मनुष्य को किसी बहाने दूसरे की वस्तु लेने के लिए प्रेरित करती है । वैधानिक ढंग से वस्तु संग्रह करने में मनुष्य को माया नहीं करनी पड़ती, इसलिए वह संग्रह की प्रक्रिया कहलाती है और अवैधानिक ढंग से दूसरों की वस्तु लेने में माया का जाल बिछाना पड़ता है, विचार और कार्य की सहजता को छिपाना पड़ता है, इसलिए वह प्रक्रिया चोरी कहलाती है । वस्तु का संग्रह स्वयं सदोष है, भले फिर वह वैधानिक ढंग से हो या अवैधानिक ढंग से । वैधानिक ढंग से किए जाने वाले संग्रह को छोड़ने में सामाजिक प्राणी अपने को असमर्थ पाता है, किन्तु अवैधानिक संग्रह के लिए मनुष्य को बहुत ही नीचे उतरना पड़ता है। इसलिए उसे घृणित अर्थ में चोरी माना गया और संग्रह की इस प्रक्रिया से बचना आवश्यक माना गया । समाज के तीन पहलू हैं-आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक । जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आर्थिक आयोजन, आर्थिक व्यवस्था के लिए राजनैतिक संगठन और जीवन की उच्चता के लिए नैतिक विकास आवश्यक माना जाता है। नैतिकता का स्रोत आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता के माने हैं- आत्मा की अनुभूति और उनके शोधन का प्रयत्न । यह वैयक्तिक वस्तु है बाहरी जगत् में व्यक्ति सामाजिक बनता है, अन्तर्-जगत् में वह अकेला होता है अकेलेपन में जो अध्यात्म होता है, वही दो में नैतिकता बन जाती है। नैतिकता अध्यात्म का प्रतिबिम्ब है 1 1 / नैतिकता का अखण्ड रूप है - आध्यात्मिकता या भौतिक आकर्षण में मुक्ति। वह है अहिंसा । अहिंसा और आध्यात्मिकता एक है, वह शाश्वत है, देश और काल के परिवर्तन के साथ परिवर्तित नहीं होती । आध्यात्मिकता का खण्ड रूप है-नैतिकता । स्वरूपतः वह भी अपरिवर्तित है, किन्तु प्रकारों के रूप में वह परिवर्तनशील भी है । देश, काल की स्थिति के अनुसार बुराई के प्रकार बदलते रहते हैं। बुराई नया रूप लेती है, नैतिकता का रूप लेती है, नैतिकता का रूप भी नया हो जाता है । वास्तव में अनैतिकता का रूप भी एक ही है । वह है हिंसा । हिंसा के नए प्रकार का प्रतिकार करने के लिए अहिंसा का नया प्रकार बनता है। स्वरूप न हिंसा का बदलता है और न अहिंसा का । प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है। सुख का मूल है - शान्ति और शान्ति का मूल है- भौतिक आकर्षण से बचना। भौतिकता के प्रति जितना अधिक आकर्षण ७६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० समाज-व्यवस्था के सूत्र होता है, उतना ही मनुष्य का नैतिक पतन होता है। पदार्थ, सत्ता, अधिकार और बड़प्पन-ये भौतिक या भौतिकता से सम्बन्धित हैं। उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती हैं, आत्मौपम्य-बुद्धि मिट जाती है। प्राणी प्राणी में या मनुष्य मनुष्य में समता के भाव रहते हैं तो क्रूरता नहीं बढ़ती। उसके बिना अनैतिकता का पक्ष लड़खड़ा जाता है। मनुष्य-जीवन का दूसरा पक्ष रागात्मक है। उससे प्रेरित होकर मनुष्य अनैतिक कार्य करता है। जातीयता या राष्ट्रीयता के आधार पर जो नैतिकता का विकास हुआ है, उसमें उनका स्वतन्त्र मूल्य नहीं है। यह जाति और राष्ट्र के संकुचित प्रेम पर टिकी हुई होती है। वह अपनी सीमा से परे उग्र अनैतिकता बन जाती है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र के हितों के लिए दूसरे राष्ट्र के हितों को कुचलने में संकोच न करे, क्या उसे नैतिक माना जाए ? जाति, भाषा, प्रान्त और राष्ट्र-ये सारे समानता और उपयोगिता की दृष्टि से बनते हैं। मनुष्य जाति एक ही है-वह बात भुला दी है। गोरे गोरे से प्रेम करता है, और काले को पशु से भी गया-बीता समझता है। सवर्ण और असवर्ण हिन्दुओं में भी ऐसा ही चल रहा है। जातीय और राष्ट्रीय पक्षपात भी स्पष्ट है। ये स्थूल-दृष्टि से अच्छे भी लगते हैं। लोग उन योरोपियनों को सराहते हैं, जो अधिक कीमत देकर भी अपने देशवासियों की दूकान से चीज खरीदते हैं। वहीं चीज सरी जगह कम कीमत से मिलने पर भी नहीं खरीदते। इसे राष्ट्रीय-प्रेम का विकास माना जाता है। पर हम थोड़े-से गहरे चलें तो दिखेगा कि यह 'मनुष्य जाति एक है' उसकी विपरीत दिशा है। इस कोटि की भावनाएँ ही उग्र बनकर संघर्ष और युद्ध के रूप में फूट पड़ती हैं। अपने अधिकार क्षेत्र का विकास हो, अपनी जाति या भाषा की प्रगति हो, यह भावना यहीं तक सीमित रहे तो प्रियता को क्षम्य भी माना जा सकता है किन्तु वह प्रियता दूसरों के लिए अप्रिय परिस्थिति पैदा कर देती है, वहाँ मानव-जाति की अखण्डता विभक्त हो जाती है, इसलिए वह प्रेम भी अखण्ड मानवता की दृष्टि से अप्रेम ही है और उसके आधार पर विकसित होने वाली नैतिकता भी स्वतन्त्र मूल्यों की दृष्टि से अनैतिकता ही है। इसलिए अणुव्रत आन्दोलन का यह प्रयत्न है कि चेष्टा करने से भले ही फिर दूसरों का अहित न हो, स्वयं उसी का अहित होता ही है, इसलिए दूसरों के अहित की चेष्टा से बचा जाए, यह आध्यात्मिकता है। इसके आधार पर जो नैतिक-विकास होता है वह किसी के लिए भी खतरनाक नहीं होता। यह मानव की ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र की एकता की दिशा है। यह विचार जितना दार्शनिक है, उतना ही वैज्ञानिक है। इसकी प्रक्रिया निश्चित है। इतिहास साक्षी है कि जाति, भाषा, प्रान्त और राष्ट्र को मनुष्य ने ही जन्म दिया और आगे जाकर उसकी कृतियाँ ही उसके Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद ८१ लिए अभिशाप बनीं-संघर्ष और संहार का कारण बनीं। राष्ट्र और क्या है ? व्यक्ति के स्वार्थों का विस्तार-क्षेत्र है। परिवार में स्वार्थों का विस्तार होने लगा और वह होते-होते राष्ट्र तक होता चला गया। यह स्वार्थ या भोग के विस्तार की दिशा है। इसी दिशा में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना भी विशेष मूल्यवान् नहीं है। आध्यात्मिकता इसकी विपरीत दिशा है। उसका स्वरूप है-स्वार्थ-त्याग या भोग-त्याग। अपने हित के लिए, अपनी शान्ति के लिए स्वार्थ और भोग का संयम करने से नैतिकता का विकास अपने आप होता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध भिन्न-भिन्न शब्द हैं और भिन्न-भिन्न विचार। संस्कृति भी एक नहीं है। प्रेरणाएँ और सम्बन्ध भी अनेक हैं। हम प्रेरणा और सम्बन्ध पर विचार करें। हमें दोनों को एक साथ देखना होगा कि मनुष्य की मौलिक प्रेरणाएँ क्या हैं और उनके आधार पर सामाजिक सम्बन्धों का कैसा निर्माण होता है ? हम पूरी संस्कृति का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि किसी भी संस्कृति को कभी विभक्त नहीं किया जा सकता। भौगोलिक सीमाओं को बाँधा जा सकता है, किन्तु संस्कृति की विभाजक रेखाएँ नहीं बनतीं। विचार इतना संक्रान्त होता है कि पूरे जगत् की संस्कृति एक बन जाती है। वास्तव में काम की प्रेरणा और अर्थ की प्रेरणा से एक संस्कृति का विकास हुआ। इसे पदार्थवादी संस्कृति या भोगवादी संस्कृति कहा जा सकता है। ___व्यक्ति को सुविधा और सुख चाहिए। वह पदार्थ से मिलता है। धन होता है तो सब कुछ मिल जाता है। चैतन्य और त्याग पर्दे के पीछे हैं। पदार्थ और भोग सामने हैं। प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि पदार्थ से, भोग से सुख मिल रहा है, सारी सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं। त्याग का सुख कब, कैसे मिलेगा, कौन जाने। वह परोक्ष है। चैतन्य का अनुभव कब, कैसे होगा, पता नहीं। पर पदार्थ और भोग का अनुभव तो सबको है। इसमें अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है। इसमें सदा भीड़ लगी रहती है। ध्यान का मार्ग ऐसा नहीं है। यह अज्ञात दिशा की ओर ले जाने वाला मार्ग है। यहाँ भीड़ कैसे हो सकती है ? यदि कोई कहे कि यहाँ स्वर्ण बनाने की विधि सिखाई जा रही है तो बहुत बड़ी भीड़ लग सकती है। यदि यह कहा जाए कि यहाँ चैतन्य का अनुभव कराया जाता है तो विरल व्यक्ति ही उपस्थित रहेंगे। लोग कहेंगे चैतन्य का अनुभव बकवास है, व्यर्थ है। पदार्थ के भोग से प्रत्यक्ष लाभ होता है, यह सब जानते हैं। पर यह भी जान लेना चाहिए कि ध्यान और त्याग का लाभ भी परोक्ष नहीं है, प्रत्यक्ष है, पर वह कठिनाई से समझ में आता है। कल की ही घटना है। शिविर की एक बहिन ने आकर कहा- 'मुझे लगभग Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध दो वर्षों से नींद नहीं आ रही है। सोने का प्रयास करती हूँ तब बुरी-बुरी कल्पनाएँ आती हैं, विचार आते हैं। बहुत कष्ट से रात गुजरती है। अनेक उपचार किए पर कोई उपचार सफल नहीं हुआ। उस बहिन को प्रेक्षा साधिका कान्ता सुराणा ने कायोत्सर्ग कराया और साथ ही साथ अनुप्रेक्षा का प्रयोग भी बताया। प्रातः पूछने पर वह बहिन बोली- 'आज दो वर्षों में पहली बार नींद ली है । बहुत विश्राम मिला। अब मैं प्रतिदिन कायोत्सर्ग और अनुप्रेक्षा का प्रयोग करती रहूँगी ।' क्या यह प्रत्यक्ष लाभ नहीं है ? भोगवादी संस्कृति और पदार्थवादी संस्कृति के पीछे काम, अर्थ और स्वार्थ की बलवती प्रेरणा रहती है। भारतीय ऋषियों ने यहाँ नई धारा का प्रवर्तन किया जिसमें परमार्थ और त्याग की प्रेरणा है । स्वार्थ व्यक्ति को नीचे ले जाता है । परमार्थ व्यक्ति को ऊपर उठाता है । उन्नति के लिए परमार्थ की प्रेरणा बहुत जरूरी है । जहाँ न स्वार्थ है, न परार्थ है, पर है केवल परमार्थ - यह विकास का स्रोत है। परमार्थ की प्रेरणा के साथ स्वार्थ विघटित नहीं होता, किन्तु वह सधता है। परमार्थ और स्वार्थ- दोनों सधते हैं । जहाँ परमार्थ की प्रेरणा होती वहाँ स्वार्थ सामाजिक सम्बन्धों में तनाव पैदा करता है। सभी तनाव स्वार्थ से ही उत्पन्न होते हैं। आज के पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों को देखें, क्या वे मधुर हैं ? आप उनमें रचपच गए, इसलिए वे मधुर लगते हैं, पर वे हैं बहुत विषम । शादी होती है तो पति-पत्नी का और दोनों परिवारों का जितना मधुर सम्बन्ध होना चाहिए वह नहीं रहता । कुछेक प्रश्नों को लेकर शादी से पहले ही खतरा हो जाता है और शादी के बाद तो उसमें और अधिक विष घुल जाता है। दोनों परिवारों में तनाव आ जाता है और उस तनाव की आग में युवतियों को झुलसना पड़ता है और अनेक बार मौत का वरण भी कर लेना पड़ता है। राजनयिक दलों के सम्बन्धों में कितना विष घुला हुआ है, हम सब जानते हैं। किसी भी क्षेत्र को देखें, वहाँ तनाव पराकाष्ठा पर नजर आएगा। इसका मूल कारण है - भोगवादी संस्कृति, पदार्थवादी संस्कृति । जब तक पदार्थवादी दृष्टिकोण रहेगा तब तक मानवीय सम्बन्धों में, सामाजिक सम्बन्धों में सुधार नहीं किया जा सकता। ईरान का प्रसिद्ध शाह नौशेरां बहुत क्रूर शासक था। उसकी क्रूरता से सारा देश व्यथित था। कुछेक मन्त्रियों ने एक प्रयास किया और शाह का दृष्टिकोण बदलने लगा। धीरे-धीरे उसकी क्रूरता धुल गई और वह अधिक मृदु और न्यायप्रिय बनने लगा | उसके न्याय की कहानियां सर्वत्र फैल गईं । यह चमत्कार हुआ। उसने एक नया महल बनाया। उसी के पास एक बुढ़िया झोंपड़ी में रहती थी। उसके रसोई का धुआँ महल की दीवारों को काला कर देता था । बुढ़िया के ८३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र पास गाय थी। वह गोबर करती। आने जाने वालों के पैर गोबर में लिप्त हो जाते। कुछ व्यक्तियों ने शाह के पास शिकायत की कि महल के पास से झोंपड़ी को हटा दिया जाए। शाह ने बुढ़िया को बुलाकर कहा-'बुढ़िया ! तुम अपनी झोंपड़ी कहीं अन्यत्र बना लो। मैं तुम्हें इससे बड़ी जमीन दे दूँगा। बुढ़िया बोली- 'मैं तो यहीं रहूँगी। मेरे बाप-दादे भी यहीं रहते थे। क्यों जाऊँ मैं ? सम्राट् ! मैं तो अपनी झोंपड़ी के पास आपके महल को देख सकती हूँ और आप अपने महल के पास मेरी झोंपड़ी को नहीं देख सकते ?' बादशाह मौन और स्तब्ध रह गया। बुढ़िया ने आगे कहा-'शाह ! मेरी एक बात और सुन लेना, यदि आपने जबरदस्ती मेरी झोंपड़ी यहाँ से उठा दी तो आपके राज्य का सत्यानाश हो जाएगा, क्योंकि सारी प्रज्ञा आपके विरुद्ध हो जाएगी, सभी आपका अनर्थ सोचने लगेंगे। यदि आप मेरी झोंपड़ी को यहीं रहने देंगे तो लोग सोचेंगे कि बादशाह भी बुढ़िया की झोंपड़ी नहीं उठा सका तो हम प्रजा के साथ अन्याय नहीं कर सकेंगे।' बादशाह समझ गया। पदार्थ का स्वभाव है कि वह दूसरे को सहन नहीं कर सकता। महल वाला झोंपड़ी को सहन नहीं कर सकता। झोंपड़ी वाला यदि महल को सहन नहीं करता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, क्योंकि उसके मन में एक प्रतिक्रिया होती ही है। उसमें ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा जागे, यह अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु आश्चर्य तब होता है जब महल झोंपड़ी को अपने पास बने रहने में सहन नहीं करता। ईर्ष्या और स्पर्धा ने भोगवादी संस्कृति का यह रूप हमारे सामने प्रस्तुत कर इसे प्रस्थापित कर दिया। इसी के कारण सामाजिक सम्बन्धों में तनाव आता है। अभी मैंने पढ़ा था कि जर्मन के कुछ विशेषज्ञों ने यह माना है कि ईर्ष्या बहुत बड़ी बीमारी है। पहले यह माना जाता था कि ईर्ष्या एक मनोभाव है, अब यह बीमारी के रूप में स्वीकृत है। उनका कहना है कि शरीर में होने वाले अनेक दर्द ईर्ष्या के कारण होते हैं। पेट में, कमर में, पीठ में, सिर में जो दर्द होता है, उसका मूल कारण है ईर्ष्या। तो तनाव पैदा करने वाले मनोभाव केवल मन को ही रुग्ण नहीं बनाते, शरीर को भी रोगग्रस्त कर देते हैं। प्रायः दर्द की चिकित्सा के लिए डॉक्टर औषधियाँ देते हैं। वह मिटता नहीं। मिटे भी कैसे ? जब वह मनोभाव जन्य है। ईर्ष्या पैदा होती है मन में और इलाज होता है शरीर का। दवा कहीं, दर्द कहीं ! इलाज कुछ और बीमारी कुछ ! यह है विपर्यास । शरीरगत बीमारी हो तब तो औषधि अपना काम करे ? पर बीमारी है मन की और इलाज चलता है शरीर का। कभी-कभी ऐसा होता है कि शरीर का सारा परीक्षण करा लेने पर भी बीमारी हाथ नहीं लगती। अब वह कैसे ठीक हो ? डॉक्टर कहता है परीक्षण के आधार ' Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध पर कहा जा सकता है कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है, कोई रोग नहीं है। पर रोगी रोग भोग रहा है। अब क्या किया जाए ? रोगी का रोग भोगना अयथार्थ नहीं है और डॉक्टर का कथन भी अयथार्थ नहीं है। यह जटिल स्थिति है। इस जटिल स्थिति में यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि कुछेक बीमारियाँ शरीर में नहीं होती, मन की होती हैं, मनोभावों की होती हैं और ये सामाजिक सम्बन्धों के असन्तुलन से पैदा होती हैं। जब तक व्यक्ति मृदु, ऋजु, ईामुक्त नहीं होता तब तक सामाजिक सम्बन्ध स्वस्थ नहीं हो सकते। सामाजिक सम्बन्धों की अस्वस्थता मन, शरीर और भावना को भी अस्वस्थ बना देती है। पहले भावना बीमार होती है, फिर मन और फिर शरीर बीमार होता है। इस स्थिति में कारण खोजा जाता है पेथोलॉजी की रिपोर्ट में, वह मिलेगा कहाँ से ? बीमारी कहीं दूसरे स्थान पर है और उसकी खोज कहीं अन्यत्र हो रही है। समाधान प्राप्त कैसे होगा ? डॉ. गांगुली बता रहे थे कि अभी तक कैंसर के जर्स पकड़ में नहीं आए। डॉक्टर और वैज्ञानिक इसकी खोज में हैं पर वे अभी नहीं मिल पाए हैं। यदि जर्स-कीटाणु मिल जाते तो उनका निश्चित ही उपचार खोज लिया जाता। पर कीटाणु प्राप्त नहीं हैं, इसलिए वह अचिकित्स्य हो रहा है। माइक्रोस्कोप की जितनी क्षमता होती है, उतनों को ही वह देख पाता है। कैंसर के कीटाणु बहुत सूक्ष्म हैं। वे माइक्रोस्कोप की पकड़ से बाहर हैं, अतः अभी तक कोई उपाय नहीं निकला है। हमारा जगत् न जाने कितना सूक्ष्म है। केवल स्थूल के आधार पर काम नहीं चलता। मन अत्यन्त सूक्ष्म है। चेतना उससे भी अधिक सूक्ष्म है। हम सामाजिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में केवल स्थूल से काम नहीं ले सकते । स्थूल के सहारे चलेंगे तो समाधान नहीं मिल सकेगा। आचार्य शुभचन्द्र का यह पद बहुत मार्मिक है-'स्थूलात सूक्ष्म-स्थूल से सूक्ष्म का आलम्बन लो। स्थूल जगत् से परे भी एक सूक्ष्म सत्ता है, उसका आलम्बन लेना चाहिए। हमारा प्रस्थान जैसे-जैसे स्थूल से सूक्ष्म की ओर होगा, वैसे-वैसे सत्यों का, रहस्यों का और सार्वभौम नियमों का पता लगता जाएगा और तब समस्याओं को सुलझाने में सहयोग मिलता रहेगा। मानवीय सम्बन्धों की जटिलता को समझना सहज नहीं है। मकान का निर्माण करते समय ईंटों को, पत्थरों को व्यक्ति ठीक-ठीक कर, तोड़-भाँजकर फिट बिठा देता है। इसमें ज्यादा कठिनाई नहीं होती। पर, आदमी को फिट बिठाना सरल नहीं होता। यह चेतना बहुत बड़ी समस्या है। चेतन सोचता है, चिन्तन करता है, कल्पना करता है, तर्क करता है, यह उसका स्वभाव है। उसमें क्रोध है, स्वार्थ है, अहं है, काम है और भी न जाने उसके भीतर कितनी-कितनी वृत्तियाँ भरी हैं। ये ही समस्याएँ उत्पन्न करती हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र मर्यादा महोत्सव के समय हमें चेतना की समस्याओं का बहुत सामना करना पड़ता है । तेरापंथ एक के अनुशासन में चलने वाला सं है। उसके सदस्य चेतनावान्, मनीषी, तर्कशील और भावनाप्रधान हैं। उनकी अपनी समस्याएँ हैं और आचार्य को उन समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। आचार्य को इसका गहरा अनुभव है। जब कभी मैं आचार्यश्री की सन्निधि में बैठता हूँ, यह चर्चा चल पड़ती है कि चैतन्य में सामंजस्य बिठाना, तनाव को दूर करना, सबसे कठिन काम है I I साधु-साध्वी बन गए, पर अभी वीतराग नहीं बने हैं। साधना कर रहे हैं। उनका जीवन सामुदायिक है, सामाजिक है। इसका अर्थ है कि उन्हें साथ में जीना है । सेवा लेना है, सेवा देना है। सारे कार्य सापक्ष हैं, परस्पर में जुड़े हुए हैं। इस स्थिति में सारे सम्बन्ध मृदु रहें, तनावपूर्ण न बनें, यह अपेक्षित है । सम्बन्धों को तोड़ा नहीं जा सकता, नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि सारा जीवन ही सापेक्ष जीवन है । कोई अकेला रह नहीं सकता, साथ ही रहना होता है । यह सापेक्षता है। जहाँ सापेक्षता है वहाँ सम्बन्ध है । प्रश्न है सम्बन्ध हो पर तनाव न हो । तनाव बीमारियाँ पैदा करता है। स्त्रियों में तनाव जनित बीमारियाँ अधिक होती हैं। उनमें घुटन होती है। जब वह घुटन बढ़ती है तब भूत दिखाई देने लग जाता है। मिरगी के दौरे प्रारम्भ हो जाते हैं । सम्बन्धों में तनाव न हो तो बीमारी नहीं हो सकती । स्त्रियाँ अधिक संवेदन करती हैं, इसलिए सम्बन्धजनित तनावों से उनमें अधिक बीमारियाँ होती हैं। पुरुष कम संवेदन करता है। वह कम बीमार होता है। मर्यादा महोत्सव के अवसर पर सैकड़ों साधु-साध्वी एकत्रित होते हैं । आचार्य उनकी रिपोर्ट लेते हैं। एक होती है लिखित रिपोर्ट और एक होती है मौखिक रिपोर्ट। इस मौखिक रिपोर्ट को हमारी भाषा में 'पृच्छा' कहा जाता है । एक-एक 'ग्रुप' को आचार्य के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है। आचार्य उनसे पहला प्रश्न पूछते हैं- 'कहो, आपस में चित्त - समाधि कैसी रही ? इतने वर्षों के बाद (एक, दो, तीन या पाँच वर्ष ) आए हो, आपस में मनमुटाव तो नहीं हुआ ? चित्त-समाधि बनी रही ?' इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य, स्वाध्याय, प्रचार-प्रसार, क्षेत्र आदि के विषय में पूछा जाता है। पर पहला प्रश्न होता है चित्त के स्वास्थ्य का, पारस्परिक व्यवहार की मृदुता और सरलता का । यदि चित्त-समाधि नहीं रही है तो इसका अर्थ है कि तनाव बन रहा है । सम्बन्धों में समता और कोमलता नहीं रही है । इस समस्या को समाहित करना, उन-उन व्यक्तियों को पुनः सही स्थान पर . बिठाना, जहाँ उनकी चित्त - समाधि बनी रहे, यह कठिनतम कार्य है । जब साधुओं के ग्रुप की पृच्छा होती है तब मैं और आचार्यश्री के अतिरिक्त और कोई नहीं रहता और जब साध्वियों के ग्रुप की पृच्छा होती है तब हम दोनों और साध्वी ८६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध ८७ प्रमुखा रहती हैं। सम्बन्धित ग्रुप के साधु-साध्वियों के सिवाय अन्य साधु-साध्वियों को वहाँ नहीं रखा जाता। यह पूछा एकान्त में होती है। इस पृच्छा में आचार्यश्री को बहुत समय लगाना पड़ता है और फिर साधु-साध्वियों के उचित स्थान का गहरा चिन्तन कर उन्हें फिट करना होता है। किस साधु को किस साधु के पास फिट करना उचित रहेगा और किस साध्वी को किस साध्वी के पास फिट करना उचित रहेगा, इसका गहरा चिन्तन करना पड़ता है। इस चिन्तन में व्यक्ति की प्रकृति का पूरा लेखा-जोखा कर लेना होता है। यह सबसे कठिन कार्य है। अचेतन को काट-छाँटकर फिट किया जा सकता है, पर चेतन की काट-छाँट बड़ी कठिन होती है। चेतन में परस्पर सामंजस्य स्थापित करना, तनावों को दूर करना, मानसिक सामंजस्य बिठाना, बहुत बड़ी समस्या है। यदि इसका कोई गुर हमें मिल जाए तो मानवीय सम्बन्धों में सुधार किया जा सकता है। ऐसा होने पर पचास प्रतिशत बीमारियाँ स्वतः निरस्त हो जाती हैं, मानसिक समस्याएँ भी समाहित हो जाती हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-निर्माण के दो घटक १. व्यक्ति का समर्पण दुनिया में सबसे कठिन काम है निर्माण करना। निर्माण में भी सबसे कठिन होता है व्यक्ति का निर्माण और दृष्टिकोण का निर्माण। व्यक्ति के पास स्व-निर्माण के लिए बहुत कम समय बचता है। जोधपुर नरेश मानसिंहजी के पास एक चौधरी ने आकर एक पैसा फेंका और कहा-'महाराज ! राज्य का इतना ही हक है। नरेश देखते रह गए। उन्होंने सोचा, इतना ही हक कैसे ? चौधरी बोला- हुजूर ! एक रुपया हम कमाते हैं तो उसमें से आठ आना हाकिम को, चार आना पटवारी को, दो आना कोतवाल को और एक आना चपरासी को देना पड़ता है। पीछे चार पैसे बचते हैं। तीन पैसे हम रखते हैं तो एक पैसा पीछे बचता है, वह सरकार के खजाने के लिए है।' व्यक्ति की भी यही अवस्था है। उसके पास तीन पैसे बचते हैं, शेष दूसरों को देना पड़ता है। किसी को आठ आने, किसी को चार आने और किसी को एक आना। एक रुपया आएगा तो आठ आने वासनाओं को, चार आने आहार की लोलुपता को, दो आने व्यर्थ की बातों को और एक आना आलस्य और प्रमाद को देना पड़ता है। फिर अपने लिए एक आना बचता है। व्यक्ति का निर्माण कैसे हो, बड़ी कठिनाइयाँ हैं। व्यक्ति अपने लिए कुछ भी नहीं बचा पाता। आयुर्वेद में एक मार्मिक प्रसंग आता है कि चरक ने 'राजयक्ष्मा' रोग की चर्चा की उसकी चिकित्सा बताने से पूर्व उन्होंने एक अवतरणिका लिखी। वह मार्मिक है। लगता है वह अवतरणिका आयुर्वेद ग्रन्थ की नहीं, किसी धर्म-ग्रन्थ की है। __शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव ! यह राजयक्ष्मा रोग क्यों होता है ? कैसे होता है ?' गुरु ने कहा- एक बार देवताओं और महर्षियों में इस विषय की चर्चा चली। देवताओं ने मर्म बताते हुए कहा, सबसे पहले इस राजरोग की बीमारी चन्द्रदेव को हुई। उसका कारण था कि राजा चन्द्रदेव ने २८ विवाह किए। वह अपने शरीर की चिन्ता छोड़कर विषय भोग में रत रहने लगा। उसका सारी वीर्य और ओज समाप्त Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-निर्माण के दो घटक हो गया और वह राजरोग से ग्रस्त हो गया। सबसे पहले यह रोग राजा को हुआ और फिर उसका संक्रमण मनुष्यों में हुआ। कथा का निष्कर्ष यह है कि वासना और आवेग की वृत्तियाँ राजयक्ष्मा, कैंसर आदि बड़ी बीमारियों को जन्म देती हैं। इनका सहज निराकरण अध्यात्म के सूत्रों से हो सकता है। इस दृष्टि से धर्म और अध्यात्म केवल पारलौकिक यात्रा के लिए ही उपयोगी नहीं है, किन्तु यह वर्तमान जीवन को स्वास्थ्यप्रद, आनन्दप्रद और शक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए भी उपयोगी है। शान्तिपूर्ण और ओजपूर्ण जीवन जीने का यह अपूर्व विज्ञान है। व्यक्ति इस विद्या से निर्मित होकर समाज के आधार को सुदृढ़ बना सकता है। व्यक्ति से मेरा तात्पर्य है त्रिपदी-युवक, अभिभावक और शिक्षक। इन तीनों का समाहार व्यक्ति है। आज के युवा की जो तस्वीर बनी है, उसमें कुछ रेखाएँ बहुत उभरी हैं और कुछ अस्पष्ट हैं। वुद्धि की रेखा बहुत उभरी है। उसमें सतरंगी चमक-दमक दिखाई दे रही है। उसके साथ तर्क की रेखा भी उभरकर सामने आई है। तर्क असहिष्णुता को जन्म देता है। असहिष्णुता व्यक्ति को आक्रामक वनाती है। इस स्थिति में अनुशासन और चरित्र की रेखाएँ अस्पष्ट हो गईं। उनके रंग फीके-फीके से लग रहे हैं। यह तस्वीर दूर से अच्छी लगती है, किन्तु पास से अच्छी नहीं भी लगती। आज का युवा बौद्धिक दृष्टि से बहुत समृद्ध हुआ है। मानसिक और भावनात्मक दृष्टि से वह समृद्ध नहीं है। इस एकांगी विकास का कारण केवल युवक नहीं, पूरा समाज है। समाज का रथ अनुशासन और चरित्र के पहियों के बल पर आगे बढ़ता है। पर उनके लिए कोई उपक्रम नहीं किया गया। अनुशासनहीनता और चरित्र विकास की कमी के लिए केवल युवक दोषी नहीं अभिभावक और शिक्षक भी युवक के साथ हैं। ___ मानसिक विकास और भावनात्मक विकास की दिशा को उद्घाटित किए बिना अनुशासन और चरित्र का विकास नहीं किया जा सकता। हमारी दृष्टि में वर्तमान समस्या का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है-असन्तुलन । बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास में सन्तुलन स्थापित कर समस्या की जटिलता को कम किया जा सकता है। इस सन्तुलन की स्थापना के लिए केवल युवक के मानस को बदलने की बात पर्याप्त नहीं है। इसके लिए त्रिकोणात्मक अभियान अपेक्षित है। अभिभावक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र बदले, व्यवस्था व परिस्थिति बदले और युवक का मानस बदले। यह परिवर्तन केवल उपदेश या समझाने-बुझाने से हो सकेगा, यह भी सम्भव नहीं है । इसे प्रयोगात्मक भूमिका अपनाकर ही सम्भव किया जा सकता है। जीवन शैली को बदलने का एक प्रयोग हमने निर्धारित किया है। उसका नाम है जीवन - विज्ञान | उसके द्वारा विद्यार्थी या युवक की जीवन-शैली को बदला जा सकता है । यह बदलाव आरोपित नहीं होगा। यह सर्वथा आन्तरिक है। अभी तक बच्चा अपनी छाया की चोटी पकड़ने की असफल चेष्टा कर रहा है। कोई समझदार आए और स्वयं की चोटी पर हाथ थमा दे तो छाया की चोटी अपने आप पकड़ में आ जाए। भौतिकवादी या पदार्थवादी दृष्टिकोण का निर्माण कर अनुशासन व चरित्र का विकास नहीं किया जा सकता । अध्यात्मवादी या आत्म-निरीक्षण की दृष्टि का निर्माण करने पर ही उसकी सम्भावना की जा सकती है। ६० २. दृष्टिकोण का निर्माण दृष्टिकोण का प्रश्न महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । मैं इसकी चर्चा अध्यात्म के मंच से 1. कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ प्रत्येक व्यक्ति में आध्यात्मिक चेतना का जागरण हो । जिसमें भीतर की चेतना नहीं जागी, जिसने अपने आपको देखने का प्रयत्न नहीं किया, वह अपने दृष्टिकोण को भी नहीं समझ पाता, वह दूसरे को समझ लेता है, यह मानना बड़ी भ्रान्ति है। जो अपने आपको जानता है, पहचानता है, समझता है, वह दूसरों को भी जान सकेगा, पहचान सकेगा, समझ सकेगा । अन्यथा ऐसा सम्भव नहीं है । यह न केवल अध्यात्म की दृष्टि से, किन्तु तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भी ध्रुव सत्य है । दृष्टिकोण उसी का सहा हो सकता है, जो अपने आपको जानता है। इसे अध्यात्म की भाषा में 'भेद - विज्ञान' कहा जाता है। यही विवेक है। विवेक का अर्थ है - पृथक्करण करना । चेतन और अचेतन दोनों का संयोग है जीवन । ये दोनों इतने जुड़े हुए हैं कि जव तक इनका भेद-विज्ञान नहीं होगा, तब तक आदमी सत्य को नहीं पा सकता। भेद - विज्ञान के सम्बन्ध में दो प्रश्न उपस्थित होते हैं १. क्या हम पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से देखते हैं या मूर्च्छा की दृष्टि से ? २. क्या हम साधना को साधना की दृष्टि से देखते हैं या साध्य की दृष्टि से ? यदि हम पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से नहीं देखते हैं और हम गहरी मूर्च्छा से ग्रस्त हैं तो हमारा दृष्टिकोण सही नहीं होगा। उस व्यक्ति का दृष्टिकोण सही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज निर्माण के दो घटक ૧ होता है जो साधना को मात्र साधन मानता है, साध्य नहीं । उस व्यक्ति का दृष्टिकोण सही होता है जो पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से या उपयोगिता की दृष्टि से देखता है किन्तु अपने अस्तित्व की दृष्टि से नहीं देखता । 1 जब तक शरीर है, तब तक अनेक साधन अपेक्षित होते हैं। कपड़ा, मकान, रोटी - ये जब साधन मात्र रहते हैं, वहाँ अध्यात्म या धर्म खण्डित नहीं होता और जहाँ ये साधन बन जाते हैं, वहाँ धर्म खण्डित हो जाता है । दृष्टिकोण के परिवर्तन के साथ ही यह स्पष्ट आभासित हो जाता है कि साधन साधन होता है, साध्य नहीं । जब साधन साध्य बन जाता है तब समस्या पैदा होती है। धन जीवन निर्वाह का साधन है । किन्तु जब यह साध्य बन जाता है तब आदमी अकरणीय कार्य करने में भी नहीं हिचकता। आज पदार्थ साधन नहीं रहा, वह साध्य बन गया है। यह भेद समाप्त हो गया है कि पदार्थ पदार्थ है, जड़ जड़ है और चेतन चेतन है । जड़ में संवेदन नहीं होता । चेतन में संवेदना है, अनुभव की शक्ति है । यदि आदमी को चेतना की शक्ति और संवेदना का सही ज्ञान हो तो वह दूसरे के प्रति क्रूर व्यवहार नहीं कर सकता। जैसे मैं सुख-दुःख का संवेदन करता हूँ, प्रिय-अप्रिय का अनुभव करता हूँ, अनुकूल परिस्थितियों में प्रसन्न और प्रतिकूल परिस्थितियों में चिन्तातुर होता हूँ, वैसे ही प्रत्येक प्राणी में संवेदन होता है। जिस व्यक्ति में संवेदनशीलता की यह सचाई जाग्रत हो जाती है तो आदमी इतना क्रूर नहीं हो सकता, जितना वह आज है । जब पदार्थ केन्द्रस्थ हो जाता है, तब मनुष्य गौण बन जाता है। इसीलिए आज मनुष्य का मूल्य कम है और पदार्थ का मूल्य अधिक है। पदार्थको मूल्य देने वाला आदमी है। मूल्य देने वाला स्वयं मूल्यहीन हो गया और मूल्यहीन पदार्थ स्वयं मूल्यवान् बन गया। जितनी पारिवारिक लड़ाइयाँ या संघर्ष होते हैं, उनका मूल यही है कि आदमी की दृष्टि में मूल्य है पैसे का । आदमी या सम्बन्ध का कोई मूल्य नहीं है । जहाँ पैसे का मूल्य बढ़ता है वहाँ आदमी का मूल्य घट जाता है इस स्थिति में लड़ाइयाँ या संघर्ष मिट नहीं सकते। यह तब मिट सकता है जब आदमी का मूल्य बढ़ता है और पैसे का मूल्य कम होता हैं, जब आदमी प्रधान होता है और पैसा गौण होता है । किन्तु आदमी ने अपना मूल्य बहुत खो दिया है । संस्कृत कवि ने एक मार्मिक श्लोक कहा है ' अग्निदाहे न मे दुःखं, न दुःखं लोहताडने । इदमेव महद् दुःखं, गुञ्जया सह तोलनम् ॥' एक बार स्वर्ण ने स्वर्णकार से कहा- तुम मुझे अग्नि में पिघलाते हो, हथौड़े से पीटते हो, इसका मुझे दुःख नहीं है। दुःख बस इस बात का है कि तुम मुझे घुघचियों से तोलते हो । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ समाज-व्यवस्था के सूत्र यही आज मनुष्य कर रहा है। क्योंकि उसका दृष्टिकोण सही नहीं है। यदि दृष्टिकोण सही हो तो यह स्थिति बन नहीं सकती। आप स्वयं सोचें कि आज आदमी मूल्यवान है या पदार्थ ? पदार्थ भोग्य है. उसका मूल्य नहीं है। आदमी उसको मूल्य देता है। यदि ऐसा सोचा जाता है तो वह सही दृष्टिकोण है। परन्तु यदि ऐसा सोचा जाता है कि मूल्य तो पदार्थ का है, क्योंकि उसके बिना जीवन चल नहीं सकता। मूल्य तो धन का है, क्योंकि जीवन उसके विना चल नहीं सकता। मूल्य तो धन का है; क्योंकि जीवन की प्रत्येक आवश्यकता उससे पूरी होती है। यह गलत दृष्टिकोण है। ऐसा क्यों नहीं सोचा जाता कि आदमी के बिना काम कैसे चलेगा। आदमी के विना पदार्थ का उपयोग कौन करेगा? .. ो समझने का सबसे बड़ा सूत्र है-भेदविज्ञान। जैन सोन: ।। बहुत बल दिया कि जब तक चेतन और जड़ का भेद स्पप्ट नहीं होता, तव ... भ का 'अ, आ' भी समझ में नहीं आता। जब भेदविज्ञान का सूत्र स्पष्ट हो जाता है, तव दृष्टिकोण भी सही बन जाता है। सही दृष्टिकोण के विना मंजिल प्राप्त नहीं हो सकती। सही दृष्टिकोण के अभाव में तपस्याएं, साधनाएँ भी उतना फल नहीं दे सकतीं, जितना देना चाहिए। हम अपने दृष्टिकोण को सम्यक् करने का प्रयत्न करें और उसके आलोक में जीवन को प्रकाशमय बनाएँ। समाज-निर्माण के दोनों घटकों-व्यक्ति का निर्माण और दृष्टिकोण का निर्माण-को सही-सही समझकर हम समाज-निर्माण में अपना योगदान दें। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .जैन विश्व D, जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मरती लाडनू Education International स