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________________ महावीर की समाज-व्यवस्था ७३ आतंकवादियों ने इतने आदमियों को मार डाला। अमुक जगह लड़ाई हो गई। क्रान्ति हुई और रक्तपात हो गया। शरीर में सारा संस्कार तो रक्तपात का ही जा रहा है तो फिर आदमी आदमी को क्यों नहीं मारेगा ? अनर्थ-हिंसा होगी तो फिर हिंसा का इतना विस्तार होगा कि आदमी को आदमी मारे बिना रह नहीं सकता। भगवान् महावीर ने सूत्र दिया-अनर्थ-हिंसा मत करो। उतनी हिंसा आदमी किए बिना नहीं रह सकता जो जीवन चलाने के लिए अनिवार्य होती है। पर यह मान लिया कि आदमी के लिए जो किया जाए, वह सब किया जा सकता है। भगवान् महावीर ने एक स्थाई मूल्य दिया था 'अनर्थदण्ड विरति'-अनावश्यक हिंसा का परित्याग, अनावश्यक भोग का परित्याग। उसमें बड़े कारखाने का स्वामित्व और बड़े हिंसक व्यापारों का वर्जन अपने आप आ गया। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था यह समाज-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण सूत्र था। जिसका पुनरोच्चारण महात्मा गाँधी ने भी किया था। इसका मूल आधार भगवान् महावीर की समाज-व्यवस्था में प्राप्त है। अल्प आरम्भ, अल्प हिंसा और अल्प परिग्रह, इसका मतलब है विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था। महावीर ने एक और महत्त्वपूर्ण बात कही, वह है, शस्त्रों पर नियन्त्रण। यह निःशस्त्रीकरण का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। महावीर की आध्यात्मिक समाज-व्यवस्था में चलने वाला व्यक्ति न तो शस्त्रों का निर्माण ही करेगा और न शस्त्रों का संयोजन ही करेगा। यह निःशस्त्रीकरण की बात संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण के बाद की बात नहीं है, दूसरे महायुद्ध के बाद की बात नहीं है, २५०२ वर्ष पहले की बात है।। इन व्रतों के बाद साधना का एक व्रत दिया, वह है समानता की साधना का व्रत। इस व्यवस्था में चलने वाले व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन समता की साधना करनी जरूरी है। अन्तिम बात है-विसर्जन। इसका अर्थ है-अतिथि संविभाग करना, अपने स्वामित्व को छोड़ना। अब प्रश्न रहा कि क्या ऐसा कोई समाज बना ? उत्तर होगा-नहीं बना। व्यक्ति तो सैकड़ों बने और हजारों बने, पर समाज नहीं बना। क्यों नहीं बना ? यह समाज की प्रकृति के अनुकूल बात नहीं है। समाज बनता है नियन्त्रण के साथ। इतना मानस प्रबुद्ध नहीं कि मनुष्य अध्यात्म को स्वीकार कर ले। बौद्धिक विकास तो है। बुद्धि हमेशा नियन्त्रण को मान लेती है पर ऐच्छिक नियन्त्रण या आत्मानुशासन को नहीं मानती। यह बुद्धि की अपनी दुर्बलता है। इसलिए समाज तो नहीं बन सकता। इस व्यवस्था ने समाज की अन्तर आत्मा को अवश्य प्रभावित किया है। २५०० वर्ष का ही इतिहास देखें। समाज व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व ये ही माने गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003110
Book TitleSamaj Vyavastha ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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