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________________ महावीर की समाज-व्यवस्था जरूरी है । अनाक्रमण होगा तभी अभय का विकास होगा । समाज व्यवस्था का मूल तन्त्र है -अहिंसा । अहिंसा का अर्थ है - अभय का विकास और अनाक्रमण का विकास । यह जंगल का कानून है कि एक शेर दूसरे प्राणियों को खा जाता है। एक बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह समुद्र का कानून है। जहाँ भय होता है वहाँ समाज नहीं बनता । समाज बने और चले, समाज व्यवस्था स्थाई रहे, उसके लिए दो अनिवार्य शर्तें हैं-अभय और अनाक्रमण । इन दोनों का समुच्चय है अहिंसा । जो राष्ट्र परस्पर युद्ध करते हैं वे ही राष्ट्र युद्ध के बाद परस्पर अनाक्रमण सन्धियाँ करते हैं । युद्ध के बिना भी अनाक्रमण की सन्धियाँ होती हैं। एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करेगा, किसी का अपहरण नहीं करेगा, ये सन्धियाँ होती हैं, इसलिए कि समाज शान्ति के साथ रह सके । शान्ति समाज का आधार है । शान्ति का आधार है अनाक्रमण और अभय की भावना का विकास। गृहस्थ की आचार-संहिता का पहला सूत्र महावीर ने दिया अहिंसा । यह समाज व्यवस्था का • सबसे मजबूत आधार माना जाता है। I दूसरी बात है विश्वास । परस्पर विश्वास होता है तभी समाज बनता है । विश्वास के बिना समाज नहीं बनता। हजारों-हजारों घर एक-दूसरे से सटे हुए हैं। ऐसी दीवार बनी हुई है कि एक-दूसरे को लाँघकर आया-जाया जा सकता है परस्पर विश्वास रहता है और उसी के आधार पर काम चलता है, दुकानें चलती हैं, कारोबार चलता है। विश्वास के लिए दो बातें जरूरी हैं- सत्यनिष्ठा और सामाजिकता - सत्य और अचौर्य । जहाँ चोरी होती है वहाँ विश्वास नहीं होता 1 जहाँ झूठ बोला जाता है वहाँ विश्वास नहीं होता। जब कोई किसी को नौकर रखता है सबसे पहले देखता है कि यह चोरी तो नहीं करता, झूठ तो नहीं बोलता । ये दो बातें पहले देखता है । जहाँ ये दो बातें होती हैं तो कोई किसी को नौकर रखता भी नहीं है । ६६ एक बार तीन आदमी एक साथ यमराज के घर पहुँचे। उस दिन यमराज का जन्म-दिन मनाया जा रहा था । यमराज ने कहा- 'भाई ! आज तुम आए हो और आज मेरा जन्म दिन है। तुम क्या चाहते हो ?' एक ने कहा- 'मैं रत्नों का व्यापारी हूँ, जौहरी हूँ और बहुत सारे रत्न खरीदे हैं। दुकान ऐसे ही पड़ी है। मन है कि फिर चला जाऊँ और अपनी दुकान में जाकर बैठूं और कुछ और रत्नों की व्यवस्था करूँ। और कुछ नहीं चाहता।' दूसरे से पूछा - 'तुम क्या चाहते हो ?' वह भी बड़ा व्यापारी था। उधार काफी बाकी था। उसने कहा- 'मैं तो मर गया और यहाँ आ गया। मन है कि वापस जाऊँ और जितना बाकी है उसकी उगाही करूँ और रुपया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003110
Book TitleSamaj Vyavastha ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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