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________________ प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन ३५ व्यक्ति, महापुरुष। वह जिस रास्ते से गया है, वही मार्ग है। उसका चुनाव करो। हजार आदमी उसके विपरीत मार्ग पर चल सकते हैं, पर वह मार्ग नहीं बन सकता। मार्ग वही होता है, जिस पर सत्यनिष्ठ आदमी चल पड़ता है। आज अर्थ-व्यवस्था के तीन घटक माने जाते हैं-प्रतिस्पर्धा, प्रदर्शन और विकास । यह बहुमत मानता है, पर यह सचाई नहीं है। प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन की वात एक सीमा तक मान्य हो सकती है। क्योंकि आदमी समाज में जीता है। वह सामाजिक व्यक्ति है, वीतराग नहीं है। पर प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में हम इसके साथ विकास के अर्थ का परिष्कार, प्रतिस्पर्धा का परिष्कार और प्रदर्शन की मनोवृत्ति का परिष्कार-ये बातें जोड़ सकते हैं। तीनों के साथ परिष्कार की बात को जोड़ दें। प्रदर्शन को दर्शन बना दें। विकास के केन्द्र में चैतन्य हो और पदार्थ परिधि में रहे। यह विकास का परिष्कार हो जाएगा। साधनशुद्धि के विवेक के साथ प्रतिस्पर्धा होती है तो वह प्रतिस्पर्धा का परिष्कार है। प्रतिस्पर्धा के साथ साधनशुद्धि का विवेक, विकास के साथ केन्द्र में मनुष्य या चैतन्य की स्थापना और परिधि में पदार्थ तथा प्रदर्शन में दर्शन का योग यह है-परिवार की बात। प्रेक्षाध्यान का प्रयोजन है-वृत्तियों का परिष्कार। जब तक वृत्तियाँ नहीं सुधरती तब तक व्यवस्थाएँ नहीं सुधर सकतीं। पहले वृत्तियों का परिष्कार होना चाहिए, फिर व्यवस्थाएँ सुधर जाएँगी। क्योंकि जो परिष्कार करने वाला है, परिष्कर्ता है, उसके भीतर में है वृत्तियाँ और बाहर में है व्यवस्था । व्यवस्था आदमी के लिए है। यह सारा बाह्य वातावरण है। बाह्य परिस्थिति है। व्यवस्था बाह्य है और जो व्यवस्था करता है वह भी बाहरी साधनों से करता है। उसके भीतर में हैं वृत्तियाँ। ये वृत्तियाँ यदि परिष्कृत हो जाती हैं तो व्यवस्था भी परिष्कृत हो जाती है। वृत्तियाँ अपरिष्कृत रहें और व्यवस्था परिष्कृत हो जाए, यह सम्भव नहीं है। लोगों की शिकायत है कि जो सत्ता में आ रहे हैं वे अच्छे लोग नहीं हैं। सत्ता पर आने वाले इसी समाज से तो आते हैं जिस समाज में वृत्तियों का परिष्कार नहीं है। तो अपरिष्कृत वृत्तियों को लेकर जो भी आते हैं उनसे खतरा ही खतरा है। चाहे वे फिर शिक्षा के क्षेत्र में जाएँ, रक्षा के क्षेत्र में जाएँ या धर्म के क्षेत्र में जाएँ। आज धर्म को उन लोगों से बड़ा खतरा है जिन्होंने वृत्तियों का परिष्कार तो किया नहीं और धर्म की पीठ पर आकर बैठ गए। उन लोगों से सत्ता को भी खतरा है, जिन लोगों की वृत्तियाँ अपरिष्कृत हैं। मूल प्रश्न है वृत्तियों का परिष्कार। जैसे-जैसे वृत्तियों का परिष्कार होगा व्यवस्थाओं में अपने आप परिष्कार आएगा। व्यवस्थाओं को दोष देना व्यर्थ है। दोष देना चाहिए वृत्तियों को। वृत्तियाँ परिष्कृत होंगी तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003110
Book TitleSamaj Vyavastha ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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