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________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ४५ वैयक्तिकता को सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता। समाज की अपेक्षा है स्वार्थ का विस्तार और व्यक्ति की वैयक्तिकता की सीमा है-स्वार्थ का सम्पोषण और संवर्धन । इन दोनों में विरोध है इसलिए सामाजिक व्यक्तित्व भी संघर्ष से मुक्त नहीं है। एक ओर स्वार्थ-त्याग की अपेक्षा है तो दूसरी ओर स्वार्थ-सम्पोषण की बाध्यता है। यह है सामाजिक व्यक्तित्व का विरोधाभास । सामाजिक जीवन में इससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। _दूसरा है-आर्थिक व्यक्तित्व । व्यक्ति अपने जीवन की सारी आवश्यकताएँ अर्थ के माध्यम से पूरी करता है। रोटी और पानी से लेकर जीवन की सारी आवश्यकताएँ अर्थ के माध्यम से पूरी होती हैं, इसलिए अर्थ को छोड़ा नहीं जा सकता। अर्थ एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ है। आर्थिक व्यक्तित्व की भी कुछेक मर्यादाएँ हैं। अर्थ-व्यवस्था में यह मान्य सूत्र है कि कुछेक व्यक्तियों को या एक व्यक्ति को अनधिकृत अर्थ का संग्रह नहीं करना चाहिए। यह मर्यादा आज की नहीं, पुरानी है। हजारों-हजारों वर्ष पहले की मर्यादा है। यह कोई साम्यवाद की उपज नहीं है। स्मृति-ग्रन्थों में कहा गया है 'यावद् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योभिमन्येत, स स्तेनो वधमहंत ॥' इसका तात्पर्य है कि पेट भरने के लिए जितना धन आवश्यक होता है, उस पर व्यक्ति का अधिकार है, वह उसका स्वत्व है। जो अधिक को अपना मानता है, अपना स्वत्व या सम्पत्ति मानता है, उस पर वैयक्तिक अधिकार मानता है, वह चोर है। वह वध के योग्य है। यह हजारों वर्ष पहले की मर्यादा है, नई नहीं है। इसका फलित है कि व्यक्ति के पास अधिक सम्पत्ति नहीं होनी चाहिए। व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होनी चाहिए। यह सीमा बहुत छोटी लगती है। इस पर आश्चर्य भी होता है। आज की साम्यवादी व्यवस्था में भी सम्पत्ति का इतना अल्पीकरण नहीं है। यद्यपि साम्यवादी व्यवस्था में अगली पीढ़ी को सम्पत्ति का अधिकार नहीं मिलता, फिर भी उसमें सम्पत्ति की सीमा इससे कुछ अधिक है। पर स्मृतिकार ने यहाँ तक लिख दिया कि पेट भरने के लिए जितना चाहिए, उससे ज्यादा रखना चोरी है। ___ अर्थ के विपय में समय-समय पर अनेक मर्यादाएँ वनी हैं, आज भी बन रही हैं। यह नहीं कि जिस व्यक्ति में व्यावसायिक बुद्धि है, वह जितना चाहे उतना । एकत्रित करे और जितना चाहे उतना भोग करे। आर्थिक व्यक्तित्व भी विरोधाभासों से भरा पड़ा है। इस क्षेत्र में भी वैपम्य की बहुलता है। इतना वैषम्य कि एक ओर ढेर है तो दूसरी ओर गढ़ा है। जव गढ़ा होता है तभी ढेर बनता है। जब ढेर होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003110
Book TitleSamaj Vyavastha ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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