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निसर्ग है, यह कोई थोपी हुई बात नहीं है ।
यह माना जाता है कि समाज का विकास अर्थ के आधार पर होता है । आर्थिक उन्नति और अवनति के आधार पर ही समाज बना-बिगड़ता है। इस आर्थिक युग में यह बात बहुत स्पष्ट रूप से मान ली गई है कि समाज की रीढ़
अर्थ | इसमें कोई सन्देह नहीं है। प्राचीन काल में चार पुरुषार्थ की चर्चा उपलब्ध होती है। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । कौटिल्य आदि महान् अर्थशास्त्रियों ने कहा- " अर्थ एव प्रधानम्" । इन चार पुरुषार्थों में अर्थ ही प्रधान है । काम, धर्म और मोक्ष ये गौण हैं । अर्थ समूचे संसार का संचालन करता है । इसी आर्थिक प्रधानता के कारण यह मान लिया गया है कि मूल समस्या है अर्थ की।
समाज-व्यवस्था के सूत्र
पर हमें सोचना है कि वास्तविक समस्या आर्थिक है या मानसिक ? बाहर से यह प्रतीत होता है कि मनुष्य समाज की वास्तविक समस्या है - आर्थिक । अब प्रत्येक व्यक्ति अर्थ की परिक्रमा कर रहा है। धर्म भी उसी अर्थ की परिक्रमा कर रहा है । यह आश्चर्य की बात है। धर्म की रीढ़ है त्याग । धर्म अर्थ के त्याग की बात सिखाता है, पर आज धर्म की उपासना इसलिए करते हैं कि अर्थार्जन अच्छा हो, कमाई अच्छी हो, सम्पत्ति बढ़े। इस प्रकार धर्म अर्थ की ही परिक्रमा कर रहा है इससे ऐसा लगता है कि केन्द्र में अर्थ है और पूरा समाज उसी की परिक्रमा कर रहा है। तो क्या आर्थिक समस्या ही वास्तविक समस्या है ? अनेक धुरन्धरों ने इसे ही वास्तविक माना है । अनेक अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और दार्शनिकों ने ऐसी जीवन प्रणालियाँ प्रस्तुत कीं, जिनके द्वारा समाज की आर्थिक समस्या का समाधान हो सके, गरीबी और आर्थिक विषमता मिट सके और समाज में समता स्थापित हो सके। इन प्रणालियों में समाजवादी और साम्यवादी प्रणालियाँ आर्थिक विषमता मिटाने के लिए कारगर प्रणालियाँ मानी गई हैं। आर्थिक समस्या के सुलझ जाने पर समाज चतुर्मुखी विकास कर सकता है। एक बात बहुत स्पष्ट है कि जब आदमी को खाने के लिए रोटी सुलभ नहीं होती, तब दूसरी बात पर ध्यान केन्द्रित करना उसके लिए कठिन हो जाता है। संस्कृत में बहुत सुन्दर कहा है- "बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते ।” भूखा आदमी व्याकरण को नहीं खा सकता और प्यासा आदमी काव्य रस का पान कर प्यास नहीं बुझा पाता । भूखे को रोटी और प्यासे को पानी चाहिए। भूख और प्यास- ये जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। जब तक इनकी पूर्ति नहीं होती तब तक आगे का विकास हो नहीं सकता। भूख और प्यास का मूलभूत प्रश्न अर्थ के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए हमें लगता है कि आर्थिक समस्या ही वास्तविक समस्या है।
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