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________________ सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना ६३ एक कहानी है। सभी खरगोश एकत्रित हुए। उन्होंने सोचा - सभी लोग हमको सताते हैं । हम इधर से उधर और उधर से इधर भागते-फिरते हैं । यह भी कोई जीवन ? इससे तो अच्छा है कि हम पास वाले तालाव में जाएँ और डूबकर मर जाएँ। हमारा जीवन व्यर्थ है । वे सब तालाब के पास पहुँचे। उनके पदचाप सुनकर तालाब के किनारे बैठे हुए मेढक पानी में कूद गए। अब सभी खरगोश जल समाधि लेने की तैयारी करने लगे। उसी समय एक बूढ़े खरगोश ने कहा- देखो ! हमने पूरी बात नहीं सोची। हमने यही माना है कि हम सबसे छोटे प्राणी हैं और इसीलिए हमें जीने का अधिकार नहीं है। पर देखो, ये मेढक हमसे कितने छोटे हैं। ये भी जी रहे हैं। हम क्यों मरें ? आत्महत्या क्यों करें ? सबका निर्णय बदल गया, सभी दौड़ते-उछलते चले गए । खरगोशों को स्थविर मिल गया। बोधपाठ देने वाला, स्थिर करने वाला मिल गया और वे सब पूर्ववत् स्थिर हो गए। अध्यात्म स्थिरता लाने वाला महत्त्वपूर्ण बोधपाठ है । अध्यात्म का सूत्र है - सम्बन्धातीत चेतना का जागरण। अनगार का अर्थ है - वह व्यक्ति जो घर छोड़ चुका है अर्थात् साधु। इसका एक विशेषण है - संजोगा विप्पमुक्क- जो सभी संयोगों से मुक्त हो जाता है, सम्बन्धातीत चेतना जाग जाती है, वह होता है अनगार । संयोगमुक्ति का अर्थ है-सम्बन्धातीत चेतना का विकास। जब तक यह चेतना नहीं जागती तब तक संयोगों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, कोई अनगार नहीं बन सकता, घर का त्याग नहीं कर सकता । एक प्रश्न होता है कि इस युग में तृष्णा का बहुत विकास हुआ है। इसका उपचार क्या है ? तृष्णा की वृद्धि में आनुवंशिकता का बहुत बड़ा हाथ है। यह संस्कार विरासत से प्राप्त है। उसका प्रतिकार कैसे हो - यह चिन्तन का विषय बनता है । प्रतिकार का सूत्र है - सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना का समन्वय । दोनों का जागरण साथ-साथ हो । यदि केवल सम्बन्धों की चेतना ही जाग्रत होती है तो जीवन में धोखा और छलावा ही प्राप्त होता है । इसीलिए व्यक्ति को जितनी जरूरत होती है सामाजिकता और सामाजिक सम्बन्धों की, उतनी ही जरूरत है आध्यात्मिकता की, धार्मिक चेतना की और सम्वन्धातीत चेतना की । परन्तु आदमी एक पक्ष को गौण कर देता है और दूसरे पक्ष में आकंठ डूब जाता है। आदमी मानता है कि अभी धर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह जीवन.... के लिए अनिवार्य भी नहीं है। यह तो अवकाश में करने के लिए है। ऐसा सोचकर वह सामाजिक सम्बन्धों को, स्वार्थपूर्ण सम्बन्धों को प्राथमिकता देता है । इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए। धर्म बूढ़ों या निकम्मों का कर्म नहीं है । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003110
Book TitleSamaj Vyavastha ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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