________________
भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध
पर कहा जा सकता है कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है, कोई रोग नहीं है। पर रोगी रोग भोग रहा है। अब क्या किया जाए ? रोगी का रोग भोगना अयथार्थ नहीं है
और डॉक्टर का कथन भी अयथार्थ नहीं है। यह जटिल स्थिति है। इस जटिल स्थिति में यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि कुछेक बीमारियाँ शरीर में नहीं होती, मन की होती हैं, मनोभावों की होती हैं और ये सामाजिक सम्बन्धों के असन्तुलन से पैदा होती हैं। जब तक व्यक्ति मृदु, ऋजु, ईामुक्त नहीं होता तब तक सामाजिक सम्बन्ध स्वस्थ नहीं हो सकते। सामाजिक सम्बन्धों की अस्वस्थता मन, शरीर और भावना को भी अस्वस्थ बना देती है। पहले भावना बीमार होती है, फिर मन और फिर शरीर बीमार होता है। इस स्थिति में कारण खोजा जाता है पेथोलॉजी की रिपोर्ट में, वह मिलेगा कहाँ से ? बीमारी कहीं दूसरे स्थान पर है और उसकी खोज कहीं अन्यत्र हो रही है। समाधान प्राप्त कैसे होगा ?
डॉ. गांगुली बता रहे थे कि अभी तक कैंसर के जर्स पकड़ में नहीं आए। डॉक्टर और वैज्ञानिक इसकी खोज में हैं पर वे अभी नहीं मिल पाए हैं। यदि जर्स-कीटाणु मिल जाते तो उनका निश्चित ही उपचार खोज लिया जाता। पर कीटाणु प्राप्त नहीं हैं, इसलिए वह अचिकित्स्य हो रहा है। माइक्रोस्कोप की जितनी क्षमता होती है, उतनों को ही वह देख पाता है। कैंसर के कीटाणु बहुत सूक्ष्म हैं। वे माइक्रोस्कोप की पकड़ से बाहर हैं, अतः अभी तक कोई उपाय नहीं निकला है।
हमारा जगत् न जाने कितना सूक्ष्म है। केवल स्थूल के आधार पर काम नहीं चलता। मन अत्यन्त सूक्ष्म है। चेतना उससे भी अधिक सूक्ष्म है। हम सामाजिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में केवल स्थूल से काम नहीं ले सकते । स्थूल के सहारे चलेंगे तो समाधान नहीं मिल सकेगा। आचार्य शुभचन्द्र का यह पद बहुत मार्मिक है-'स्थूलात सूक्ष्म-स्थूल से सूक्ष्म का आलम्बन लो। स्थूल जगत् से परे भी एक सूक्ष्म सत्ता है, उसका आलम्बन लेना चाहिए। हमारा प्रस्थान जैसे-जैसे स्थूल से सूक्ष्म की ओर होगा, वैसे-वैसे सत्यों का, रहस्यों का और सार्वभौम नियमों का पता लगता जाएगा और तब समस्याओं को सुलझाने में सहयोग मिलता रहेगा।
मानवीय सम्बन्धों की जटिलता को समझना सहज नहीं है। मकान का निर्माण करते समय ईंटों को, पत्थरों को व्यक्ति ठीक-ठीक कर, तोड़-भाँजकर फिट बिठा देता है। इसमें ज्यादा कठिनाई नहीं होती। पर, आदमी को फिट बिठाना सरल नहीं होता। यह चेतना बहुत बड़ी समस्या है। चेतन सोचता है, चिन्तन करता है, कल्पना करता है, तर्क करता है, यह उसका स्वभाव है। उसमें क्रोध है, स्वार्थ है, अहं है, काम है और भी न जाने उसके भीतर कितनी-कितनी वृत्तियाँ भरी हैं। ये ही समस्याएँ उत्पन्न करती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org