Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 88
________________ भोगवादी संस्कृति और सामाजिक सम्बन्ध दो वर्षों से नींद नहीं आ रही है। सोने का प्रयास करती हूँ तब बुरी-बुरी कल्पनाएँ आती हैं, विचार आते हैं। बहुत कष्ट से रात गुजरती है। अनेक उपचार किए पर कोई उपचार सफल नहीं हुआ। उस बहिन को प्रेक्षा साधिका कान्ता सुराणा ने कायोत्सर्ग कराया और साथ ही साथ अनुप्रेक्षा का प्रयोग भी बताया। प्रातः पूछने पर वह बहिन बोली- 'आज दो वर्षों में पहली बार नींद ली है । बहुत विश्राम मिला। अब मैं प्रतिदिन कायोत्सर्ग और अनुप्रेक्षा का प्रयोग करती रहूँगी ।' क्या यह प्रत्यक्ष लाभ नहीं है ? भोगवादी संस्कृति और पदार्थवादी संस्कृति के पीछे काम, अर्थ और स्वार्थ की बलवती प्रेरणा रहती है। भारतीय ऋषियों ने यहाँ नई धारा का प्रवर्तन किया जिसमें परमार्थ और त्याग की प्रेरणा है । स्वार्थ व्यक्ति को नीचे ले जाता है । परमार्थ व्यक्ति को ऊपर उठाता है । उन्नति के लिए परमार्थ की प्रेरणा बहुत जरूरी है । जहाँ न स्वार्थ है, न परार्थ है, पर है केवल परमार्थ - यह विकास का स्रोत है। परमार्थ की प्रेरणा के साथ स्वार्थ विघटित नहीं होता, किन्तु वह सधता है। परमार्थ और स्वार्थ- दोनों सधते हैं । जहाँ परमार्थ की प्रेरणा होती वहाँ स्वार्थ सामाजिक सम्बन्धों में तनाव पैदा करता है। सभी तनाव स्वार्थ से ही उत्पन्न होते हैं। आज के पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों को देखें, क्या वे मधुर हैं ? आप उनमें रचपच गए, इसलिए वे मधुर लगते हैं, पर वे हैं बहुत विषम । शादी होती है तो पति-पत्नी का और दोनों परिवारों का जितना मधुर सम्बन्ध होना चाहिए वह नहीं रहता । कुछेक प्रश्नों को लेकर शादी से पहले ही खतरा हो जाता है और शादी के बाद तो उसमें और अधिक विष घुल जाता है। दोनों परिवारों में तनाव आ जाता है और उस तनाव की आग में युवतियों को झुलसना पड़ता है और अनेक बार मौत का वरण भी कर लेना पड़ता है। राजनयिक दलों के सम्बन्धों में कितना विष घुला हुआ है, हम सब जानते हैं। किसी भी क्षेत्र को देखें, वहाँ तनाव पराकाष्ठा पर नजर आएगा। इसका मूल कारण है - भोगवादी संस्कृति, पदार्थवादी संस्कृति । जब तक पदार्थवादी दृष्टिकोण रहेगा तब तक मानवीय सम्बन्धों में, सामाजिक सम्बन्धों में सुधार नहीं किया जा सकता। ईरान का प्रसिद्ध शाह नौशेरां बहुत क्रूर शासक था। उसकी क्रूरता से सारा देश व्यथित था। कुछेक मन्त्रियों ने एक प्रयास किया और शाह का दृष्टिकोण बदलने लगा। धीरे-धीरे उसकी क्रूरता धुल गई और वह अधिक मृदु और न्यायप्रिय बनने लगा | उसके न्याय की कहानियां सर्वत्र फैल गईं । यह चमत्कार हुआ। उसने एक नया महल बनाया। उसी के पास एक बुढ़िया झोंपड़ी में रहती थी। उसके रसोई का धुआँ महल की दीवारों को काला कर देता था । बुढ़िया के Jain Education International ८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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