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समाज-व्यवस्था के सूत्र होता है, उतना ही मनुष्य का नैतिक पतन होता है। पदार्थ, सत्ता, अधिकार और बड़प्पन-ये भौतिक या भौतिकता से सम्बन्धित हैं। उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती हैं, आत्मौपम्य-बुद्धि मिट जाती है। प्राणी प्राणी में या मनुष्य मनुष्य में समता के भाव रहते हैं तो क्रूरता नहीं बढ़ती। उसके बिना अनैतिकता का पक्ष लड़खड़ा जाता है। मनुष्य-जीवन का दूसरा पक्ष रागात्मक है। उससे प्रेरित होकर मनुष्य अनैतिक कार्य करता है। जातीयता या राष्ट्रीयता के आधार पर जो नैतिकता का विकास हुआ है, उसमें उनका स्वतन्त्र मूल्य नहीं है। यह जाति और राष्ट्र के संकुचित प्रेम पर टिकी हुई होती है। वह अपनी सीमा से परे उग्र अनैतिकता बन जाती है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र के हितों के लिए दूसरे राष्ट्र के हितों को कुचलने में संकोच न करे, क्या उसे नैतिक माना जाए ? जाति, भाषा, प्रान्त और राष्ट्र-ये सारे समानता और उपयोगिता की दृष्टि से बनते हैं। मनुष्य जाति एक ही है-वह बात भुला दी है। गोरे गोरे से प्रेम करता है, और काले को पशु से भी गया-बीता समझता है। सवर्ण और असवर्ण हिन्दुओं में भी ऐसा ही चल रहा है। जातीय और राष्ट्रीय पक्षपात भी स्पष्ट है। ये स्थूल-दृष्टि से अच्छे भी लगते हैं। लोग उन योरोपियनों को सराहते हैं, जो अधिक कीमत देकर भी अपने देशवासियों की दूकान से चीज खरीदते हैं। वहीं चीज सरी जगह कम कीमत से मिलने पर भी नहीं खरीदते। इसे राष्ट्रीय-प्रेम का विकास माना जाता है। पर हम थोड़े-से गहरे चलें तो दिखेगा कि यह 'मनुष्य जाति एक है' उसकी विपरीत दिशा है। इस कोटि की भावनाएँ ही उग्र बनकर संघर्ष और युद्ध के रूप में फूट पड़ती हैं। अपने अधिकार क्षेत्र का विकास हो, अपनी जाति या भाषा की प्रगति हो, यह भावना यहीं तक सीमित रहे तो प्रियता को क्षम्य भी माना जा सकता है किन्तु वह प्रियता दूसरों के लिए अप्रिय परिस्थिति पैदा कर देती है, वहाँ मानव-जाति की अखण्डता विभक्त हो जाती है, इसलिए वह प्रेम भी अखण्ड मानवता की दृष्टि से अप्रेम ही है और उसके आधार पर विकसित होने वाली नैतिकता भी स्वतन्त्र मूल्यों की दृष्टि से अनैतिकता ही है। इसलिए अणुव्रत आन्दोलन का यह प्रयत्न है कि चेष्टा करने से भले ही फिर दूसरों का अहित न हो, स्वयं उसी का अहित होता ही है, इसलिए दूसरों के अहित की चेष्टा से बचा जाए, यह आध्यात्मिकता है। इसके आधार पर जो नैतिक-विकास होता है वह किसी के लिए भी खतरनाक नहीं होता। यह मानव की ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र की एकता की दिशा है। यह विचार जितना दार्शनिक है, उतना ही वैज्ञानिक है। इसकी प्रक्रिया निश्चित है। इतिहास साक्षी है कि जाति, भाषा, प्रान्त और राष्ट्र को मनुष्य ने ही जन्म दिया और आगे जाकर उसकी कृतियाँ ही उसके
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