Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 83
________________ ७८ समाज-व्यवस्था के सूत्र इसलिए समाज के सम्पर्क में वह नैतिकता बन जाती है। नैतिकता के बिना व्यक्ति पवित्र नहीं रहता, इतना ही नहीं, किन्तु सामूहिक व्यवस्था भी नहीं टिक पाती। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति प्रामाणिक न रहे, ईमानदार न रहे, तब सन्देह बढ़ता है। सन्देह से भय और भय से क्रूरता बढ़ती है। मनोविज्ञान के अनुसार भय के दो परिणाम होते हैं-पलायन और आक्रमण । अधिकांश लड़ाइयाँ, अभियोग, आक्रमण और युद्ध भय के कारण होते हैं। यदि मनुष्य नैतिक रहे तो सहज ही विश्वास का वातावरण पैदा हो जाए। वर्तमान की विभीषिका और शस्त्र-निर्माण की स्पर्धा इसलिए तो है कि एक राष्ट्र दूसरे के प्रति सन्दिग्ध है, भयभीत है और क्रूरता अनायास बढ़ रही है। नैतिक-विकास के बिना इस प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। व्यापार में प्रामाणिकता रहे, मिलावट न हो, कम तौल-माप न हो-ये नैतिकता की बहुत छोटी बातें हैं। नैतिकता का मूल यह है कि अपने स्वत्व को व्यापक बनाने की वृत्ति न हो, दूसरों के अधिकारों को हड़पने की चेष्टा न हो। मूल बलहीन हो रहा है। इसलिए बहुत छोटी बातें भयंकर बन रही हैं। यदि उनका मूल दृढ़ होता तो इन छोटी-छोटी बातों को व्रत का रूप देने की आवश्यकता नहीं होती। व्रत संयम है। संयम का स्वरूप विभक्त नहीं होता। व्रत एक ही है। वह है अहिंसा। वैयक्तिक साधना में अहिंसा का अभित्र रूप ही प्राप्त था। उसका सामूहिक आचरण हुआ तब उसकी अनेक शाखाएँ निकलीं। व्रतों का विकास हुआ। सत्य अहिंसा का नैतिक पहलू है। अपरिग्रह उसका आर्थिक पहलू है। अचौर्य और ब्रह्मचर्य उसके सामाजिक पहलू हैं। यथार्थ पर पर्दा डालने के लिए हिंसा का प्रयोग होता है, तब वह असत्य कहलाती है। पदार्थ-संग्रह के लिए उसका प्रयोग होता है तब वह परिग्रह कहलाती है। वासना का रूप ले वह अब्रह्मचर्य बन जाती है। चोरी का प्रश्न विकट है। युग रहा तर्कवाद का। लोग सारे मसलों को तर्क से हल करना चाहते हैं। कहा जाता है-युग बदल गया, समाज की परिस्थितियाँ बदल गईं। बदली हुई समाज-व्यवस्था में अहिंसा आदि व्रतों का कोई उपयोग नहीं रहा। वे आज अवैज्ञानिक हो गए हैं। पुराने जमाने में एक व्यक्ति को चाहे जितना धन संग्रह करने का अधिकार था। इसलिए उसकी धनराशि का लेना चोरी माना गया। वर्तमान समाज-व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के अधिकार निरंकुश नहीं हैं। आज मान लिया गया है कि धन का आवश्यक संग्रह किसी के पास नहीं होना चाहिए। यदि कोई करे तो उसका धन लूट लेना चाहिए। यह चोरी नहीं है। चोरी है-अनावश्यक संग्रह करना। हो सकता है-सामाजिक व्यवस्था और उसकी मान्यता के परिवर्तन के साथ चोरी की परिभाषा थोड़ी जटिल या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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