Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 81
________________ ७६ समाज-व्यवस्था के सूत्र सन्तुलित व्यवस्था का प्रेरक है। अपरिग्रह की एक लम्बी परम्परा है, जिसे मान्य कर लाखों-करोड़ों व्यक्ति आकिंचन्य का व्रत ले चुके हैं और उसका धागा आज टूटा नहीं है। साम्यवाद ने पूर्ण असंग्रह की ओर किसी को प्रेरित किया हो, ऐसा नहीं लगता। __ अर्थ-व्यवस्था के परिष्कार में साम्यवाद या उसके पाश्र्यों को छूती हुई दूसरी जनतन्त्र-प्रणालियाँ सफल न हुई हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु इसके द्वारा मानव की आवेगात्मक वृत्तियाँ परिष्कृत हुई हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। वृत्तियों का परिष्कार पदार्थ-संग्रह को अनिष्टकर मानने पर ही हो सकता है। अध्यात्मवाद इसी दिशा का नाम है। __ संग्रह का मूल भोगवृत्ति में है। समाज की जितनी व्यवस्थाएँ हैं, वे मात्रा-भेद से भोग-वृत्ति के परिष्कार हैं। अर्थ-तन्त्र उसका साधन है। अध्यात्मवाद का मूल त्याग में है। संग्रहमात्र पाप है, भले फिर वह वैयक्तिक हो या सामाजिक। जितना परिग्रह उतना बन्धन, जितना बन्धन उतना मोह, उतनी मिथ्या धारणाएँ, यह एक क्रम है, जो मनुष्य में भटकने की तर्क-बुद्धि पैदा करता है। अर्थ-तन्त्र की परिक्रमा करने वाले सारे वाद भौतिक-विकास को वैज्ञानिक और आत्मिक-विकास को अवैज्ञानिक मानकर चल रहे हैं। परिष्कृत अर्थ-व्यवस्था ने भी संघर्ष की दिशा बदली हो, ऐसा नहीं लगता। विकास को मापा जाता है पदार्थ से, शस्त्र से, सेना से। सामाजिक प्राणियों के लिए सामाजिक-विकास अपेक्षित नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। यह भी सच है, परिग्रह से समाज का भौतिक-विकास नहीं होता। वह आत्मा के विकास का पथ है। सामाजिक जीवन के लिए भौतिक-पक्ष और उसकी समृद्धि के लिए परिग्रह आवश्यक माना जाता रहा है। परिग्रह इच्छा है, पदार्थ नहीं। इच्छा जुड़ती है, वह परिग्रह बन जाता है। इच्छा का नियन्त्रण किया जा सकता है, पदार्थ का नहीं। सामाजिक प्राणियों के लिए अपरिग्रह का अर्थ है-इच्छा परिमाण । जीवन-यापन के दो विकल्प हैं-महा-आरम्भ और महा-परिग्रह तथा अल्प-आरम्भ और अल्प-परिग्रह । आज की भाषा में बड़ा उद्योग और अपार संग्रह तथा छोटा उद्योग और सीमित संग्रह, उद्योग के केन्द्रीकरण से अर्थतन्त्र विकृत होता है। यह व्यावहारिक दोष है। उसका आध्यात्मिक दोष है-भोगवृद्धि। भोग के लिए प्रचुर परिग्रह चाहिए और उसके लिए बड़ा उद्योग। यह क्रम जीवन के दोनों (भौतिक और आध्यात्मिक) पक्षों को जटिल बनाने वाला है। उद्योग के विकेन्द्रीकरण या अल्पीकरण का आधार अल्पभोग है। अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा भोग-त्याग का संयम है। इसीलिए यह आध्यात्मिक है। भारत का मानस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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