________________
अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद
विवादास्पद हो जाए । पर उसका कोई अर्थ ही न रहे, यह तो तब तक सम्भव नहीं, जब तक स्व व्यक्तित्व जैसा अधिकार मनुष्य को मिला रहेगा और मनुष्य में अतृप्ति का भाव बना रहेगा ।
चोरी परिग्रह का ही एक रूप है। आकांक्षा ही मनुष्य को किसी बहाने दूसरे की वस्तु लेने के लिए प्रेरित करती है । वैधानिक ढंग से वस्तु संग्रह करने में मनुष्य को माया नहीं करनी पड़ती, इसलिए वह संग्रह की प्रक्रिया कहलाती है और अवैधानिक ढंग से दूसरों की वस्तु लेने में माया का जाल बिछाना पड़ता है, विचार और कार्य की सहजता को छिपाना पड़ता है, इसलिए वह प्रक्रिया चोरी कहलाती है । वस्तु का संग्रह स्वयं सदोष है, भले फिर वह वैधानिक ढंग से हो या अवैधानिक ढंग से । वैधानिक ढंग से किए जाने वाले संग्रह को छोड़ने में सामाजिक प्राणी अपने को असमर्थ पाता है, किन्तु अवैधानिक संग्रह के लिए मनुष्य को बहुत ही नीचे उतरना पड़ता है। इसलिए उसे घृणित अर्थ में चोरी माना गया और संग्रह की इस प्रक्रिया से बचना आवश्यक माना गया ।
समाज के तीन पहलू हैं-आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक । जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आर्थिक आयोजन, आर्थिक व्यवस्था के लिए राजनैतिक संगठन और जीवन की उच्चता के लिए नैतिक विकास आवश्यक माना जाता है। नैतिकता का स्रोत आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता के माने हैं- आत्मा की अनुभूति और उनके शोधन का प्रयत्न । यह वैयक्तिक वस्तु है बाहरी जगत् में व्यक्ति सामाजिक बनता है, अन्तर्-जगत् में वह अकेला होता है अकेलेपन में जो अध्यात्म होता है, वही दो में नैतिकता बन जाती है। नैतिकता अध्यात्म का प्रतिबिम्ब है 1
1
/
नैतिकता का अखण्ड रूप है - आध्यात्मिकता या भौतिक आकर्षण में मुक्ति। वह है अहिंसा । अहिंसा और आध्यात्मिकता एक है, वह शाश्वत है, देश और काल के परिवर्तन के साथ परिवर्तित नहीं होती । आध्यात्मिकता का खण्ड रूप है-नैतिकता । स्वरूपतः वह भी अपरिवर्तित है, किन्तु प्रकारों के रूप में वह परिवर्तनशील भी है । देश, काल की स्थिति के अनुसार बुराई के प्रकार बदलते रहते हैं। बुराई नया रूप लेती है, नैतिकता का रूप लेती है, नैतिकता का रूप भी नया हो जाता है । वास्तव में अनैतिकता का रूप भी एक ही है । वह है हिंसा । हिंसा के नए प्रकार का प्रतिकार करने के लिए अहिंसा का नया प्रकार बनता है। स्वरूप न हिंसा का बदलता है और न अहिंसा का ।
प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है। सुख का मूल है - शान्ति और शान्ति का मूल है- भौतिक आकर्षण से बचना। भौतिकता के प्रति जितना अधिक आकर्षण
Jain Education International
७६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org