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समाज-व्यवस्था के सूत्र
सुषुम्ना और प्राण के संवेदन आदि-आदि विभिन्न संवेदन होते हैं । इन्हें पकड़ना छोटी बात नहीं है। मनुष्य में चेतना है । वह जड़ को भी जानता है और चेतन को भी जानता है। वह सबको जानता है, अपने आपको भी जानता है और दूसरों को भी जानता है I
चेतना के दो आयाम हैं-ज्ञान और संवेदन। यह संवेदन का जो आयाम है, यह समाज व्यवस्था के लिए आधार भूत सूत्र बनता है। जिस समाज में संवेदनशीलता का धागा नहीं होता, वह नृशंस लोगों का समाज बन जाता है। जिस समाज में यह सूत्र नहीं होता, वह हिंस्र पशुओं का समाज बन जाता है। मनुष्य का इसीलिए विकसित, सहयोगशील समाज बना कि इसमें संवेदना है। इसी के आधार पर आज हजारों-हजारों आदमी साथ में रहते हैं । यदि मनुष्य में कोरी बुद्धि होती, कोरा ज्ञान होता और संवेदना नहीं होती तो वह ज्ञान विध्वंसकारी ही होता । जिस वैज्ञानिक ने अणु-शस्त्रों का निर्माण किया उसने सबसे पहले मानवीय संवेदना का काटकर अलग रख दिया और फिर अस्त्रों का निर्माण किया । यदि उस वैज्ञानिक में मानव जाति के प्रति संवेदना होती तो वह ऐसा जघन्य कार्य कभी नहीं करता । मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है- संवेदनशीलता ।
हम पहले स्थूल शरीर के, फिर तैजस शरीर-विद्युत् शरीर के संवेदनों को पकड़ते हैं। ये हमारे भावों के संवाहक हैं। फिर हम कर्म शरीर के और अन्त में चैतन्य के संवेदनों को पकड़ते हैं । जब ये पकड़ में आते हैं, तब हमारा चैतन्य इतना विस्तारशील बन जाता है कि फिर हमसे किसी के प्रति क्रूरता का व्यवहार नहीं हो सकता। जिन-जिन में अध्यात्म जागा है, उनमें संवेदनशीलता अवश्य जागी है। उनमें करुणा का प्रवाह फूटा है और वे समता से ओतप्रोत हुए हैं। वह फिर किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता, धोखा नहीं दे सकता, किसी की भूमि या सम्पत्ति नहीं हड़प सकता, अनैतिकता नहीं कर सकता आदि -आदि ।
प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया इस सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाती है। हम उसके माध्यम से संवेदनशीलता को जगाएँ। वह इतनी व्यापक वन जाए कि पूरा मानव समाज ही नहीं, पूरा प्राणी जगत् उसमें समा जाए। इतना होने पर ही क्रूरता धुल सकती है। अन्यथा बाप बेटे को और बेटा वाप को, सास बहू को और बहू सास को मार सकती है। कोई रोकने वाला नहीं है । जब संवेदना रुक जाती है तब कौन किसको नहीं मार सकता ? सब सबको मार सकते हैं। संवेदना के अभाव में कोई सम्बन्ध टिकता ही नहीं ।
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ध्यान से आदमी बदले, यह मूल बात है। इसका तात्पर्य है कि उसमें रही हुई क्रूरता वदले, शोषण की वृत्ति बदले, नयी चेतना का निर्माण हो। हमें वह ध्यान
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