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समाज-व्यवस्था के सूत्र
चिन्तन स्वस्थ होगा और चिन्तन स्वस्थ होगा तो व्यवस्था में परिष्कार आएगा।
प्रश्न आता है कि एक ओर पदार्थ का विकास और उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है और दूसरी ओर अर्थशास्त्र और समाज-कल्याण के सम्बन्ध में परिवार नियोजन की बात कही जा रही है। क्या परिवार नियोजन की बात समाज के लिए कल्याणकारी है ? क्या यह आपकी चर्चा में फिट बैठ सकती है ?
आवश्यकता बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओ, उपभोग करो और परिवार नियोजन भी करो-ये विरोधी बातें हैं। इसका तात्पर्य है कि चैतन्य को कम करो। उपभोक्ता को कम करो, पर उपभोग्य को बढ़ाओ। इस सम्बन्ध में एक बात छूट जाती है। पदार्थ का उत्पादन बढ़ाओ और आवश्यकता बढ़ाओ-यह एक बात हई। अब इसके साथ यदि 'इकोलॉजी' की एक बात और जुड़ जाती है कि पदार्थों का उपभोग कम करो-तो पूरी बात बन जाती है। 'इकोलॉजी' का सिद्धान्त है-'लिमिटेशन'-यानी उपभोग्य वस्तु की सीमा है, इसलिए उसे कम काम में लो। पदार्थ का उत्पादन बढ़ाओ पर स्वयं भोग मत करो। समस्या वहाँ उलझती है जहाँ सिद्धान्त बनता है कि पदार्थ को बढ़ाओ और उपभोग की भी वृद्धि करो। पदार्थों की वृद्धि से कोई हानि नहीं है। बुराई आती है, उपभोग में। इसे हमें स्पष्ट समझ लेना चाहिए।
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