Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र जीवन की अनिवार्यता है । यह मानसिक शान्ति और सफलता का सूत्र है। आदमी विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों के ताप से जल रहा है। उसे शान्ति की आवश्यकता है। उसकी प्राप्ति के लिए सम्बन्धातीत चेतना का अनुभव करना होगा। सम्बन्ध और सम्बन्धातीत या संयोगातीत चेतना-दोनों का सन्तुलित विकास होना चाहिए । सम्बन्ध केवलपदार्थ या परिवार के साथ ही नहीं होता; वह अपने भीतर के साथ भी होता है। आदमी का परिग्रह के साथ सम्बन्ध होता है । परिग्रह दो प्रकार का है - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का होता है । और आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ- ये सारे आभ्यन्तर परिग्रह हैं । इनके साथ आदमी सम्वन्ध बनाए बैठा है। इनके साथ इतना गहरा सम्बन्ध हो गया है कि वह अन्यान्य परिग्रहों को छोड़ सकता है पर इनको नहीं । इनके साथ गहरा सम्बन्ध है । यही सम्बन्ध फूट-फूटकर बाहर आता है। जब तक आन्तरिक सम्बन्ध - आन्तरिक परिग्रह और बाहर का सम्बन्ध - बाहर का परिग्रह-इन दोनों के विषय में सम्बन्धातीत चेतना का परिष्कार नहीं होता तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आदमी और सारी चिन्ताओं को छोड़कर सबसे पहले अपना समाधान खोजे। इसके लिए यही करना होगा कि भीतर के सम्वन्ध कम किए जाएँ, बाहर के सम्बन्ध भी कम किए जाएँ और सम्बन्ध से परे की चेतना को विकसित किया जाए। जहाँ 'मेरा है' - यह चेतना है तो 'मेरा नहीं है' - वास्तविक चेतना है। इन दोनों का समन्वय किया जाए तो बहुत बड़ा समाधान मिल सकता है इससे । समस्याएँ सुलझेंगी, मानसिक उलझनें कम होंगी. व्यवहार कुशल और मृदु बनेगा, कलह कम होंगे और 'न्यायालय शरणं गच्छामि' की बात छूट जाएगी । ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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