Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 73
________________ महावीर की समाज-व्यवस्था महावीर धर्म के तीर्थंकर थे। वे राज्य के शास्ता नहीं थे। उन्होंने धर्म का प्रतिपादन किया-एक मुनि के लिए भी और एक गृहस्थ के लिए भी। समाज और घर का त्याग करने वाला मुनि भी उनका अनुयायी बना और गृहस्थ के लिए भी एक आचार-संहिता बनाई, पूर्ण आध्यात्मिक और आन्तरिक। अध्यात्म के क्षेत्र में इतनी महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित संहिता अभी तक देखने में नहीं आई। उस आचार-संहिता में कुछ विलक्षणता है और उसके आधार पर समाज की समग्र व्यवस्था बनती है। यह नहीं कहा जा सकता कि अध्यात्म के आधार पर समाज की व्यवस्था चल सकती है। समाज व्यवस्था के पीछे शासन होता है, दण्ड का भय होता है और दण्ड की शक्ति होती है। महावीर के पास न कोई शासन था, न राज्य सत्ता का सहारा था और न दण्ड की शक्ति। समाज की व्यवस्था करना उनका विषय भी नहीं था। समाज स्थायी मूल्यों के आधार पर चलता है। कोई भी समाज केवल सामाजिक मूल्यों के आधार पर अपने मूल्य को बनाए नहीं रख सकता। भगवान महावीर ने ऐसे स्थायी मूल्यों का प्रतिपादन किया जो समाज के लिए आधारभूत बन जाते हैं। वे आधारभूत तत्त्व सात हैं १. अभय, २. अनाक्रमण, ३. विश्वास या आश्वासन, ४. सामंजस्यपूर्ण विकास, ५. परिग्रह की सम्यक् व्यवस्था, ६. समानता, ७. विसर्जन। भगवान महावीर ने १२ व्रतों का प्रतिपादन किया। अध्यात्म समाज-व्यवस्था का स्थायी तत्त्व है, त्रैकालिक सत्य है। चाहे कोई भी व्यवस्था हो-प्रजातान्त्रिक प्रणाली, साम्यवादी प्रणाली या अन्य कोई भी प्रणाली, ये सात तत्त्व प्रत्येक शिष्ट समाज के लिए अनिवार्य हैं। - जहाँ अभय और अनाक्रमण की बात नहीं होती वहाँ समाज चल नहीं सकता। सबसे पहली शर्त है अभय। जितने हिंसक जानवर हैं उनका समाज नहीं बना। बन भी नहीं सकता क्योंकि वे एक-दूसरे से भय खाते हैं। मनुष्य का समाज तभी बना जब उनमें पहले अभय का विकास हुआ। अभय के लिए अनाक्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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