Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 72
________________ सामाजिक चेतना और धर्म क्रूरता और निर्दयता बढ़ी है। उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-खाने की वस्तुओं में मिलावट। जिसमें थोड़ी-सी भी सामाजिक या अहिंसा की चेतना हो तो क्या वह खाने की वस्तुओं में मिलावट कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता। क्या वह दवाइयों में मिलावट कर सकता है ? कभी नहीं। क्या वह तेल में जहरीला पदार्थ मिला सकता है, जिससे कि हजारों आदमी रोगग्रस्त बन जाएँ ? कभी सम्भव नहीं। सामजिक चेतना और धर्म की चेतना-दोनों का गहरा सम्बन्ध है। जब इनको भुला दिया जाता है तब समस्या पैदा होती है। सामाजिक चेतना के जागरण का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अहिंसा और करुणा का विकास। इस बिन्दु पर दोनों का सम्बन्ध जुड़ जाता है। आदमी इतना स्वार्थी होता है, इतना छलावा और प्रवंचना करने वाला होता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। समाज के विकास का एक सूत्र है-संवेदनशीलता। यही धर्म का सूत्र है। संवेदनशीलता का अर्थ है-स्वयं वैसा अनुभव करना। जैसा व्यवहार तुम अपने साथ नहीं चाहते, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ मत करो। जिस व्यवहार से तुम्हें प्रियता या अप्रियता की अनुभूति होती है, वैसे व्यवहार से दूसरे को प्रियता और अप्रियता का अनुभव होता है। इसलिए जैसा तुम्हारा प्रियता या अप्रियता का संवेदन है, वैसा ही तुम समाज के साथ अनुभव करो। यह संवेदनशीलता धर्म का सूत्र है, सामाजिक चेतना का सूत्र है। जो व्यक्ति समाज के प्रति जितना संवेदनशील होता है, उतना ही वह समाज को लाभ पहुंचाता है। जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं रहती और व्यक्ति के मन में यह भावना काम करती है कि 'मैं पीया, मेरा बैला पीया, फिर चाहे कुआँ ढह पड़े-वहाँ सामाजिक चेतना नहीं जागती। समाज का अर्थ केवल एकत्रित हो जाना नहीं है। समाज एकसूत्रता से जुड़ा हुआ है। एकसूत्रता का मूल आधार है-संवेदनशीलता। जिस समाज के सदस्य एक-दूसरे की पीड़ा का अनुभव करते हैं, कठिनाइयों का अनुभव करते हैं, वहीं वास्तव में समाज बनता है। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी चिन्ता करता है, वहाँ समाज कैसे बनेगा ? वह तो केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र है। शरीर में एकसूत्रता होती है प्राण की। प्राण होता है तो शरीर के सभी अवयव साथ मिलकर काम करते हैं, सबका ठीक संचालन होता है। प्राण के निकल जाने पर केवल अस्थियों का ढाँचा मात्र रह जाता है। संवेदनशीलता के अभाव में समाज भी कोरा अस्थियों का ढाँचा मात्र रह जाता है। वह स्वस्थ चेतनावान् समाज नहीं बनता। सामाजिक चेतना के जागरण के लिए संवेदनशीलता को जगाना बहुत जरूरी है। हमारी संवेदनशीलता जागे। हम पराई समस्या या पीड़ा को अपने में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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