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समाज-व्यवस्था के सूत्र
देवों की बारी आई। उनके भी हाथ बाँध दिए गए। कुछ देर तक वे असमंजस में बैठे रहे। फिर एक उपाय सूझा। बँधे हुए हाथ अपने मुँह की ओर तो नहीं मुड़ते, पर सामने वाले के मुँह तक तो पहुँचते ही हैं। देव एक-दूसरे को कवल देने लगे। पूरा भोजन कर नियमित समय पर उठ गए।
इन्द्र ने दानवों से कहा-बताओ ! पक्षपात किसने किया ? जिसमें परस्परता होती है, जो दूसरों को खिलाना जानता है, वह देव होता है। जिसमें परस्परता नहीं होती, वह दानव होता है। देव और दानव में अन्तर ही क्या ? जो स्वार्थी होता है, जो स्वयं खाना जानता है पर खिलाना नहीं जानता, वह दानव होता है। जो स्वयं खाना जानता है और दूसरों को तिलाना भी जानता है, वह देव होता है। महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य ने लिखा है-जो स्वयं खाना जानता है और दूसरों को खिलाना भी जानता है वह व्यक्ति राजनीति में सफल हो सकता है। जो स्वयं खाना जानता है, वह कभी सफल नहीं होता।
__ समाज की दिव्यता का लक्षण है-पारस्परिकता। धर्म की चेतना जागे बिना समाज की चेतना भी पूरी नहीं जागती। समाज के लिए तीन बातें अपेक्षित हैं-(१) स्वार्थ मुक्ति, (२) परस्परता, और (३) अहिंसा। समाज बनता है अहिंसा के आधार पर। अहिंसा की चेतना जागे बिना समाज का निर्माण नहीं होता है। यदि हिंसा की चेतना वालों का समाज बनता है तो हिंसक पशुओं का ही समाज बनेगा। पर आज तक बना नहीं। मछलियों का समाज बन जाता, पर बना नहीं। जहाँ बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, वहाँ समाज नहीं बन सकता। समाज के लिए पहली शर्त है-अहिंसा। जिस दिन मनुष्य ने अहिंसा को समझा, उसी दिन से उसका समाज बनना शुरू हुआ। अहिंसा के बिना समाज बन नहीं सकता। समाज की नींव में अहिंसा बराबर काम करती है। अहिंसा की चेतना जितनी विकसित होती है। उतनी ही सामाजिक चेतना विकसित होती है। जहाँ-जहाँ अहिंसा की चेतना कम होती है, वहाँ-वहाँ सामाजिक चेतना का भी हास हो जाता है। वह मूर्छित हो जाती है। भारतीय इतिहास से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब-जब अहिंसा की बात भुला दी गई, तब-तव समस्याएँ और कठिनाइयाँ उभरी हैं, रक्त-क्रान्तियाँ हुई हैं। आज भी भ्रष्टाचार करने वाले, अनैतिकता करने वाले, दूसरों को ठगने वाल, क्रूर व्यवहार करने वाले अहिंसा की उपेक्षा करते हैं। उसका परिणाम यह होता है कि समाज में विच्छंखलता पनपती है, रक्त-क्रान्ति की सम्भावना बढ़ जाती है। ऐसा हुआ है आर ऐसा होगा। और होता रहेगा। जब आदमी क्रूर बन जाता है, दूसरों की निरन्तर उपेक्षा करता जाता है तव समस्याएँ पैदा होती हैं। आज के तथाकथित धार्मिक समाज में भी करुणा सूख-सी गई है,
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