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सामाजिक चेतना और धर्म
मछली पानी में जीती है। पानी के बिना उसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। व्यक्ति समाज में जीता है। समाज के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। भाषा, सभ्यता, संस्कृति आदि जितने भी विशिष्ट गुण हैं, वे समाज में पनपते हैं। यदि किसी व्यक्ति को समाज से सर्वथा अलग रखा जाए तो वह या तो रामू भेड़िया बनेगा या केवल मिट्टी का लोधा। वह और कुछ बन ही नहीं सकता।
हमारे दो रूप हैं। एक है व्यक्ति का रूप और दूसरा है समाज का रूप। व्यक्ति का व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता, वह समाज के साथ रहता है। पर उसका जो समाज का रूप है, वह उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। आज एक प्रकार से व्यक्ति की अपेक्षा समाज का रूप ज्यादा है, इसलिए सामाजिक चेतना का प्रश्न बहुत मूल्यवान् है। जब तक सामाजिक चेतना नहीं जागती, व्यक्ति का भी मूल्य नहीं होता। इसलिए सामाजिक चेतना का जागरण बहुत अपेक्षित होता है।
सामाजिक चेतना क्या है, इस पर हमें विमर्श करना है। जब आदमी 'स्व' से हटकर 'पर' तक चलता है, तब वह सामाजिक बन जाता है। सामाजिक चेतना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-परस्परता। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-'परस्परोपग्रहो जीवानाम'-जीवों का लक्षण है-एक-दूसरे को सहारा देना, आलम्बन देना। समाज बनता है परस्परावलम्बन के आधार पर, पारस्परिक सहयोग के आधार पर। पौराणिक कहानी है। असुरों ने एक बार इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि आप देवों का पक्ष लेते हैं। इन्द्र ने कहा-ऐसा तो नहीं है, इसका निर्णय करने के लिए इन्द्र ने देवों और दानवों को भोज के लिए निमन्त्रण दिया। दोनों बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। इन्द्र ने कहा-भोज एक शर्त के साथ होगा। दो-दो व्यक्ति आमने-सामने बैठेंगे। दोनों के हाथ खपत्रियों से बँधे हुए रहेंगे। ऐसी अवस्था में भोजन करना होगा। पहले दानवों का नम्बर आया। सबके हाथ बाँध दिए गए और उन्हें भोजन करने के लिए कहा गया। वे वैसे ही बैठे रहे। नियमित समय पर बिना भोजन किए उठ गए।
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