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समाज-व्यवस्था के सूत्र
सम्बन्धातीत चेतना भी साथ-साथ विकसित हो कि 'यह मेरी माँ है' और 'मेरी माँ नहीं है', 'ये मेरे पिता हैं' और 'मेरे पिता नहीं हैं' तो समस्याएँ कम होंगी । सम्बन्ध की चेतना और सम्बन्धातीत चेतना- दोनों साथ-साथ चलनी चाहिए। तभी आदमी सुख और शान्ति से जी सकता है। जब केवल सम्बन्ध की चेतना ही रहती है तब पिता पुत्र को और पुत्र पिता को, भाई भाई को तथा पति पत्नी को और पत्नी पति को कष्ट देने में नहीं हिचकती। यहाँ तक कि एक-दूसरे को हत्या करने तथा दण्डित करने में भी हिचकिचाहट नहीं होता। पिता पुत्र को मार डालता है और पुत्र पिता को मार डालता है। भाई भाई की हत्या कर देता है । यह सब घटित होता है - सम्वन्धातीत चेतना को न जानने के कारण। इसलिए दोनों दृष्टियाँ स्पष्ट रहें कि मेरा पिता है और मेरा पिता नहीं है । यह अनेकान्तदृष्टि या सापेक्षदृष्टि रहती है और कोई अनुचित व्यवहार एक-दूसरे के प्रति हो जाता है तो कष्टदायी नहीं होता । वह व्यक्ति बौखलाता नहीं, क्योंकि वह जानता है कि इस दुनिया में ऐसा होना आश्चर्य नहीं है। यदि ऐसा व्यवहार न हो तो आश्चर्य हो सकता है । बात समाप्त हो जाती है। जब तक सम्बन्धातीत चेतना का विकास नहीं होता तब तक एक छोटी-सी बात पर भी भयंकर आवेश आ जाता है और आदमी बुरे से बुरा कार्य कर लेता है ।
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आप अध्यात्म को व्यर्थ न समझें। यह अध्यात्म की चेतना जीवन की सफलता की चेतना है। इससे बोध मिलता है और सारे व्यवहार अच्छे बन जाते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं होता वह व्यक्ति सफल व्यवहार करने वाला भी नहीं होता, व्यवहार के क्षेत्र में भी वह पिछड़ जाता है । अध्यात्म बड़े से बड़ा बोधदाता है । बोध मिलने पर समाधान मिल जाता है।
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सूत्र
बम्बई के एक भाई ने आचार्य तुलसी से गुरु-दीक्षा ली। गुरु-दीक्षा का एक हैं- "मैं किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या नहीं करूँगा।” कुछ वर्ष बीते । ऐसी परिस्थिति आई कि वह व्यक्ति आत्म हत्या करने का निश्चय कर समुद्र पर चला गया। वह समुद्र में छलाँग लगाने वाला ही था कि गुरु-दीक्षा की स्मृति हो आई । 'मैं आत्महत्या नहीं करूँगा' - यह सूत्र उसके मस्तिष्क में चक्कर लगाने लगा । वह तत्काल वहाँ से लौटा। आवेश शान्त हो गया । परिस्थिति ने मोड़ लिया। वह मरने से बच गया। दो-तीन बार उसके सामने आत्महत्या की परिस्थिति आई और गुरु-दीक्षा ने उसे बचा लिया। उस सूत्र ने उसके लिए स्थिरीकरण का . काम किया। धर्मसंघ में 'स्थविर' की व्यवस्था होती है। स्थविर का काम होता है। संयम में अस्थिर होने वाले को पुनः स्थिर करना, पुनः संयममार्ग में आरूढ़ कर
देना ।
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