Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 65
________________ .६० समाज-व्यवस्था के सूत्र लड़का हो जाए तो धर्म का फल और लड़की हो जाए तो पाप का फल। कितनी विडम्बना ! पता ही नहीं चलता कि ये भ्रान्ति भरी लोक-मान्यताएँ कैसे चल पड़ती हैं। धार्मिक लोग किस प्रकार प्रवाह में बह जाते हैं ! धार्मिक लोग भी यह मान लेते हैं कि संसार में जो अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, वे सब धर्म के कारण ही होती हैं। बेचारा धर्म कहीं का नहीं रहा। क्या पदार्थ की उपलब्धि ही धर्म की परिणति है ? स्त्री की प्राप्ति भी धर्म से होती है और ब्रह्मचारी बनना भी धर्म से होता है। स्त्री-प्राप्ति और स्त्री-त्याग-दोनों धर्म से होते हैं। इससे अधिक और क्या बुद्धि-साध्य हो सकता है। ये सारी अत्युक्तियाँ हैं। धर्म से वही होगा, जो उससे हो सकता है। धर्म की प्रकृति है-त्याग और संयम । आचार्य भिक्षु ने धर्म की परिभाषा की-त्याग धर्म है और भोग अधर्म है। परिभाषा हो गई। कहीं जटिलता नहीं है। जीवन से जितना-जितना त्याग उतना-उतना धर्म और जितना-जितना भोग उतना-उतना अधर्म। गीता में अनासक्त-योग और निष्काम-कर्म का सुन्दर उपदेश है। किन्तु लोग उसका भी दुरुपयोग करते हैं। मैंने एक भाई से पूछा-अरे ! ऐसा काम तुम करते हो ? वह बोला-बिलकुल अनासक्त भाव से कर रहा हूँ। मेरा इसके साथ कोई लगाव नहीं है। यह है अनासक्त-योग का दुरुपयोग। वह नहीं जानता कि अनासक्त चेतना कब-कैसे जागती है ? गीता में अनासक्ति के जागरण के अनेक प्रयोग हैं। कोई उन प्रयोगों से गुजरता नहीं और सीधा अनासक्त बन जाता है। वह अपनी तीव्र आसक्ति की आड़ में अनासक्ति का उपयोग करता है। वह है धर्म की विडम्बना। धर्म की धारणा के बारे में परिष्कार की आवश्यकता है। धर्म से सब कुछ नहीं मिलता। धर्म से पदार्थ का योग नहीं होता। किन्तु पदार्थ का त्याग और पदार्थ का वियोग घटित होता है। जब धर्म और अध्यात्म की चेतना जागती है तब आदमी पदार्थ की भाषा में नहीं सोचता। वह परिग्रह और संग्रह की भाषा में नहीं सोचता। वह अपरिग्रह और अपदार्थ की भाषा में सोचेगा, त्याग की भाषा में सोचेगा। बहुत सारे लोग मरते दम तक पदार्थ की भाषा में ही सोचते हैं। __एक सेठ संन्यासी के पास गया। सेठ चालाक था। उसने अपनी होशियारी प्रदर्शित करने के लिए संन्यासी से कहा-महात्मन् ! आप तो जगह-जगह घूमते हैं। मेरे पास एक छड़ी है। आप उसे ले जाएँ और ऐसे व्यक्ति को दें जो महामूर्ख हो। संन्यासी ने छड़ी ले ली। पाँच-छह वर्ष बीत गए। एक दिन संन्यासी छड़ी लिए उसी सेठ के घर पहुँचा। उसने देखा कि सेठ मृत्युशय्या पर पड़ा है और कुछ ही समय का मेहमान है। फिर भी वह अपने लड़के से पूछ रहा है-बेटे ! उसके उधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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